नववर्ष द्वार पर दस्तक दे रहा है, सभी पाठकों को नववर्ष की मंगलकामना और शुभकामनाये, नववर्ष की बधाई तो सब लोग देतें हैं, और अपने,अपने लिए नववर्ष में कुछ नियम बनाते हैं,और उन नियोमों पर चलने के लिए प्रण करतें हैं, लेकिन उड़न तश्तरी जी ने तो सर्व हिताय की बात कही है मन को भा गयी , यदा,कदा ब्लॉग पड़ने पर उड़न तश्तरी जी की टिप्पणियों पर दृष्टि पड़ी, और टिप्पणियों में नए ब्लोग्गरों को जोड़ने और पुराने ब्लोग्गरों को प्रोत्साहित करने की बात लिखी थी, उनकी यह सहहिर्द्यता मन को छु गयी, वोह तो हैं ही हिंदी लेखन को समर्पित परन्तु सब के बारें उनका सोचना बहुत प्रभावित कर गया |
बुडे हुए जाते हुए नववर्ष के साथ,अपनी वोह बुराइयाँ जो आपको लगती हैं, बीते हुए वर्ष के साथ भेज कर,स्नेहिल मधुर वातावरण बनाएं |
अंत में सभी पाठकों और उनके परिवार जो भी नयें आने वाले हैं, उन लोगों का इस नववर्ष पर हार्दिक स्वागत और उनके मंगलमय जीवन की शुभकामनाओं के साथ इस लेख का समापन करता हूँ |
नववर्ष की शुभकामनायें |
बुधवार, दिसंबर 30, 2009
सोमवार, दिसंबर 28, 2009
राज पिछले जन्म का सीरियल में मुझे एक संदेह है
आज कल दूरदर्शन पर पूर्वजनम से सम्ब्धन्दित एक सीरियल दिखाया जा रहा है, "राज पिछले जन्म का", जिसमे जानी मानी हस्ती डाक्टर तृप्ति जैन लोगों का इस जन्म का डर निकालने के लिए, या उनकी शंका का समाधान करने के लिए पूर्वजन्म में ले जातीं हैं, डाक्टर तृप्ति जैन के बारे में में इस सीरियल के प्रारंभ होने से पहले से जानता हूँ, और यह भी ज्ञात था कि हिप्नोसिस कर के लोगों को पूर्व जन्म में ले जातीं है, मेरे को अक्सर उरिसा की रहने वाली सुप्रसिद्ध लेखिका फेसबुक में अक्सरमुझे अपने लेखो को मेल करतीं रहतीं है, उनकी एक मेल इसी सीरियल के सन्दर्भ में आया था, उनको तो दो तीन संदेह थे, पर उसमें से एक संदेह तो मुझे भी है, डाक्टर तृप्ति यदा कदा पुर्बजन्म में ले जाने से ऐसी बातें पूछतीं हैं,जैसे कि पुर्बजन्म में ले गए इन्सान के द्वारा देखे हुए दृश्यों को वोह सवयं भी देख रहीं हों, ऐसे लोगों को तो अंग्रेजी क्लेरोवेनेट में कहा जाता है, परन्तु उनके बारे में तो क्लेरोवेनेट का कोई वर्णन नहीं है, यह वर्णन है तो पूनम सेठी जी के बारे में है,पर तृप्ति जैन के बारे में नहीं |
हिप्नोतिस्म का मेरे पिता जी को ज्ञान होने के कारण इस विद्या को में, बहुत समीप से जानता हूँ, इसके तीन प्रमुख नियम हैं |
पहला हिप्नोटाइस होने वाले व्यक्ति को इस क्रिया के लिए सहयोग देना आवश्यक है |
दूसरा हिप्नोटाइस होने वाला कभी भी वोह काम नहीं करेगा जो कि वोह जागृत अवस्था में नहीं कर सकता |
तीसरा हिप्नोटाइस करने वाले व्यक्ति की यह क्रिया प्रारंभ होने से पहले उसकी बातों पर पूर्ण मनोयोग से ध्यान देना |
अब इसमें कहीं भी यह नहीं आता कि इस क्रिया में हिप्नोटाइस होने वाले व्यक्ति के दृश्यों को हिप्नोटाइस करने वाला देख रहा है, अब रहा पुर्बजन्म के बारे में,इसके बारे में सुना और पड़ा अवश्य है,पर देखा कभी नहीं,इसका वर्णन हमारे आदि ग्रंथो में तो है,और समाचार पत्रों में कभी,कभी छप जाता है |
कहा जाता है कि चोरासी लाख योनिया है,परन्तु इस सीरियल "राज पिछले जन्म का ", में मनुष्य का जन्म मन्युष का ही दिखाया है,हाँ एक सीरियल में,स्त्री का पुर्बजन्म पुरष का दिखाया था, परन्तु मानव जाती का पुर्बजन्म मानव ही दिखाया गया है, अभी तक और किसी योनी में नहीं |
कुछ समय पहले अमर उजाला में एक बालक के बारे में समाचार छपा था,उसके पॉँच जन्म हुए थे, मक्खी,बर्र सांप और बालक के दो जन्म, हो सकता है,किसी को इस सीरियल में पुर्बजन्म किसी और योनी में दिखा दें,देखते हैं क्या होता है ?
हिप्नोतिस्म का मेरे पिता जी को ज्ञान होने के कारण इस विद्या को में, बहुत समीप से जानता हूँ, इसके तीन प्रमुख नियम हैं |
पहला हिप्नोटाइस होने वाले व्यक्ति को इस क्रिया के लिए सहयोग देना आवश्यक है |
दूसरा हिप्नोटाइस होने वाला कभी भी वोह काम नहीं करेगा जो कि वोह जागृत अवस्था में नहीं कर सकता |
तीसरा हिप्नोटाइस करने वाले व्यक्ति की यह क्रिया प्रारंभ होने से पहले उसकी बातों पर पूर्ण मनोयोग से ध्यान देना |
अब इसमें कहीं भी यह नहीं आता कि इस क्रिया में हिप्नोटाइस होने वाले व्यक्ति के दृश्यों को हिप्नोटाइस करने वाला देख रहा है, अब रहा पुर्बजन्म के बारे में,इसके बारे में सुना और पड़ा अवश्य है,पर देखा कभी नहीं,इसका वर्णन हमारे आदि ग्रंथो में तो है,और समाचार पत्रों में कभी,कभी छप जाता है |
कहा जाता है कि चोरासी लाख योनिया है,परन्तु इस सीरियल "राज पिछले जन्म का ", में मनुष्य का जन्म मन्युष का ही दिखाया है,हाँ एक सीरियल में,स्त्री का पुर्बजन्म पुरष का दिखाया था, परन्तु मानव जाती का पुर्बजन्म मानव ही दिखाया गया है, अभी तक और किसी योनी में नहीं |
कुछ समय पहले अमर उजाला में एक बालक के बारे में समाचार छपा था,उसके पॉँच जन्म हुए थे, मक्खी,बर्र सांप और बालक के दो जन्म, हो सकता है,किसी को इस सीरियल में पुर्बजन्म किसी और योनी में दिखा दें,देखते हैं क्या होता है ?
रविवार, दिसंबर 27, 2009
आ गयी हमारी दूसरी ख़ुशी
मैंने तो राखी पर भाई से चोकलेट मांगी थी, पर भाई ने एक फ्राक में टरका दिया,कंजूस कहीं का
बैठने के बाद तो मेरा ख़ुशी का ठिकाना ना रहा, कोई जलता है तो जले मेरे ठेंगे से
पहली बार में बैठने में में सफल हुई (नीचे दायें नजर तो डालो )
मेरा जन्म 8 जून 2009 को हुआ था |
बुधवार, दिसंबर 09, 2009
सिगरेट,गुटखा, छुड़वाने का सरकार की ओर से प्रवाधान क्यों नहीं?
समाचार पत्रों में पड़ा था,सिगरेट के पेकेट पर सिगरेट से होनेवाले नुक्सान का फोटोग्राफिक सन्देश के बारे में विचार हो रहा है,और उसके बाद सिगरेट के पेकेट पर फेफरों का नुक्सान पहूचाने वाला चित्र बन गया,और उससे पहले सिगरेट के पेकेट पर हिंदी में लिखा होता था,"सिगरेट स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है",और अंग्रेजी में भी लिखा होता था, " cigrette smoking is injurious for health", यह भी सर्वविदित है कि सिगरेट पीने से केंसर जैसी मृत्यु के कगार पर ले जाने वाली वीमारी हो जाती है,यही सबब होता है, गुटखे खाने वाले का उस गुटखे के पाउच पर भी हिंदी में लिखा होता है,"गुटखा खाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है",यही सन्देश अंग्रेजी में लिखा होता है,"chewing tobacco is injurious for health", परन्तु ना सिगरेट पीने वाला सिगरेट छोड़ पाता है,और ना गुटखा खाने वाला,यह तो सच है,अगर इच्छा शक्ति हो तो सब कुछ संभव हो जाता है,परन्तु सिगरेट और गुटखा खाने वाले में इच्छा शक्ति प्रबल हो तो वोह इन व्यसनों को छोड़ पाता है, अन्यथा नहीं |
अगर कोई सिगरेट ना पीने वाला या गुटखा ना खाने वाला, किसी सिगरेट पीने वाले और गुटखा खाने वाले से कोई यह प्रश्न करे कि सिगरेट क्यों पीते हो या गुटखा क्यों खाते हो, तो इन व्यसनों को करने वाला इसका कारण समझा ही नहीं पाता,ना तो यह व्यसन भूख को शांत करते हैं,ना प्यास को तो समझाए तो समझाए क्या? असल में इनमें पाया जाने वाला निकोटिन दिमाग में एसा प्रभाव डालता है,कि दिमाग को एक ख़ुशी होती है,दिमाग को उस प्रकार की ख़ुशी होती है,जैसे कोई पुरुस्कार मिल गया हो, और इसी कारण से मानसिक तनाव के कारण इंसान इन व्यसनों की संख्या बड़ा देता है |
में भी सिगरेट पीता था और गुटखा भी खाता था,गुटखा तो मैंने पहले छोड़ दिया था,संभवत: इस कारण कि यह व्यसन बहुत बाद में लगा था,पर सिगरेट चाहते हुए भी नहीं छोड़ पाया था,यह आदत तो बहुत पुरानी थी, इन्टरनेट पर ढूँढा तो एक साईट सिगरेट छुड़ाने वाला मिल गया था,उसमें बहुत प्रकार की चीजे बताई गयीं थीं, चेविगुम, निकोटिन पेच और भी बहुत कुछ और साथ में मनोवेगाय्निक के पास कोंसिलिंग के लिए बताया गया था, सब कुछ ढूँढा हमारे देश में चेविन्ग्म ही मिल पाई थी जिसका नाम निकोतेक्स है, ५० रुपए की दस चेविन्ग्म,और शुरू के कुछ हफ़्तों में जब भी सिगरेट की इच्छा हो तो वोह चेविन्गुम खाने का निर्देश,मतलब की पॉँच,छे चेविन्गुम और धीरे,धीरे चेविन्गुम की और सिगरेट की इच्छा भी कम होने लगेगी बताया हुआ था |
अब इतना महंगा इलाज जो कि साधारण इंसान के बस में नहीं, और भिन्न,भिन्न प्रकार की सरकार की और से सिगरेट,और गुटखे के पेकेट पर चेतावानिया, पड़ा लिखा इंसान तो जानता है,इस से केंसर हो सकता है,परन्तु सरकार अगर केंसर को रोकना चाहे तो इसका रोकथाम उस प्रकार क्यों नहीं जैसे पल्स पोलियो का बच्चों के लिए होता है, और तो और बीडी के पेकेट पर कोई चेतवानी नहीं होती, बीडी पीने वाले गरीब इंसान को अँधेरे में क्यों रखा हुआ है ?
अगर कोई सिगरेट ना पीने वाला या गुटखा ना खाने वाला, किसी सिगरेट पीने वाले और गुटखा खाने वाले से कोई यह प्रश्न करे कि सिगरेट क्यों पीते हो या गुटखा क्यों खाते हो, तो इन व्यसनों को करने वाला इसका कारण समझा ही नहीं पाता,ना तो यह व्यसन भूख को शांत करते हैं,ना प्यास को तो समझाए तो समझाए क्या? असल में इनमें पाया जाने वाला निकोटिन दिमाग में एसा प्रभाव डालता है,कि दिमाग को एक ख़ुशी होती है,दिमाग को उस प्रकार की ख़ुशी होती है,जैसे कोई पुरुस्कार मिल गया हो, और इसी कारण से मानसिक तनाव के कारण इंसान इन व्यसनों की संख्या बड़ा देता है |
में भी सिगरेट पीता था और गुटखा भी खाता था,गुटखा तो मैंने पहले छोड़ दिया था,संभवत: इस कारण कि यह व्यसन बहुत बाद में लगा था,पर सिगरेट चाहते हुए भी नहीं छोड़ पाया था,यह आदत तो बहुत पुरानी थी, इन्टरनेट पर ढूँढा तो एक साईट सिगरेट छुड़ाने वाला मिल गया था,उसमें बहुत प्रकार की चीजे बताई गयीं थीं, चेविगुम, निकोटिन पेच और भी बहुत कुछ और साथ में मनोवेगाय्निक के पास कोंसिलिंग के लिए बताया गया था, सब कुछ ढूँढा हमारे देश में चेविन्ग्म ही मिल पाई थी जिसका नाम निकोतेक्स है, ५० रुपए की दस चेविन्ग्म,और शुरू के कुछ हफ़्तों में जब भी सिगरेट की इच्छा हो तो वोह चेविन्गुम खाने का निर्देश,मतलब की पॉँच,छे चेविन्गुम और धीरे,धीरे चेविन्गुम की और सिगरेट की इच्छा भी कम होने लगेगी बताया हुआ था |
अब इतना महंगा इलाज जो कि साधारण इंसान के बस में नहीं, और भिन्न,भिन्न प्रकार की सरकार की और से सिगरेट,और गुटखे के पेकेट पर चेतावानिया, पड़ा लिखा इंसान तो जानता है,इस से केंसर हो सकता है,परन्तु सरकार अगर केंसर को रोकना चाहे तो इसका रोकथाम उस प्रकार क्यों नहीं जैसे पल्स पोलियो का बच्चों के लिए होता है, और तो और बीडी के पेकेट पर कोई चेतवानी नहीं होती, बीडी पीने वाले गरीब इंसान को अँधेरे में क्यों रखा हुआ है ?
शनिवार, दिसंबर 05, 2009
प्राचीन काल में प्यार की उत्पत्ति
आज कल प्यार का मतलब तो विकृत वासना से हो गया है, परन्तु सब से पहले प्यार का उदहारण हमारे ऋग्वेद में मिलता है, और उस समय के ऋषि मुनि यह मानते थे, पूरे विश्व को प्यार का सन्देश हमरे देश भारत से मिला था, हमरे ग्रंथो में प्यार के देवता कामदेव का काम का सन्देश पहूचाने के लिए बहुत सुन्दर उदहारण मिलता है, जब कामदेव को किसी के हिर्दय में प्यार जगाना होता है,तो वसंत ऋतू का आगमन हो जाता है,और चारो ओर सुरमय वातावरण हो जाता, सुन्दर,सुन्दर फूल खिल जाते हैं, ना ग्रीष्म ऋतू की गर्मी, ना शरद ऋतू की शीत, आम के पेड़ों पर लगे बोर, और कामदेव के हाथों में, धनुष जिससे फूलों वाला तीर सीधे प्रेमी और प्रेमिका के हिर्दय पर अघात करता है, और प्रेमी और प्रेमिका के मन में प्यार जागृत हो जाता है, यह भी वासना है,परन्तु विकृत ना होकर वासना का सुन्दर स्वरुप |
कामदेव का पहले शरीर होता था, परन्तु उन्के शरीर ना होने का कारण के पीछे एक कथा है, एक बार किसी राक्षस का वध करना था,जो कि केवल देवों के देव महादेव कर सकतें थे, लेकिन उस समय महादेव जी समाधि में बैठे थे, और राक्षस का वध करने के लिए उनकी समाधी का टूटना आवश्यक था, तो देवताओं ने कामदेव से प्रार्थना की आप भगवान् शिव की समाधी तोड़ें,तब कामदेव ने शिव भगवान् के मन में प्यार का अंकुर जगाने का प्र्यतन किया,और भगवान् शिव का तीसरा नेत्र खुल गया और कामदेव के शरीर का नाश हो गया,कामदेव की पत्नी रति रोती,बिलखती भगवान् शिव के पास गयीं तो महादेव जी ने कहा,कामदेव का शरीर तो नहीं मिल पायेगा परन्तु तुम दोनों मिल कर लोगों के हिर्दय को प्रेम से अंकुरित करोगे |
हमारे देश में खुजराहो और कोणार्क के मंदिरों को देखने के लिए दूर,दूर से लोग आते हैं, खजुराहो के मंदिरों में बहार की दीवारों पर काम कला को पर्दर्शित करने वाले भित्ति चित्र हैं, परन्तु मंदिरों के अन्दर कुछ नहीं,जिसका आशय है, भित्ति चित्र इंसान के अन्दर की बुराई को पर्दर्शित करते हैं,और जब इंसान मंदिर के अन्दर जाता है,तो उसकी बुराइयाँ बहार रह जातीं हैं|
इन खजुराहों के मंदिर का इतिहास यह है, उन दिनों चंदेल राजा का राज्य था, और उनकी प्रजा के लोग सन्यास ले रहे थे, तब राजा को लगा की जब सब लोग सन्यास ले लेंगे तो उसके राज्य का अस्तित्व तो कुछ नहीं रह जायेगा,तब उसने प्रजा को इन मंदिरों का निर्माण करके यह सन्देश दिया, सन्यास के अतिरिक्त भी बहुत कुछ है, और इस प्रकार इन मंदिरों का निर्माण हुआ
हमारे देश की ही देन है,वात्सायन का कामसूत्र परन्तु लोग भागते हैं, विदेशों के विकृत वासना के साहित्य और विकृत चलचित्रों के ओर |
आज कल तो लिव इन रिलेशन का स्वरुप देखने को मिल रहा है, परन्तु हमारे प्राचीन ग्रंथों में,शिव पारवती के प्रेम का बहुत ही सुंदर वर्णन मिलता है, यह तो सर्विदित है, माता पारवती ने भगवान् शिव को अपने पिता दक्ष के पूजा पर ना बुलाने पर हवन कुंड में अपने तन को स्वहा कर दिया,और महादेव जी माता पारवती का मृत शरीर लिए हुए सब ओर घूमते रहे, ऐसा था महादेव जी का और पारवती जी का प्रेम,और बाद में विष्णु भगवान् ने अपने सुदर्शन चक्र से पारवती के शरीर के ५१ टूकरे कर दिए,और जहाँ,जहाँ माता पारवती के शरीर के टूकरे गिरे वहाँ,वहाँ शक्ति पीठ बन गये |
कहा जाता है,विवाहित स्त्री पुरुष शिव पारवती का जोड़ा है, मत करो बदनाम इस माँ पारवती और शिव के जोड़े को |
कामदेव का पहले शरीर होता था, परन्तु उन्के शरीर ना होने का कारण के पीछे एक कथा है, एक बार किसी राक्षस का वध करना था,जो कि केवल देवों के देव महादेव कर सकतें थे, लेकिन उस समय महादेव जी समाधि में बैठे थे, और राक्षस का वध करने के लिए उनकी समाधी का टूटना आवश्यक था, तो देवताओं ने कामदेव से प्रार्थना की आप भगवान् शिव की समाधी तोड़ें,तब कामदेव ने शिव भगवान् के मन में प्यार का अंकुर जगाने का प्र्यतन किया,और भगवान् शिव का तीसरा नेत्र खुल गया और कामदेव के शरीर का नाश हो गया,कामदेव की पत्नी रति रोती,बिलखती भगवान् शिव के पास गयीं तो महादेव जी ने कहा,कामदेव का शरीर तो नहीं मिल पायेगा परन्तु तुम दोनों मिल कर लोगों के हिर्दय को प्रेम से अंकुरित करोगे |
हमारे देश में खुजराहो और कोणार्क के मंदिरों को देखने के लिए दूर,दूर से लोग आते हैं, खजुराहो के मंदिरों में बहार की दीवारों पर काम कला को पर्दर्शित करने वाले भित्ति चित्र हैं, परन्तु मंदिरों के अन्दर कुछ नहीं,जिसका आशय है, भित्ति चित्र इंसान के अन्दर की बुराई को पर्दर्शित करते हैं,और जब इंसान मंदिर के अन्दर जाता है,तो उसकी बुराइयाँ बहार रह जातीं हैं|
इन खजुराहों के मंदिर का इतिहास यह है, उन दिनों चंदेल राजा का राज्य था, और उनकी प्रजा के लोग सन्यास ले रहे थे, तब राजा को लगा की जब सब लोग सन्यास ले लेंगे तो उसके राज्य का अस्तित्व तो कुछ नहीं रह जायेगा,तब उसने प्रजा को इन मंदिरों का निर्माण करके यह सन्देश दिया, सन्यास के अतिरिक्त भी बहुत कुछ है, और इस प्रकार इन मंदिरों का निर्माण हुआ
हमारे देश की ही देन है,वात्सायन का कामसूत्र परन्तु लोग भागते हैं, विदेशों के विकृत वासना के साहित्य और विकृत चलचित्रों के ओर |
आज कल तो लिव इन रिलेशन का स्वरुप देखने को मिल रहा है, परन्तु हमारे प्राचीन ग्रंथों में,शिव पारवती के प्रेम का बहुत ही सुंदर वर्णन मिलता है, यह तो सर्विदित है, माता पारवती ने भगवान् शिव को अपने पिता दक्ष के पूजा पर ना बुलाने पर हवन कुंड में अपने तन को स्वहा कर दिया,और महादेव जी माता पारवती का मृत शरीर लिए हुए सब ओर घूमते रहे, ऐसा था महादेव जी का और पारवती जी का प्रेम,और बाद में विष्णु भगवान् ने अपने सुदर्शन चक्र से पारवती के शरीर के ५१ टूकरे कर दिए,और जहाँ,जहाँ माता पारवती के शरीर के टूकरे गिरे वहाँ,वहाँ शक्ति पीठ बन गये |
कहा जाता है,विवाहित स्त्री पुरुष शिव पारवती का जोड़ा है, मत करो बदनाम इस माँ पारवती और शिव के जोड़े को |
शुक्रवार, दिसंबर 04, 2009
सहानभूति पर्दर्शित करने से उत्तम है,अनुभूति करना
बहुत दिनों से मन में विचार आ रहा था,सहानुभूति पर्दर्शित करने से उत्तम है के बारे में लिखूं ,अनुभूति करना,सहानभूति के शब्द तो इंसान के मन को रहत देता है,और अनुभूति तो मानव को अपना बना लेती है, सहानभूति तो कुछ समय के लिए राहत देती है,और अनुभूति तो सदा के लिए अपना बना लेती है, सहानुभूति का तो अर्थ है,किसी बेबस को देखकर चंद शब्द कह देना या उस बेबस की कुछ सहायता कर देना,परन्तु अनुभूति करना का अर्थ है,किसी बेबस की परिसिथित्यों को,उसी बेवस के अनुसार महसूस करना और फिर उसी की सहायता करने के लिए उसी के अनुरूप क्रिया कलाप करना,यह चीज किसी विवश को एक बहुत ही सुखद एहसास कराती है |
अनुभूति करना तो एक कला है,इसमें अपने स्वाभाव,और परिस्थितयों को गौण रख कर किसी दूसरे के व्यक्तिव और परिस्थितयों के अनुसार अपने को ढालना पड़ता है, इसमें सुनने की कला आवश्यक रूप से आनी चाहिए, और उसके साथ,साथ मनन करना भी अति आवश्यक है, वाद विवाद का तो विल्कुल ही स्थान नहीं है, किसी का दुःख,सुख के अनुभव उसके अनुसार करना तो अति कठिन काम है,अगर दूसरे इंसान की बात गलत लगती हो,तो अपना आचरण इस प्रकार से बनाना पड़ता है,की उसका अंत:कारण बदल जाये, यह प्रभाव ऐसा होना चाहिए,आप उसके रोल माडल बन जाएँ |
इसीलिए मनोचिक्त्सक किसी मानसिक रोगी की चिकत्सा के लिए,उसके परिवार के सदस्यों को बुला कर,उनसे बात करके उनको परामर्श देते हैं,कि उक्त रोगी के साथ कैसा व्यव्हार किया जाये |
अनुभूति करना तो एक कला है,इसमें अपने स्वाभाव,और परिस्थितयों को गौण रख कर किसी दूसरे के व्यक्तिव और परिस्थितयों के अनुसार अपने को ढालना पड़ता है, इसमें सुनने की कला आवश्यक रूप से आनी चाहिए, और उसके साथ,साथ मनन करना भी अति आवश्यक है, वाद विवाद का तो विल्कुल ही स्थान नहीं है, किसी का दुःख,सुख के अनुभव उसके अनुसार करना तो अति कठिन काम है,अगर दूसरे इंसान की बात गलत लगती हो,तो अपना आचरण इस प्रकार से बनाना पड़ता है,की उसका अंत:कारण बदल जाये, यह प्रभाव ऐसा होना चाहिए,आप उसके रोल माडल बन जाएँ |
इसीलिए मनोचिक्त्सक किसी मानसिक रोगी की चिकत्सा के लिए,उसके परिवार के सदस्यों को बुला कर,उनसे बात करके उनको परामर्श देते हैं,कि उक्त रोगी के साथ कैसा व्यव्हार किया जाये |
ऐसे हुआ माता रानी का चमत्कार |
अक्सर दूरदर्शन पर श्रीडी के साईं बाबा के चमत्कार देखता हूँ, और इन दिनों में,मुझे अपने छोटे भाई के साथ हुआ माता रानी का चमत्कार याद आ गया, बहुत पुरानी बात है, मेरे पिता जी की पोस्टिंग उन दिनों मेरठ में थी,और हम दोनों भाई छोटे,छोटे थे,उस समय हम दोनों की आयु क्या होगी ठीक से याद नहीं, मेरा भाई मेरे से २ साल ८ माह छोटा है , में आठवीं कक्षा में और मेरा छोटा भाई छटी कक्षा में पड़ता था |
वोह दिन दिवाली से एक दिन पहले था, और मेरा भाई धागे में बांध के एक कंकर घुमा रहा था (जिसको लंगर बोला जाता है),वोह कंकर का टूकरा उसकी बायीं आँख में लग गया,और उसकी आँख सूज गयी थी, उस समय मेरठ में आँखों के विघयात डाक्टर वीर चन्द्र हुआ करते थे,मेरी माँ और पिता जी उसको उस डाक्टर के पास ले गए, उन आँखों के डाक्टर ने बताया की आंख की पुतली(कोर्निया) में,आंख का मांस फस गया है,इस बच्चे को सीतापुर ले जाओ,और उन्होंने आँख में,आंख की दवाई अतरोपीन डाल दी,जिससे आंख की पुतली फेल जाये और कहा इसको मेरे पास कल सुबह लाना, अगले दिन मेरे भाई को उन्ही डाक्टर के पास ले कर गए, तो आँख में कोई लाभ नहीं हुआ, आंख की पुतली में उसी प्रकार से आंख का मांस फसा हुआ था, अतरोपीन दवाई की बूंदे आंख में डालने के २४ घंटे के बाद पुतली फेल जाती है,और आंख की पुतली में फसी हुई वस्तु निकल जाती है,परन्तु मेरे भाई की आंख की पुतली में से आंख का फसा हुआ मांस नहीं निकला |
उन दिनों मेरे पिता जी के पास उन्ही के महकमे में काम करने वाले,माता के भक्त दुर्गसिंह आया करते थे, वोह मुझे गणित की टूशन भी पडाते थे, वोह उस दिवाली के एक दिन पहले भीसुबह आये थे, और जब उनको मेरे छोटे भाई की आंख के बारे में पता चला तो वोह बोले में रात को आता हूँ,और वोह रात में आये और उन्होंने रात भर माँ दुर्गा का हवन किया,और अगले दिन की सुबह,मेरे माँ,पिता जी,और दुर्गासिंह मेरे भाई को लेकर उन्ही आँखों के डाक्टर वीरचन्द्र के पास लेकर गये, उन डाक्टर सहाब ने मेरे भाई की चोट लगी आंख को चेक किया,और वोह हैरान रह गये कि यह आंख की पुतली में से आंख का मांस निकल गया,यह तो चमत्कार है, मेरे माँ,पिता जी ने कहा यह इन दुर्गासिंह के कारण हुआ है,तब डाक्टर साहब ने कहा इस आदमी को पहले क्यों नहीं बुलाया था, दुर्गासिंह जी ने हवन के समय एक मिटटी की माँ दुर्गा की परतिमा बनाई थी, और पूजा के बाद उस परतिमा को वोह ले जाना भूल गये थे,जब भी हम लोग उस कमरे में जाते थे,तो हम लोगों को एक करंट सा लगता था,तब वोह बोले में इस परतिमा को ले जाना तो भूल गया,और उन्होंने वोह परतिमा अपनी जेब में रख ली, और हम लोगों को करेंट लगना समाप्त हो गया था, यह घटना मुझे याद आ गयी जो की हमारे साथ घटित हो चुकी है, इसलिए लिख दी |
आप माने या ना माने
वोह दिन दिवाली से एक दिन पहले था, और मेरा भाई धागे में बांध के एक कंकर घुमा रहा था (जिसको लंगर बोला जाता है),वोह कंकर का टूकरा उसकी बायीं आँख में लग गया,और उसकी आँख सूज गयी थी, उस समय मेरठ में आँखों के विघयात डाक्टर वीर चन्द्र हुआ करते थे,मेरी माँ और पिता जी उसको उस डाक्टर के पास ले गए, उन आँखों के डाक्टर ने बताया की आंख की पुतली(कोर्निया) में,आंख का मांस फस गया है,इस बच्चे को सीतापुर ले जाओ,और उन्होंने आँख में,आंख की दवाई अतरोपीन डाल दी,जिससे आंख की पुतली फेल जाये और कहा इसको मेरे पास कल सुबह लाना, अगले दिन मेरे भाई को उन्ही डाक्टर के पास ले कर गए, तो आँख में कोई लाभ नहीं हुआ, आंख की पुतली में उसी प्रकार से आंख का मांस फसा हुआ था, अतरोपीन दवाई की बूंदे आंख में डालने के २४ घंटे के बाद पुतली फेल जाती है,और आंख की पुतली में फसी हुई वस्तु निकल जाती है,परन्तु मेरे भाई की आंख की पुतली में से आंख का फसा हुआ मांस नहीं निकला |
उन दिनों मेरे पिता जी के पास उन्ही के महकमे में काम करने वाले,माता के भक्त दुर्गसिंह आया करते थे, वोह मुझे गणित की टूशन भी पडाते थे, वोह उस दिवाली के एक दिन पहले भीसुबह आये थे, और जब उनको मेरे छोटे भाई की आंख के बारे में पता चला तो वोह बोले में रात को आता हूँ,और वोह रात में आये और उन्होंने रात भर माँ दुर्गा का हवन किया,और अगले दिन की सुबह,मेरे माँ,पिता जी,और दुर्गासिंह मेरे भाई को लेकर उन्ही आँखों के डाक्टर वीरचन्द्र के पास लेकर गये, उन डाक्टर सहाब ने मेरे भाई की चोट लगी आंख को चेक किया,और वोह हैरान रह गये कि यह आंख की पुतली में से आंख का मांस निकल गया,यह तो चमत्कार है, मेरे माँ,पिता जी ने कहा यह इन दुर्गासिंह के कारण हुआ है,तब डाक्टर साहब ने कहा इस आदमी को पहले क्यों नहीं बुलाया था, दुर्गासिंह जी ने हवन के समय एक मिटटी की माँ दुर्गा की परतिमा बनाई थी, और पूजा के बाद उस परतिमा को वोह ले जाना भूल गये थे,जब भी हम लोग उस कमरे में जाते थे,तो हम लोगों को एक करंट सा लगता था,तब वोह बोले में इस परतिमा को ले जाना तो भूल गया,और उन्होंने वोह परतिमा अपनी जेब में रख ली, और हम लोगों को करेंट लगना समाप्त हो गया था, यह घटना मुझे याद आ गयी जो की हमारे साथ घटित हो चुकी है, इसलिए लिख दी |
आप माने या ना माने
मंगलवार, दिसंबर 01, 2009
हमारे घर में ही हो विवाद तो कैसे लहरायेगे अपनी संस्कृति का परचम |
यह लेख में प्रारंभ कर रहा हूँ, अत्यधिक विघयात चलचित्र स्लम डोग मिल्लिओनोरे से, हमरे मुंबई शहर की झुग्गी झोपड़ी की गरीबी पर विदेशी चलचित्र बना देते हैं,और इस चलचित्र को अनेकों सम्मानित ओस्कार इनाम मिल जाते हैं, हाँ यह तो सच इस फ़िल्म के कलाकार रुबीना और अझर भी विश्विघ्यात हो जाते हैं, इससे क्या विश्व को सन्देश मिला कि, हमारे देश में गरीबी है |
लेकिन आज के युग में,मुझे कोई ऐसी फ़िल्म नहीं याद आती,जिसमें हमारे देश कि संस्कृति का विश्व में प्रचार हुआ हो, केवल एक ही फ़िल्म याद आती है, रिचर्ड अटएनबरो द्वारा निर्देशित,और बेन किंग्सले द्वारा अभिनीत गाँधी,हाँ उस चलचित्र में गाँधी जी के आदर्शो के बारे में बताया था,लेकिन यह बहुत पुरानी बात हो गयी है, नयी पीड़ी का आगमन होता रहता है,उन लोगों को अपनी पुरानी संस्कृति का आभास नहीं हो पाता,और पुरानी पीड़ी के भी मानसपटल पर छबी धूमिल होती जाती है |
आज कल तमाम समाचार पत्रों में, सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेताओं में,आरोप,आक्षेप और पर्तिअक्षेप का ही सिलसिला चलता रहता है, सत्ता पक्ष और विपक्ष कभी भी एकमत होते नहीं देखे जाते, और हमारे इन समाचार पत्रों को हमारे देश में आने वाले विदेशी भी पड़ते हैं, और इसका उन पर क्या प्रभाव पड़ता होगा,कोई भी सोच सकता है, हमारे यहाँ के सद्भाव को तो यह गोण ही कर देता है |
हमारे देश के महान ग्रन्थ हैं,रामायण और गीता,और जिनको विदेशों में मिथ कहा जाता है,और इस देश में भी विवाद हो जाता है, इनके चरित्र मिथक अर्थात कोरी परिकल्पना है, और यह ग्रन्थ मिथ हैं,मतलब की कोरी गप्प, तो हम इसके वारे में विश्व को कैसे बताएँगे? रामायण में मर्यादा पुरषोत्तम राम का चरित्र है, अगर हमारे देश में इस ग्रन्थ पर विवाद होगा तो हम उसके आदर्शो को कैसे विश्व को बताएँगे?
गीता में कृष्ण भगवान् द्वारा अर्जुन को दिया हुआ गीता का ज्ञान है, जब कौरवों और पांडवों की सेना आमने सामने हो गयी,और अर्जुन अपने गुरुओं,चचरे भाईओं को देख कर अपना गांडीव उठा कर रख दिया,तब श्री कृष्ण भगवान् पार्थ के रथ को रणभूमि में दोनों सेनाओं के मध्य में ले गए तब उन्होंने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया था, श्री कृष्ण भगवान् ने कहा,जो में तुमको यह ज्ञान दे रहा हूँ,वोह मैंने तुमसे पहले सूर्य को दिया था, अर्जुन ने कहा आप से तो सूर्य तो बहुत पहले आ गए थे,तब कृष्ण भगवान् ने कहा "है पार्थ में और तुम हर जन्म में थे,मुझे सब कुछ याद है,पर तुम्हे नहीं", यह श्री कृष्ण का उपदेश पुर्ब्जन्म को प्रमणित करता है, और कृष्ण भगवान् ने यह भी कहा कि, "आत्मा अजर अमर है, शरीर का नाश होता है,और जिस प्रकार से मन्युष नए वस्त्र धारण करता है,इसी प्रकार आत्मा नया शरीर धारण करती है",यह दोनों बातें भी विवादित है, संभवत: इसी लिए इन ग्रंथो को मिथ और इन चरित्रों को मिथ्या कहा जाता हो,लकिन रामायण के राम के चरित्र और गीता के ज्ञान का प्रचार क्यों नहीं होता?
यह तो सही है,रामायण और महाभारत पर सीरियल तो बने,पर यह सीमित तो हमारे देश तक ही थे,परन्तु इन ग्रंथो के आदर्शों पर कोई की फ़िल्म नहीं, बनी,इन ग्रंथों के आदर्शों पर चलचित्र बनना चाहिए,और इनका प्रचार भी स्लम डोग मिल्लोनोर की तरह होना चाहिए |
लेकिन आज के युग में,मुझे कोई ऐसी फ़िल्म नहीं याद आती,जिसमें हमारे देश कि संस्कृति का विश्व में प्रचार हुआ हो, केवल एक ही फ़िल्म याद आती है, रिचर्ड अटएनबरो द्वारा निर्देशित,और बेन किंग्सले द्वारा अभिनीत गाँधी,हाँ उस चलचित्र में गाँधी जी के आदर्शो के बारे में बताया था,लेकिन यह बहुत पुरानी बात हो गयी है, नयी पीड़ी का आगमन होता रहता है,उन लोगों को अपनी पुरानी संस्कृति का आभास नहीं हो पाता,और पुरानी पीड़ी के भी मानसपटल पर छबी धूमिल होती जाती है |
आज कल तमाम समाचार पत्रों में, सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेताओं में,आरोप,आक्षेप और पर्तिअक्षेप का ही सिलसिला चलता रहता है, सत्ता पक्ष और विपक्ष कभी भी एकमत होते नहीं देखे जाते, और हमारे इन समाचार पत्रों को हमारे देश में आने वाले विदेशी भी पड़ते हैं, और इसका उन पर क्या प्रभाव पड़ता होगा,कोई भी सोच सकता है, हमारे यहाँ के सद्भाव को तो यह गोण ही कर देता है |
हमारे देश के महान ग्रन्थ हैं,रामायण और गीता,और जिनको विदेशों में मिथ कहा जाता है,और इस देश में भी विवाद हो जाता है, इनके चरित्र मिथक अर्थात कोरी परिकल्पना है, और यह ग्रन्थ मिथ हैं,मतलब की कोरी गप्प, तो हम इसके वारे में विश्व को कैसे बताएँगे? रामायण में मर्यादा पुरषोत्तम राम का चरित्र है, अगर हमारे देश में इस ग्रन्थ पर विवाद होगा तो हम उसके आदर्शो को कैसे विश्व को बताएँगे?
गीता में कृष्ण भगवान् द्वारा अर्जुन को दिया हुआ गीता का ज्ञान है, जब कौरवों और पांडवों की सेना आमने सामने हो गयी,और अर्जुन अपने गुरुओं,चचरे भाईओं को देख कर अपना गांडीव उठा कर रख दिया,तब श्री कृष्ण भगवान् पार्थ के रथ को रणभूमि में दोनों सेनाओं के मध्य में ले गए तब उन्होंने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया था, श्री कृष्ण भगवान् ने कहा,जो में तुमको यह ज्ञान दे रहा हूँ,वोह मैंने तुमसे पहले सूर्य को दिया था, अर्जुन ने कहा आप से तो सूर्य तो बहुत पहले आ गए थे,तब कृष्ण भगवान् ने कहा "है पार्थ में और तुम हर जन्म में थे,मुझे सब कुछ याद है,पर तुम्हे नहीं", यह श्री कृष्ण का उपदेश पुर्ब्जन्म को प्रमणित करता है, और कृष्ण भगवान् ने यह भी कहा कि, "आत्मा अजर अमर है, शरीर का नाश होता है,और जिस प्रकार से मन्युष नए वस्त्र धारण करता है,इसी प्रकार आत्मा नया शरीर धारण करती है",यह दोनों बातें भी विवादित है, संभवत: इसी लिए इन ग्रंथो को मिथ और इन चरित्रों को मिथ्या कहा जाता हो,लकिन रामायण के राम के चरित्र और गीता के ज्ञान का प्रचार क्यों नहीं होता?
यह तो सही है,रामायण और महाभारत पर सीरियल तो बने,पर यह सीमित तो हमारे देश तक ही थे,परन्तु इन ग्रंथो के आदर्शों पर कोई की फ़िल्म नहीं, बनी,इन ग्रंथों के आदर्शों पर चलचित्र बनना चाहिए,और इनका प्रचार भी स्लम डोग मिल्लोनोर की तरह होना चाहिए |
रविवार, नवंबर 29, 2009
मेरी पत्नी को ऐसा कमर में दर्द हुआ जो मुझे समझ में ही नहीं आया |
हमारी श्रीमती जी को गृहकार्य के अतिरिक्त,घर के रख रखाव में भी दिलचस्पी है, वैसे तो गृहकार्य तो अधिकतर हमारी काम वाली करती है, परन्तु हर रविवार को बिस्तरों की चादरें बदलना तो उनका नियमित कार्य है, मेरे और अपने मोबइलों को चार्जर पर लगाना उनका नित्यक्रम है, और इसके अतिरिक्त इन्वेर्टर की बेटरी में,रविवार को आवश्यकता अनुसार पानी डालना भी उन्होंने अपने जिम्मे ले रखा है |
बात गत रविवार की है,उस दिन वोह इन्वेर्टर की बेटरी में पानी डाल रही थी,और में नहा रहा था,सिर पर अभी साबुन ही लगाया था, तो उनकी आवाज आई सुनो,सुनो मेरे को पुकारने के लिए इसी संबोधन का प्रयोग करती हैं, में कमर पर टावल बांध कर सिर पर लगा साबुन लेकर,बाथरूम से बहार निकला तो देखा वोह कुर्सी का सहारा लेकर खड़ी हुईं थीं, मेरे पूछने पर उन्होंने कहा इन्वेर्टर की बेटरी में पानी डालने के लिए झुकी तो झुकी की झुकी रह गयीं, और अब ना बैठा जा रहा और ना ही लेटा जा रहा, मुझे तो समझ में ही नहीं आया यह क्या हुआ ?
रविवार को अपने फॅमिली डाक्टर से फ़ोन पर पूछा यह क्या हुआ,उन्होंने बताया की मसल खीच गयी है,और कुछ दवाइयां बतायीं जो में उस रविवार को ले आया था|
दो दिन पहले वोही डाक्टर आये थे,और हमारी श्रीमती जी को सुखी रोटी और उबली सब्जी खाने की हिदयात दे गए थे, और कमर पर बाँधने के लिए एक बेल्ट दे गये थे,अब एक सप्ताह के बाद मेरी श्रीमती जी को आराम है,लेकिन यह चीज मेरे लिए तो बिलकुल अप्रताय्षित थी |
इसका मुझे लाभ यह हुआ, अधिकतर समय घर में उनके पास रह कर शनिवार और रव्विवार को तीन पोस्ट लिख दीं,और समयावकाश ना होने के कारण ब्लोगवाणी के क्रमांक एक की भी सारी पोस्ट नहीं पड़ पाता था,वोह सब तो पड़ ही लीं,शेष नए ब्लोग्गोरों को भी पड़ लिया,और ब्लोगवाणी के ब्लोगों तथा नए ब्लोग्गोरों को टिप्पणी भी दे दी |
अ़ब अगले शनिवार या रविवार तक के लिए अलविदा
बात गत रविवार की है,उस दिन वोह इन्वेर्टर की बेटरी में पानी डाल रही थी,और में नहा रहा था,सिर पर अभी साबुन ही लगाया था, तो उनकी आवाज आई सुनो,सुनो मेरे को पुकारने के लिए इसी संबोधन का प्रयोग करती हैं, में कमर पर टावल बांध कर सिर पर लगा साबुन लेकर,बाथरूम से बहार निकला तो देखा वोह कुर्सी का सहारा लेकर खड़ी हुईं थीं, मेरे पूछने पर उन्होंने कहा इन्वेर्टर की बेटरी में पानी डालने के लिए झुकी तो झुकी की झुकी रह गयीं, और अब ना बैठा जा रहा और ना ही लेटा जा रहा, मुझे तो समझ में ही नहीं आया यह क्या हुआ ?
रविवार को अपने फॅमिली डाक्टर से फ़ोन पर पूछा यह क्या हुआ,उन्होंने बताया की मसल खीच गयी है,और कुछ दवाइयां बतायीं जो में उस रविवार को ले आया था|
दो दिन पहले वोही डाक्टर आये थे,और हमारी श्रीमती जी को सुखी रोटी और उबली सब्जी खाने की हिदयात दे गए थे, और कमर पर बाँधने के लिए एक बेल्ट दे गये थे,अब एक सप्ताह के बाद मेरी श्रीमती जी को आराम है,लेकिन यह चीज मेरे लिए तो बिलकुल अप्रताय्षित थी |
इसका मुझे लाभ यह हुआ, अधिकतर समय घर में उनके पास रह कर शनिवार और रव्विवार को तीन पोस्ट लिख दीं,और समयावकाश ना होने के कारण ब्लोगवाणी के क्रमांक एक की भी सारी पोस्ट नहीं पड़ पाता था,वोह सब तो पड़ ही लीं,शेष नए ब्लोग्गोरों को भी पड़ लिया,और ब्लोगवाणी के ब्लोगों तथा नए ब्लोग्गोरों को टिप्पणी भी दे दी |
अ़ब अगले शनिवार या रविवार तक के लिए अलविदा
शनिवार, नवंबर 28, 2009
चिकत्सा शास्त्र का नया शोध का विषय (अंग प्रत्यारोपण करवाने वाले का स्वाभाव अंग देने वाले के स्वाभाव की तरह हो जाता है)
यह तो सर्वविदित है की मानव स्वाभाव सामाजिक परिवेश,उसका लालन पालन,बदलती परिस्थितिओं के अनुसार होता है, यह भी कहा जाता है कि उसकी जन्म के समय की गृह स्थितिओं के कारण उसका स्वाभाव निर्मित होता है, यह गृह स्थिति की बात तो उन लोगों के लिए कह रहा हूँ,जो इसको मानते हैं, में अपनी ओर से इस विषय पर कुछ नहीं कह रहा हूँ, अभी में इस विषय का प्रमाण देने में अक्षम हूँ,क्योंकि मेरे स्मृति पटल से इस विषय का प्रमाण उतर गया है, लेकिन बहुधा सोचता हूँ,कि प्रमणित और स्थापित प्रमाण को भी लोग नकार देते हैं,तो प्रमाण देने की अधिक आवश्यकता भी नहीं हैं, अब आता हूँ मूल विषय पर प्राय: देखा गया है, कि अंग प्रत्यारोपित करवाने वाले का स्वाभाव में इस प्रकार से परिवर्तन हो जाता है उसका स्वाभाव , अंग प्रत्यारोपित का स्वाभाव अंग देने वाले जैसा हो जाता है, मान लीजिये अगर अंग प्रत्यारोपित करवाने वाला शांत प्रक्रति को हो,और अंग देने वाले का स्वाभाव झग्रालू हो तो,अंग प्रत्यारोपित करवाने वाले का स्वाभाव भी झग्रालू हो जाता है |
यह तो सर्वविदित है कि मानव के अंगों में नाड़ियों का जाल है,और इन नाड़ियों का संबध मस्तिष्क से है, यह नाड़ीयाँ ही बहारी संदेशो को मस्तिष्क को पहुंचती हैं,और इन्ही नाड़ियों के द्वारा मस्तिष्क अपना सन्देश अंगों को देता है,और हमारे अंगों का एछीक या अनेछिक रिफ्लेक्स इन्ही संदेशों के अनुसार होता है, और बिलकुल जाहिर सी बात है,इन नाड़ियों का जाल मानव अंगों में भी होता है, कहने का अर्थ है, इन नाड़ियों के कारण से मस्तिष्क के अतिरिक्त यह अंग भी मानव स्वाभाव को संचित कर लेते हैं,जिसको चिकत्सा विज्ञान के अनुसार सेल्लुलोर कहतें हैं, इसी कारण जब कोई किसी का अंग प्रत्यारोपित करवाता है,तो अंग देने वाले की अंगों की नाडिया अंग प्रत्यारोपित करवाने वाले के साथ जुड़ जाती है,चूंकि अंग दान देने वाले के अंग में उसका स्वाभाव संचित होता है,इस कारण अंग प्रत्यारोपित करवाने वाले का स्वाभाव अंग दान देने वाले जैसा हो जाता है,अभी तक यह पूर्ण प्रमाणित नहीं हुआ है, परन्तु इस विषय पर शोध चल रहा है,और मैंने यह भी पड़ा था स्वाभाव मस्तिष्क में जुड़ने वाली दो नाड़ियों के गेप के अनुरूप होता है,अभी बस इतना ही जब यह शोध प्रमाणित हो जायेगा तो हो सकता है,मुझे इसका साक्ष्य उपलब्ध हो जायेगा,और उस साक्ष्य के बारे में भी बता दूंगा |
चिकत्सा शास्त्र का नया शोध
यह तो सर्वविदित है कि मानव के अंगों में नाड़ियों का जाल है,और इन नाड़ियों का संबध मस्तिष्क से है, यह नाड़ीयाँ ही बहारी संदेशो को मस्तिष्क को पहुंचती हैं,और इन्ही नाड़ियों के द्वारा मस्तिष्क अपना सन्देश अंगों को देता है,और हमारे अंगों का एछीक या अनेछिक रिफ्लेक्स इन्ही संदेशों के अनुसार होता है, और बिलकुल जाहिर सी बात है,इन नाड़ियों का जाल मानव अंगों में भी होता है, कहने का अर्थ है, इन नाड़ियों के कारण से मस्तिष्क के अतिरिक्त यह अंग भी मानव स्वाभाव को संचित कर लेते हैं,जिसको चिकत्सा विज्ञान के अनुसार सेल्लुलोर कहतें हैं, इसी कारण जब कोई किसी का अंग प्रत्यारोपित करवाता है,तो अंग देने वाले की अंगों की नाडिया अंग प्रत्यारोपित करवाने वाले के साथ जुड़ जाती है,चूंकि अंग दान देने वाले के अंग में उसका स्वाभाव संचित होता है,इस कारण अंग प्रत्यारोपित करवाने वाले का स्वाभाव अंग दान देने वाले जैसा हो जाता है,अभी तक यह पूर्ण प्रमाणित नहीं हुआ है, परन्तु इस विषय पर शोध चल रहा है,और मैंने यह भी पड़ा था स्वाभाव मस्तिष्क में जुड़ने वाली दो नाड़ियों के गेप के अनुरूप होता है,अभी बस इतना ही जब यह शोध प्रमाणित हो जायेगा तो हो सकता है,मुझे इसका साक्ष्य उपलब्ध हो जायेगा,और उस साक्ष्य के बारे में भी बता दूंगा |
चिकत्सा शास्त्र का नया शोध
मिर्गी के दोरे पर चंद्रमा की कलाओं प्रभाव होता है(नया शोध)
यह तो सर्वविदित है कि, पूर्ण चंद्रमा के कारण अर्थार्त पूर्णमासी को बहुत बार सागर की लहरों में एक उफान आता है,जिसके कारण सागर की लहरें कई,कई मीटर ऊपर की ओर जातीं हैं, जिसको ज्वार कहतें हैं, इसका वैज्ञानिक कारण है कि इस समय चंद्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति बड़ जाती है,और यह गुरुत्वाकर्षण शक्ति समुन्दर की लहरों को अपनी और आकर्षित करती है,और इसी कारण सागर में ज्वार आता है, और एक विषय यह भी रहा है कि चंद्रमा की कलाओं का प्रभाव मानसिक रोगियों के उन्माद पर पड़ता है |
यूनिवरसिटी कालेज ऑफ़ लन्दन ने एक हाल ही में एक शोध किया है कि मिर्गी के दोरे अँधेरी रात में सर्वाधिक होता है, इसका आकलन मेलोटिन हारमोन का शरीर में स्राव होने के कारण किया जा रहा है, इस मिलोटिन हारमोन का स्राव अँधेरी रात में सरवाअधिक होता है, इसके लिए मिर्गी के दोरे के रोगियों पर चंद्रमा की किरणों का प्रभाव चोबीस घंटे के लिए देखा गया,और इस मनोवेगाय्निक परिक्षण में यह देखा गया कि, अँधेरी रात में मिर्गी के दोरे सबसे अधिक होतें हैं |
मेरे एक मानसिक चिकत्सक मित्र मिर्गी के रोगियों और उनके परिजनों को यह सलाह देते थे, कि मिर्गी के रोगी वेल्डिंग के प्रकाश की ओर ना देखें, टुयूब के प्रकाश की ओर सीधी दृष्टि से ना देखें, या और किसी भी प्रकार के तेज कृत्रिम प्रकाश की और सीधी दृष्टि से ना देखें,उस समय तो मुझे यह समझ में नहीं आता था, ऐसा यह मानसिक चिकत्सक क्यों कहते थे, और ना ही मैंने उनसे इस विषय पर पूछा कभी, संभवत: उक्त कारण होगा कि मिर्गी के दोरे वाले रोगी पर इसका प्रभाव पड़ता होगा |
यह आजकल का नया मनोवेगाय्निक शोध है |
यूनिवरसिटी कालेज ऑफ़ लन्दन ने एक हाल ही में एक शोध किया है कि मिर्गी के दोरे अँधेरी रात में सर्वाधिक होता है, इसका आकलन मेलोटिन हारमोन का शरीर में स्राव होने के कारण किया जा रहा है, इस मिलोटिन हारमोन का स्राव अँधेरी रात में सरवाअधिक होता है, इसके लिए मिर्गी के दोरे के रोगियों पर चंद्रमा की किरणों का प्रभाव चोबीस घंटे के लिए देखा गया,और इस मनोवेगाय्निक परिक्षण में यह देखा गया कि, अँधेरी रात में मिर्गी के दोरे सबसे अधिक होतें हैं |
मेरे एक मानसिक चिकत्सक मित्र मिर्गी के रोगियों और उनके परिजनों को यह सलाह देते थे, कि मिर्गी के रोगी वेल्डिंग के प्रकाश की ओर ना देखें, टुयूब के प्रकाश की ओर सीधी दृष्टि से ना देखें, या और किसी भी प्रकार के तेज कृत्रिम प्रकाश की और सीधी दृष्टि से ना देखें,उस समय तो मुझे यह समझ में नहीं आता था, ऐसा यह मानसिक चिकत्सक क्यों कहते थे, और ना ही मैंने उनसे इस विषय पर पूछा कभी, संभवत: उक्त कारण होगा कि मिर्गी के दोरे वाले रोगी पर इसका प्रभाव पड़ता होगा |
यह आजकल का नया मनोवेगाय्निक शोध है |
रविवार, नवंबर 22, 2009
मुझे राय चाहिए?
में यह छोटा सा लेख,बिना किसी उदहारण,बिना किसी घटना का वर्णन,ना कोई पड़ी,सुनी और देखी घटना के वर्णन के यह लेख लिख रहा हूँ,इसको आप लोग माईकरो ब्लॉग्गिंग,और ब्लॉग्गिंग के बीच की ब्लॉग्गिंग कह सकतें हैं, बहुत से लोग, या कुछ लोग किसी एसी बात जिसमें ना किसी की बुराई हो, ना किसी पर कोई कटाक्ष हो ना,किसी पर व्यंग्य हो, और ना ही अपनी बात मनवाने का आग्रह हो,उसको सुन के पड़ के,व्यंग क्यों करते हैं, और ना ही मानना चाहते हैं, और हो सकता है देख कर भी कह दें,दृष्टि भ्रम हो ?
ऐसे लोगों का क्या कह सकते हैं,सजग,सजग भी इसलिए लिख रहा हूँ,कोई पाठक बुरा ना माने,बस मुझे प्रकार के लोगों को क्या कह सकतें है,इस बारे में आपकी राय चाहिए
धन्यवाद्
ऐसे लोगों का क्या कह सकते हैं,सजग,सजग भी इसलिए लिख रहा हूँ,कोई पाठक बुरा ना माने,बस मुझे प्रकार के लोगों को क्या कह सकतें है,इस बारे में आपकी राय चाहिए
धन्यवाद्
शनिवार, नवंबर 21, 2009
मांगे मनवाने के लिए यह कैसा आक्रोश है?
याद आता है,सन १९८४ जब हमारी पुर्ब प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी को उनके ही गार्डो ने उनको गोलियों से भून डाला, और उनकी इतालवी बहु सोनिया गाँधी उनका लहूलुहान पार्थिव शरीर लेकर आल इंडिया मेडिकल इंस्टिट्यूट लेकर पहुंची, उनके इस संसार में ना रहने का समाचार जंगल की आग की तरह सारे देश में फेल गया, और उस समय कैसा भिवत्स दृश्य पैदा हुआ, एक संप्रदाय विशेष की सम्पति की लूट,आगजनी, और इसी विशेष संप्रदाय के लोगों को आग के भेट करना,केवल इसलिए कि जिन लोगों ने श्रीमती इन्द्रा गाँधी ने गोलियों से भूना यह संप्रदाय उस सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखता था, जिनकी संपत्ति लूटी गयी, जिनको आग लगा के स्वाहा किया गया था, इस देश की भोली जनता तो आसामाजिक तत्वों के कारण क्यों बहक जाती है,संभवत शिक्षा के अवाभ्व के कारण और होता है नुक्सान जान माल का|
यह तो बात थी सन १९८४ की जब श्रीमती इन्द्रा गाँधी की हत्या हुई थी, वोह तो एक लहर थी जिसमें यह सब हुआ था, परन्तु अब भी जो मांगे मनवाने के लिए आन्दोलन होता है,उसमें सरकारी संपत्ति जैसे रेलगाड़ी,सरकारी बसों इत्यादि को आग लगायी जाती है, लोग भूल जातें हैं यह उन्ही के द्वारा उत्पन्न की हुई सम्पति है, और तो और निजी संपत्ति आने जाने वाले वाहनों को आग लगाई जाती है, लोग क्यों भूल जाते हैं,उनको चलाने वाले या उसमे बैठे हुए लोग उन्ही की तरह है, क्यों अपने ही लोगों और उनकी ही जैसी संपत्ति का सर्वनाश होता है |
इससे कम हानि वाला रास्ता है, सडको पर, रैल पथ पर जाम लगाना,परन्तु इस प्रक्रिया के कारण हो सकता है, किसी को कहीं आवश्यकता के अनुसार कहीं जाना हो सकता है,कोई गंभीर बिमारी से ग्रसित हो और अपने तीमारदारों के साथ चिकत्सालय जा रहा हो, और इस जाम के कारण देर होने से इस संसार को अंतिम विदा कह सकता है, किसी को नौकरी के कारण साक्षात्कार के लिए जाना हो,और समय पर ना पहुचने के कारण अपनी कमाई का साधन खो सकता है, हाँ यह तो हो सकता है,उसको आजीविका कमाने के लिए दूसरा अवसर मिल जाए पर जीविका के लिए बिलम्ब तो होता ही है |
हाल ही में गन्ना उत्पादकों किसानो ने, महाराष्ट्र के समर्थन मूल्य ना मिलने के कारण कोई सरकारी और निजी संपत्ति का कोई नुकसान नहीं किया था, हाँ जाम तो लगाया था, परन्तु हानि तो अपनी ही की थी,अपने स्वयं के पैदा हुए गन्ने को,और आखिर कार सरकार को विवश हो कर उनकी मांग को मानना पड़ा, अगर आन्दोलन करना है तो निजी,सरकारी संपत्ति और जान को नुक्सान क्यों |
विदर्भ के किसानों ने तो सुखा पड़ने के कारण,अपनी फसल को सूखता हुआ देख कर कर्ज के बोझ में डूबने के कारण,अपना ही जीवन गवायाँ, उनको तो किसी और से रहत नहीं मिली,और इसके बाद उन्होंने तो कोई भी जान,माल की हानि नहीं की बस हताश हो कर अपना जीवन ही समाप्त किया,में यह नहीं कहता कि अपना अमूल्य जीवन खो दो,बस यह बताना चाह रहा हूँ, यह बिचारे जीवन से निराश हो चुके थे,इस पर भी इन किसानों ने जान माल को हानि नहीं पहुचाई |
में यह सन्देश उन लोगों तक पहुचना चाहता हूँ,जो लोग अशिक्षित हैं,और आसामाजिक तत्वों के बरगलाने में आ जाते हैं,और जान माल की हानि करते हैं, लिख तो रहा हूँ, चाँद पड़े लिखे लोग और उसमें भी वोह लोग जिनको कोम्पुटर के बारे में मालूम है,और उसमें भी अधिकतर ब्लॉगर लोग ही पड़ पाएंगे,परन्तु यह प्रचार में देश के सुदूर कोने,कोने गाँव,गाँव तक करना चाहता हूँ, भाषा का भी बंधन सामने आता है,में तो केवल हिंदी और अंग्रेजी जानता हूँ,चाहता हूँ यह चीज तोड़ दे भाषाई बन्धनों को |
अपने देश के बारे में सजग हो |
यह तो बात थी सन १९८४ की जब श्रीमती इन्द्रा गाँधी की हत्या हुई थी, वोह तो एक लहर थी जिसमें यह सब हुआ था, परन्तु अब भी जो मांगे मनवाने के लिए आन्दोलन होता है,उसमें सरकारी संपत्ति जैसे रेलगाड़ी,सरकारी बसों इत्यादि को आग लगायी जाती है, लोग भूल जातें हैं यह उन्ही के द्वारा उत्पन्न की हुई सम्पति है, और तो और निजी संपत्ति आने जाने वाले वाहनों को आग लगाई जाती है, लोग क्यों भूल जाते हैं,उनको चलाने वाले या उसमे बैठे हुए लोग उन्ही की तरह है, क्यों अपने ही लोगों और उनकी ही जैसी संपत्ति का सर्वनाश होता है |
इससे कम हानि वाला रास्ता है, सडको पर, रैल पथ पर जाम लगाना,परन्तु इस प्रक्रिया के कारण हो सकता है, किसी को कहीं आवश्यकता के अनुसार कहीं जाना हो सकता है,कोई गंभीर बिमारी से ग्रसित हो और अपने तीमारदारों के साथ चिकत्सालय जा रहा हो, और इस जाम के कारण देर होने से इस संसार को अंतिम विदा कह सकता है, किसी को नौकरी के कारण साक्षात्कार के लिए जाना हो,और समय पर ना पहुचने के कारण अपनी कमाई का साधन खो सकता है, हाँ यह तो हो सकता है,उसको आजीविका कमाने के लिए दूसरा अवसर मिल जाए पर जीविका के लिए बिलम्ब तो होता ही है |
हाल ही में गन्ना उत्पादकों किसानो ने, महाराष्ट्र के समर्थन मूल्य ना मिलने के कारण कोई सरकारी और निजी संपत्ति का कोई नुकसान नहीं किया था, हाँ जाम तो लगाया था, परन्तु हानि तो अपनी ही की थी,अपने स्वयं के पैदा हुए गन्ने को,और आखिर कार सरकार को विवश हो कर उनकी मांग को मानना पड़ा, अगर आन्दोलन करना है तो निजी,सरकारी संपत्ति और जान को नुक्सान क्यों |
विदर्भ के किसानों ने तो सुखा पड़ने के कारण,अपनी फसल को सूखता हुआ देख कर कर्ज के बोझ में डूबने के कारण,अपना ही जीवन गवायाँ, उनको तो किसी और से रहत नहीं मिली,और इसके बाद उन्होंने तो कोई भी जान,माल की हानि नहीं की बस हताश हो कर अपना जीवन ही समाप्त किया,में यह नहीं कहता कि अपना अमूल्य जीवन खो दो,बस यह बताना चाह रहा हूँ, यह बिचारे जीवन से निराश हो चुके थे,इस पर भी इन किसानों ने जान माल को हानि नहीं पहुचाई |
में यह सन्देश उन लोगों तक पहुचना चाहता हूँ,जो लोग अशिक्षित हैं,और आसामाजिक तत्वों के बरगलाने में आ जाते हैं,और जान माल की हानि करते हैं, लिख तो रहा हूँ, चाँद पड़े लिखे लोग और उसमें भी वोह लोग जिनको कोम्पुटर के बारे में मालूम है,और उसमें भी अधिकतर ब्लॉगर लोग ही पड़ पाएंगे,परन्तु यह प्रचार में देश के सुदूर कोने,कोने गाँव,गाँव तक करना चाहता हूँ, भाषा का भी बंधन सामने आता है,में तो केवल हिंदी और अंग्रेजी जानता हूँ,चाहता हूँ यह चीज तोड़ दे भाषाई बन्धनों को |
अपने देश के बारे में सजग हो |
सोमवार, नवंबर 16, 2009
कैसे सुधरेंगी हमारे देश की अवय्व्स्थाएं?
हमारे देश में अगले वर्ष यानी २००१० में कोम्मोन वेल्थ खेल होने वाले हैं,देश विदेश से अनेकों खिलाडी इस अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में भाग लेंगे, बेशक वोह पॉँच सितारे वाले होटलों में रहेंगे,ऐसे समय पर मेरे मानस पटल पर अनेकों अव्यवस्थाओं से सम्बंधित प्रश्न उठते हैं, यह तो जाहिर है,विदेशी खिलाडी केवल अपने होटल और कमरे तक सीमीत नहीं रहेंगे, पहला प्रश्न तो उठता है,वोह लोग दिल्ली और आसपास के शेत्र को देखना चाहेंगे, सबसे पहले तो मन में आता है, अव्यवस्थित बिजली व्यवस्था, कभी भी कहीं भी बिना रोटीन के दिल्ली और दिल्ली के आसपास के शेत्र में बिजली चले जाना, यह बात मेरे दिमाग में इसलिए आई, मेरे पास पी.सी हैं,और देश विदेश के में काम के सिलसिले में जाने के कारण मेरे बहुत से विदेशी मित्र बन गये, और उन लोगों से यदा कदा में चेट्टिंग करता हूँ, और अचानक बिजली बिना रोटीन के अक्सर चली जाती है, और उन लोगों को मेरा सफाई देना कठिन हो जाता हैं, और यह भी होता है,इन्वेर्टर पूरी तरह से चार्ज नहीं होता,और में विवश हो कर इन्वेर्टर से भी पी.सी नहीं चला पाता |
दूसरा सवाल जो मस्तिष्क में,उभरता हैं,रात में अचानक कुत्ते भोकने लगते हैं,और नींद में खलल पड़ता है,हो सकता है विदेशी लोगों को कहीं ऐसे स्थान पर रात को रूकना पड़े तो उन पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? और डंपिंग स्थान ना होने पर स्थान,स्थान पर पड़ी हुई गंदगी उन पर क्या प्रभाव डालेगी ?, दिन में सडको पर घुमते हुए पशु देख कर वोह लोग क्या सोचेंगे?
चलो कोई विदेशी दिल्ली से बहार नहीं निकला हो ,परन्तु सडको पर तो अकारण गाड़ियों के होर्न बजाना,और ऐसी चीज जो विकसित देशों में परचलित नहीं है, पीछे से दीपपर देना, इसका उन पर क्या प्रभाव पड़ेगा?, ऐसा तो संभव नहीं हैं,हर समय वोह उनके लिए बनाये गये रास्तों पर चलें |
और भी बहुत से विचार मेरे मानस पटल पर उभरते हैं,जैसे कोई विरोध करने का तरीका,अगर किसी समूह विशेष की मांगे ना मानी जाये,या कोई हादसा हो जाये तो विरोध ऐसा निजी और सार्वजानिक बाहन को आग के हवाले करना,मुझे तो यह जान,माल पर हमला करना तो बिलकुल नहीं समझ में आता,तो उन विदेशी लोगों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा |
अभी तो स्लुमडोग मिल्लिओनर वोह पिक्चर बनाई हैं,जिसमे हिंदुस्तान की गरीबी दिखाई गयी थी,और उसको बहुत सारे ओस्कर मिल गये थे, अभी तो पिकचर में हमारे देश की गरीबी दिखाई थी, अगर किसी ने ऊपर लिखी हुई बातों पर फिल्म बना दी तो विश्व में,क्या प्रभाव पड़ेगा?, किसी नेउयोर्क दो लोगों ने जो कि दिल्ली में रह रहे हैं, ने एक साईट बनाया हैं, www.ourdelhistruggle.com और उन लोगों ने बहुत सी दिल्ली की अव्यवस्थाएं लिखी है,सोचिये इस प्रकार की अव्यवस्थाओं का विदेशिओं पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
दूसरा सवाल जो मस्तिष्क में,उभरता हैं,रात में अचानक कुत्ते भोकने लगते हैं,और नींद में खलल पड़ता है,हो सकता है विदेशी लोगों को कहीं ऐसे स्थान पर रात को रूकना पड़े तो उन पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? और डंपिंग स्थान ना होने पर स्थान,स्थान पर पड़ी हुई गंदगी उन पर क्या प्रभाव डालेगी ?, दिन में सडको पर घुमते हुए पशु देख कर वोह लोग क्या सोचेंगे?
चलो कोई विदेशी दिल्ली से बहार नहीं निकला हो ,परन्तु सडको पर तो अकारण गाड़ियों के होर्न बजाना,और ऐसी चीज जो विकसित देशों में परचलित नहीं है, पीछे से दीपपर देना, इसका उन पर क्या प्रभाव पड़ेगा?, ऐसा तो संभव नहीं हैं,हर समय वोह उनके लिए बनाये गये रास्तों पर चलें |
और भी बहुत से विचार मेरे मानस पटल पर उभरते हैं,जैसे कोई विरोध करने का तरीका,अगर किसी समूह विशेष की मांगे ना मानी जाये,या कोई हादसा हो जाये तो विरोध ऐसा निजी और सार्वजानिक बाहन को आग के हवाले करना,मुझे तो यह जान,माल पर हमला करना तो बिलकुल नहीं समझ में आता,तो उन विदेशी लोगों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा |
अभी तो स्लुमडोग मिल्लिओनर वोह पिक्चर बनाई हैं,जिसमे हिंदुस्तान की गरीबी दिखाई गयी थी,और उसको बहुत सारे ओस्कर मिल गये थे, अभी तो पिकचर में हमारे देश की गरीबी दिखाई थी, अगर किसी ने ऊपर लिखी हुई बातों पर फिल्म बना दी तो विश्व में,क्या प्रभाव पड़ेगा?, किसी नेउयोर्क दो लोगों ने जो कि दिल्ली में रह रहे हैं, ने एक साईट बनाया हैं, www.ourdelhistruggle.com और उन लोगों ने बहुत सी दिल्ली की अव्यवस्थाएं लिखी है,सोचिये इस प्रकार की अव्यवस्थाओं का विदेशिओं पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
स्नेह बडाने के लिए दूसरे की रुचि में भी योगदान दीजिये |
लोगों की अपनी,अपनी रुचि होती है, किसी की पिक्चर देखने की, किसी की भ्रमण की,किसी की लेखन की,किसी की पड़ने की और भी बहुत कुछ, अधिकतर लोग तो अपनी ही रुचि में ही व्यस्त रहते हैं,और उसी में उनको संतोष मिलता है,आखिर रुचि तो होती ही है,अपने लिए ख़ुशी और संतोष के लिए |
यह भी होता है,एक ही प्रकार की रुचि अनेकों लोगों की हो, जैसे ताश खेलना, कोई खेल खेलना, पिकनिक पर जाना,सामूहिक डांस करना,इस प्रकार की रुचिया तो साहूमिक होतीं हैं, इस प्रकार की रूचियों में तो अनेकों लोगों का मनोरंजन होता है, जैसे क्रिकेट के खेल में बाईस खिलाडी होते हैं उसमे २२ लोगों का मनोरंजन होता है , इसी प्रकार होकी,फूटबाल में भी अनेकों खिलाडी होते हैं,और इसमें सामाहुइक मनोरंजन होता है, ताश के खेल में भी दो से लेकर अनेकों खिलाडी हो सकते हैं, इसमें भी सामाहुइक मनोरन्जन होता है, पिकनिक,डांस इत्यादि में तो लोगों की कोई सीमा निर्धारित नहीं होती,इसमें भी सामाहुइक मनोरंजन होता है |
अब आता हूँ,उन रूचियों पर जैसे मैंने आरम्भ किया था,किसी की रुचि पिक्चर में हैं,किसी की भ्रमण की है,लेकिन स्नेह तब बड़ता है, अगर आप की रुचि दूसरे में ना हो, परन्तु फिर भी मन से दूसरे की रुचि में मन से साझीदार बनिए, इसमें,कुछ सीखने को मिलने के साथ आपस में स्नेह बड़ता है |
अगले इंसान को लगता है,वोह मुझे महत्तव दे रहा है,और आपस में प्यार बड़ता है, और भी अनेकों उदाहरण, जो कि अकेले भी किये जा सकते हैं,जैसे बर्ड वाचिंग,किसी अभ्यारण में जाना, अगर इनमे से आप किसी का आप साथ देते हैं,तो उक्त इंसान की ख़ुशी बड जाती है,और आपके उसके साथ आत्मीय सम्बन्ध हो जाते हैं |
यह भी होता है,एक ही प्रकार की रुचि अनेकों लोगों की हो, जैसे ताश खेलना, कोई खेल खेलना, पिकनिक पर जाना,सामूहिक डांस करना,इस प्रकार की रुचिया तो साहूमिक होतीं हैं, इस प्रकार की रूचियों में तो अनेकों लोगों का मनोरंजन होता है, जैसे क्रिकेट के खेल में बाईस खिलाडी होते हैं उसमे २२ लोगों का मनोरंजन होता है , इसी प्रकार होकी,फूटबाल में भी अनेकों खिलाडी होते हैं,और इसमें सामाहुइक मनोरंजन होता है, ताश के खेल में भी दो से लेकर अनेकों खिलाडी हो सकते हैं, इसमें भी सामाहुइक मनोरन्जन होता है, पिकनिक,डांस इत्यादि में तो लोगों की कोई सीमा निर्धारित नहीं होती,इसमें भी सामाहुइक मनोरंजन होता है |
अब आता हूँ,उन रूचियों पर जैसे मैंने आरम्भ किया था,किसी की रुचि पिक्चर में हैं,किसी की भ्रमण की है,लेकिन स्नेह तब बड़ता है, अगर आप की रुचि दूसरे में ना हो, परन्तु फिर भी मन से दूसरे की रुचि में मन से साझीदार बनिए, इसमें,कुछ सीखने को मिलने के साथ आपस में स्नेह बड़ता है |
अगले इंसान को लगता है,वोह मुझे महत्तव दे रहा है,और आपस में प्यार बड़ता है, और भी अनेकों उदाहरण, जो कि अकेले भी किये जा सकते हैं,जैसे बर्ड वाचिंग,किसी अभ्यारण में जाना, अगर इनमे से आप किसी का आप साथ देते हैं,तो उक्त इंसान की ख़ुशी बड जाती है,और आपके उसके साथ आत्मीय सम्बन्ध हो जाते हैं |
गुरुवार, नवंबर 12, 2009
मुझे तो लगने लगा है, ऐसे लेख लिखूं जिसमें कोई भी विवाद ही ना हो |
अब उम्र के इस पड़ाव में आ कर सोचने लगा हूँ,ऐसे लेख लिखूं जिसमें कोई विवाद ना हो, बहुत सारी पुस्तक लगभग हर विषय पर पड़ी, बहुत स्थानों पर भ्रमण किया,देश विदेश में,अनेकों स्थानों की सभ्यता देखी, अनेकों स्थानों की संस्कृति देखी,अपने अनुभव बाटने का प्रयास किया, और आज पंडित डी.के शर्मा जी का लेख पड़ा "विज्ञान किन चीजों को निषेध करता है ?" और उसपर कुछ तार्किक और कुछ तर्कहीन टिप्पणी देखी, तर्कहीन टिप्पणी जिसमें पंडित जी पर बिना तर्क के सीधा,सीधा आक्षेप था, लेकिन कोई प्रमाण नहीं था,और मुझे ताऊ रामपुरिया की टिप्पणी ने प्रभावित किया,जिसमें उन्होंने गलेलियो के द्वारा पृथ्वी के बारे में बतया था,और तत्कालीन समाज मानने गलेलियो की बात मानने को तयार ही नहीं था,और मेरे मस्तिष्क में एक साथ तीन विचार उभरे,पहला एडिसन के बारे में था,जिसने प्रकाश करने के लिए बल्ब का आविष्कार किया था, उस समय एडिसन ने कहा कि में,धातु के तारों में बिजली प्रबाहित करके प्रकाश उत्पन करूंगा, तत्कालीन लोगों को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ,और एडिसन ने धातु के तारों में बिजली प्रबाहित करके प्रकाश उत्पन्न किया, वोह बल्ब आधे घंटे तक जला और फिर उसके तार जल गये, और एडिसन उस समय हो गया हंसी का पात्र, बस उसने उस बल्ब से हवा निकाल कर उसमें वेकउम नहीं किया था, और वोह धातु के तार ओक्सीडाइस हो कर जल गये थे, फिर एडिसन ने उस बल्ब में से हवा निकाल कर उस बल्ब में वेकउम बनाया, तब हुआ बल्ब का अविष्कार जो निरंतर जलता रहता है |
दूसरा विचार जो मेरे मन में आया वोह था,इटली के महान दार्शनिक सुकरात का,वोह यही तो कहता था,किसी चीज को अपनाने से पहले अपने मन में तर्क करो,यह बात ठीक है कि नहीं,तत्कालीन लोगों को उसका यह तर्क पसन्द नहीं आया,और उसको उस समय जहर का प्याला पी कर अपना जीवन गंवाना पड़ा |
तीसरा विचार आया महान वेग्य्यानिक जगदीश चन्द्र बोस का,जिनोहोने उस समय के अंग्रेजो को कहा,में विना तार के एक कमरे से दूसरे कमरे में घंटी बजा दूंगा,उस समय के अंग्रेजो ने इस बात को माना नहीं,और उन्होंने ने एक कमरे से दूसरे कमरे में घंटी बजा कर आश्चर्य चकित कर दिया,और इस प्रकार हो गया बेतार के तार यानि आज के टेलीग्राफ का आविष्कार जिस पर अब मोर्स कोड के द्वारा सन्देश पहुंचाए जाते हैं |
मैंने अपने लेख सीमित " विज्ञान कैसे जानेगा असीमित विद्याएँ ",अपनी विद्याओं के वोह उदहारण दिए थे, जिन विद्याओं के कारण विदेशों में हमारी साख थी, कुछ ऋषि मुनिओं के द्वारा दी गयी अमूल्य धरोहर के बारे में लिखा था, जो हमारे यहाँ विवादित हैं, परन्तु जिसका लाभ विदेशियों ने उठाया है, कुछ,कुछ याद आता है,हमरे यहाँ जो वेद निरर्थक पड़े हुए थे,उसको जर्मन ले गये थे,और उन लोंगों ने अपने घर में तकनिकी विकास किया, अनेकों प्रकार की विद्याएँ जैसे आयुर्वेद,योग और भी विद्याएँ कहाँ उस सीमा तक रह गये हैं,जैसे पहले थीं?
एक लेख मैंने और लिखा था "बिना जाने और बिना खोजे लोग तर्क क्यों देते हैं", और उसमें उदहारण जो दिए थे,जो कि विवादित हैं, मेरा मूल विषय तो था बिना जाने और बिना खोज किये लोग तर्क देते हैं,इस पर एक दो टिप्पणी तो विषय से सम्बंधित थी,वाकी उदहारण को लेकर तर्क था, (लगता है मेरे लिए तीन नंबर ही उपूक्त है,मन में तो आ रहा है,कहूँ अंक ज्योतिष के अनुसार) वैसे तो मुझे अंक ज्योतिष का ज्ञान नहीं है,इसलिए इस बात को यही रोकता हूँ |
इसी बात से मुझे मनोविज्ञान से सम्बंधित लेख इम्पल्सिव व्यव्हार रिश्ते बिगाड़ सकता है, मैंने तो लिखा था इम्पल्सिव व्यवहार के बारे में,लेकिन एक टिप्पणी मुझे मूल विषय से हट कर मिली कि (यह सब पड़ कर लगता है आप झक्की हैं") में कोई भी टिप्पणी नहीं हटाता,मैंने तो टिप्पणी के लिए शब्द समीक्षा लिखा हुआ है |
मैंने एक लेख लिखा था,"(संवाद की कला") मैंने उस लेख में वर्णन किया था संबाद चार प्रकार के होते हैं |
मूक संवाद(Body Language),बोल के संवाद(Dialogue Communication),लिखित संवाद(Written Communication),चित्र संबाद(Picture Communication), लेकिन मुझे लगता है,उस लेख को भी बहुत कम लोगों ने पड़ा होगा,मुझे उस पर कोई भी अच्छी,बुरी समीक्षा नहीं मिलीं |
हमें तो मेनेजमेंट में,बताया गया है कि संवाद ,मूल विषय से सम्बंधित,स्पष्ट,साफ,और सूक्ष्म होना चाहिए(Communication should be to the point,clear,clean and precise.)
बस अंत में यही कहना चाहता हूँ, किसी भी प्रकार की समीक्षा दें,सब मुझे स्वीकार है,बही मुझे तो बात को मनन करने की दिशा मिलेगी, और लिखा हुआ,बोला हुआ संवाद तो सोच का परतिबिम्ब हैं( Written and Oral Communication is Reflection of Mind).
अपनी समीक्षा देकर मुझे समृद्ध करें |
धन्यवाद्
दूसरा विचार जो मेरे मन में आया वोह था,इटली के महान दार्शनिक सुकरात का,वोह यही तो कहता था,किसी चीज को अपनाने से पहले अपने मन में तर्क करो,यह बात ठीक है कि नहीं,तत्कालीन लोगों को उसका यह तर्क पसन्द नहीं आया,और उसको उस समय जहर का प्याला पी कर अपना जीवन गंवाना पड़ा |
तीसरा विचार आया महान वेग्य्यानिक जगदीश चन्द्र बोस का,जिनोहोने उस समय के अंग्रेजो को कहा,में विना तार के एक कमरे से दूसरे कमरे में घंटी बजा दूंगा,उस समय के अंग्रेजो ने इस बात को माना नहीं,और उन्होंने ने एक कमरे से दूसरे कमरे में घंटी बजा कर आश्चर्य चकित कर दिया,और इस प्रकार हो गया बेतार के तार यानि आज के टेलीग्राफ का आविष्कार जिस पर अब मोर्स कोड के द्वारा सन्देश पहुंचाए जाते हैं |
मैंने अपने लेख सीमित " विज्ञान कैसे जानेगा असीमित विद्याएँ ",अपनी विद्याओं के वोह उदहारण दिए थे, जिन विद्याओं के कारण विदेशों में हमारी साख थी, कुछ ऋषि मुनिओं के द्वारा दी गयी अमूल्य धरोहर के बारे में लिखा था, जो हमारे यहाँ विवादित हैं, परन्तु जिसका लाभ विदेशियों ने उठाया है, कुछ,कुछ याद आता है,हमरे यहाँ जो वेद निरर्थक पड़े हुए थे,उसको जर्मन ले गये थे,और उन लोंगों ने अपने घर में तकनिकी विकास किया, अनेकों प्रकार की विद्याएँ जैसे आयुर्वेद,योग और भी विद्याएँ कहाँ उस सीमा तक रह गये हैं,जैसे पहले थीं?
एक लेख मैंने और लिखा था "बिना जाने और बिना खोजे लोग तर्क क्यों देते हैं", और उसमें उदहारण जो दिए थे,जो कि विवादित हैं, मेरा मूल विषय तो था बिना जाने और बिना खोज किये लोग तर्क देते हैं,इस पर एक दो टिप्पणी तो विषय से सम्बंधित थी,वाकी उदहारण को लेकर तर्क था, (लगता है मेरे लिए तीन नंबर ही उपूक्त है,मन में तो आ रहा है,कहूँ अंक ज्योतिष के अनुसार) वैसे तो मुझे अंक ज्योतिष का ज्ञान नहीं है,इसलिए इस बात को यही रोकता हूँ |
इसी बात से मुझे मनोविज्ञान से सम्बंधित लेख इम्पल्सिव व्यव्हार रिश्ते बिगाड़ सकता है, मैंने तो लिखा था इम्पल्सिव व्यवहार के बारे में,लेकिन एक टिप्पणी मुझे मूल विषय से हट कर मिली कि (यह सब पड़ कर लगता है आप झक्की हैं") में कोई भी टिप्पणी नहीं हटाता,मैंने तो टिप्पणी के लिए शब्द समीक्षा लिखा हुआ है |
मैंने एक लेख लिखा था,"(संवाद की कला") मैंने उस लेख में वर्णन किया था संबाद चार प्रकार के होते हैं |
मूक संवाद(Body Language),बोल के संवाद(Dialogue Communication),लिखित संवाद(Written Communication),चित्र संबाद(Picture Communication), लेकिन मुझे लगता है,उस लेख को भी बहुत कम लोगों ने पड़ा होगा,मुझे उस पर कोई भी अच्छी,बुरी समीक्षा नहीं मिलीं |
हमें तो मेनेजमेंट में,बताया गया है कि संवाद ,मूल विषय से सम्बंधित,स्पष्ट,साफ,और सूक्ष्म होना चाहिए(Communication should be to the point,clear,clean and precise.)
बस अंत में यही कहना चाहता हूँ, किसी भी प्रकार की समीक्षा दें,सब मुझे स्वीकार है,बही मुझे तो बात को मनन करने की दिशा मिलेगी, और लिखा हुआ,बोला हुआ संवाद तो सोच का परतिबिम्ब हैं( Written and Oral Communication is Reflection of Mind).
अपनी समीक्षा देकर मुझे समृद्ध करें |
धन्यवाद्
मंगलवार, नवंबर 10, 2009
संवाद की कला |
मेरी जवानी के दिनों में, हमारे देश में हिप्पी लोग आये थे,फटे हुए कपड़े बड़े हुए बाल,बड़ी हुई दाड़ी,और युवा लोगों में,वोही फटे हुए कपड़े पहनना फैशन बन चुका था, अधिकतर हिप्पी लोग चिप्पी लगी हुई फटी हुई नीले रंग की जीन और नीले रंग का ही टॉप पहनते थे, और जीन भी एसी जिसका रंग अनेकों स्थान से फीका पड़ गया होता था, उन्ही दिनों दिल्ली में इसी प्रकार की जीन पहनना और टॉप पहनना फैशन बन चुका था, और इसी कारण मैंने भी उसी प्रकार की जीन और टॉप मैंने भी पहन लिया,और जा पहुंचा अपने पिता जी के कार्यालय में,पिता जी तो मुझे अच्छे कपड़ो में देखना चाहते थे, और उन्होने मेरी ओर इस प्रकार की दृष्टि डाली जैसे वोह मुझे पहचानते ही ना हों और उन्होंने अपने सहकर्मियों से परिचय भी नहीं करवाया , यह हुआ एक मूक संवाद जिसमें कोई बोल के संवाद हुआ ही नहीं,यह संवाद अनेकों प्रकार की भाव भंगिमा द्वारा हो सकता है, जैसे आँखों,आँखों में इशारा हो सकता है, किसी प्रकार का मुँह बनाना हो सकता है, अनेकों प्रकार के संवाद बिना बोलें हो सकतें हैं,और इस प्रकार के संवाद में तो केवल सोचा जा सकता है,किस बात का इशारा हो रहा है, लेकिन स्पष्ट कुछ भी नहीं पता चलता,मूक संवाद की यही कमी है |
दूसरे प्रकार का संबाद तो आपस में बोल कर होता है, और इस प्रकार के संवाद में इन्सान एक दूसरे के साथ,भाव भंगिमा के साथ बोलता है, लेकिन इसमें भी,एक इंसान का संबाद दूसरा कैसे लेता है, यह उसकी सोच के ऊपर होता है, और बहुत बार ऐसा होता है,बिना जानकारी के इस संवाद पर विराम लग जाता है, में अपने काम के सिलसिले में अमरीका के फिलाफेल्डिया शहर में गया हुआ था, फिल्फेडेलिया की उस फैक्ट्री में,एक महिला थी,उसने मुझे डिनर पर अपने घर बुलाया था, और बातों,बातों में उससे बात हुई कि वोह पुराने धर्मों के बारे में पड़ रही है, उसने मुझसे हमारे हिन्दू धर्म के बारे में,पहला प्रश्न पुछा कि, यह
ट्रीयूनोन क्या है,मुझे उसकी बात समझ ही नहीं आई,मैंने कहा क्या तो वोह बोली ब्रह्मा,विष्णु,महेश, तब में समझा यह त्रिदेवों के बारें में पूछ रही है,तो मैंने उसे बताया,ब्रह्मा,वीष्णु,महेश पैदा करने वाले,पलने वाले और संघार करने वाले देवता हैं,और यह भी बताया ब्रह्मा जी के साथ विद्या की देवी सरस्वती,विष्णु जी के साथ धन की देवी लक्ष्मी जी,और महेश के साथ शक्ति पारवती हैं, अब उसने पूछा शरीर में स्थित चक्रों के बारें में,वोह भी मैंने उसको बता दिया,मूलाधार चक्र से लेकर सहस्त्रधार चक्र के बारे में,और दोमूही सर्प यानि कि कुण्डलनी का मूलाधार चक्र से जागृत होकर,सब चक्र को भेदन करते हुए सहस्त्रधार चक्र तक पहुचने के बारे में,और में सोचने लगा इसको हिन्दू धर्म के बारे में,इतना सब कुछ पता है, अगर इसने कोई ऐसा प्रश्न पूछ लिया जो में नहीं जानता तो संवाद पर विराम लग सकता है,इसको तो बहका भी नहीं सकता, इसी में एक दूसरे की बात ना समझने के कारण मतभेद हो सकते है, इस प्रकार के संबाद में सुनने की भी कला आनी चाहिए, पहले किसी की बात शांत रह कर सुनें और मनन करें फिर बोलें |
इसके बाद करता हूँ,लिखित संबाद और इस प्रकार के संबाद में लिखे हुए शब्दों को भी इंसान, अपने सोचने के प्रकार या बहुत बार जिस प्रकार की पड़ने वाले का मस्तिष्क ढला होता है,उसी प्रकार से पाठक उसको ले लेता है, इसका एक दो दिन पहले मैंने एक लेख लिखा था "बिना जाने और बिना खोजे लोग अपना तर्क क्यों दे देते हैं ?" यह लेख विवादस्पद था, और इसमें मुझे मिली,जुली पर्तिक्रिया मिली, मूल विषय से सम्बंधित टिप्पणी के साथ, उसमें दिए हुए उदहारण से सम्भ्न्धित टिप्पणियाँ मिली जो कि मेरे लिए अप्रत्याशित थीं,और जिसने मुझे सोचने पर विवश कर दिया मूल विषय तो यह नहीं था,इस प्रकार की टिप्पणियाँ क्यों?, यह मेरे लिए बिलकुल नया अनुभव था,और मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा और सोचने लगा मैंने इस प्रकार के उदहारण क्यों दे दिए?
आखिर में उस संबाद की कला के बारे में लिखता हूँ, जो कि चित्रों के द्वारा पर्दर्शित होती है,किसी के सामने किसी चीज का चित्र रख दो उसका मस्तिष्क,उस चित्र की कल्पना में खो जाता है ,किसी इंसान का चित्र,किसी सीनेरी का चित्र हो सकता है |
बस आखिर में इस बात से इस विषय को समाप्त करता हूँ, मुख्यत: संवाद चार प्रकार के होतें हैं,मूक संबाद,बोल कर संवाद,लिखित संबाद और चित्र संबाद , और सर्वशक्तिमान से प्रार्थना करता हूँ,मेरे किसी संबाद से किसी का मन ना आहात हो |
दूसरे प्रकार का संबाद तो आपस में बोल कर होता है, और इस प्रकार के संवाद में इन्सान एक दूसरे के साथ,भाव भंगिमा के साथ बोलता है, लेकिन इसमें भी,एक इंसान का संबाद दूसरा कैसे लेता है, यह उसकी सोच के ऊपर होता है, और बहुत बार ऐसा होता है,बिना जानकारी के इस संवाद पर विराम लग जाता है, में अपने काम के सिलसिले में अमरीका के फिलाफेल्डिया शहर में गया हुआ था, फिल्फेडेलिया की उस फैक्ट्री में,एक महिला थी,उसने मुझे डिनर पर अपने घर बुलाया था, और बातों,बातों में उससे बात हुई कि वोह पुराने धर्मों के बारे में पड़ रही है, उसने मुझसे हमारे हिन्दू धर्म के बारे में,पहला प्रश्न पुछा कि, यह
ट्रीयूनोन क्या है,मुझे उसकी बात समझ ही नहीं आई,मैंने कहा क्या तो वोह बोली ब्रह्मा,विष्णु,महेश, तब में समझा यह त्रिदेवों के बारें में पूछ रही है,तो मैंने उसे बताया,ब्रह्मा,वीष्णु,महेश पैदा करने वाले,पलने वाले और संघार करने वाले देवता हैं,और यह भी बताया ब्रह्मा जी के साथ विद्या की देवी सरस्वती,विष्णु जी के साथ धन की देवी लक्ष्मी जी,और महेश के साथ शक्ति पारवती हैं, अब उसने पूछा शरीर में स्थित चक्रों के बारें में,वोह भी मैंने उसको बता दिया,मूलाधार चक्र से लेकर सहस्त्रधार चक्र के बारे में,और दोमूही सर्प यानि कि कुण्डलनी का मूलाधार चक्र से जागृत होकर,सब चक्र को भेदन करते हुए सहस्त्रधार चक्र तक पहुचने के बारे में,और में सोचने लगा इसको हिन्दू धर्म के बारे में,इतना सब कुछ पता है, अगर इसने कोई ऐसा प्रश्न पूछ लिया जो में नहीं जानता तो संवाद पर विराम लग सकता है,इसको तो बहका भी नहीं सकता, इसी में एक दूसरे की बात ना समझने के कारण मतभेद हो सकते है, इस प्रकार के संबाद में सुनने की भी कला आनी चाहिए, पहले किसी की बात शांत रह कर सुनें और मनन करें फिर बोलें |
इसके बाद करता हूँ,लिखित संबाद और इस प्रकार के संबाद में लिखे हुए शब्दों को भी इंसान, अपने सोचने के प्रकार या बहुत बार जिस प्रकार की पड़ने वाले का मस्तिष्क ढला होता है,उसी प्रकार से पाठक उसको ले लेता है, इसका एक दो दिन पहले मैंने एक लेख लिखा था "बिना जाने और बिना खोजे लोग अपना तर्क क्यों दे देते हैं ?" यह लेख विवादस्पद था, और इसमें मुझे मिली,जुली पर्तिक्रिया मिली, मूल विषय से सम्बंधित टिप्पणी के साथ, उसमें दिए हुए उदहारण से सम्भ्न्धित टिप्पणियाँ मिली जो कि मेरे लिए अप्रत्याशित थीं,और जिसने मुझे सोचने पर विवश कर दिया मूल विषय तो यह नहीं था,इस प्रकार की टिप्पणियाँ क्यों?, यह मेरे लिए बिलकुल नया अनुभव था,और मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा और सोचने लगा मैंने इस प्रकार के उदहारण क्यों दे दिए?
आखिर में उस संबाद की कला के बारे में लिखता हूँ, जो कि चित्रों के द्वारा पर्दर्शित होती है,किसी के सामने किसी चीज का चित्र रख दो उसका मस्तिष्क,उस चित्र की कल्पना में खो जाता है ,किसी इंसान का चित्र,किसी सीनेरी का चित्र हो सकता है |
बस आखिर में इस बात से इस विषय को समाप्त करता हूँ, मुख्यत: संवाद चार प्रकार के होतें हैं,मूक संबाद,बोल कर संवाद,लिखित संबाद और चित्र संबाद , और सर्वशक्तिमान से प्रार्थना करता हूँ,मेरे किसी संबाद से किसी का मन ना आहात हो |
सोमवार, नवंबर 09, 2009
सीखने की कोई आयु सीमा नहीं होती |
बहुत दिनों पहले किसी ब्लॉगर भाई का लेख देखा था, जिसमें उन्होंने उम्र दराज लोगों को ब्लॉग्गिंग सिखाने के बारे में,बताया था, अब जो लिखने जा रहा हूँ, उसमें मेरी ही स्वयं की अभीव्यक्ति है, मेरी आयु जीवन के उतरार्ध में पहुँच चुकी है,नयी चीजे जानने की ललक अभी भी बनी हुई है, बाल खिचडी हो चुके हैं,आँखों पर लिखने,पड़ने वाला चश्मा लग चुका है, और लोगों से बात करके,नए नए प्रयोग करके, और पड़ कर के अभी भी हर चीज के जानने की जिज्ञासा रहती है, शाररिक क्षमता पहले से कुछ कम हो चुकी है,लेकिन व्यवस्थित जीवन, और खान पान के द्वारा शरीर को स्वस्थ रखता हूँ, कभी,कभी कोई बीमारी घेर लेती है,परन्तु अभी तक कोई ऐसा रोग नहीं हुआ जो असाध्य हो |
जीवन के ३५ वर्ष की आयु में कार चलाना सीखने की इच्छा होती थी, और दो सप्ताह में, अकेले कार को सड़क पर चलाने में सक्षम हो गया था,४० वर्ष की आयु में हमारी फैक्ट्री में,कंप्युटर आया था, उस समय तो डॉस ही होता था,और हम लोगों का हमारी आवश्यकता के अनुसार लेन के द्वारा प्रोग्राम दिए जाते थे,अब मन में उत्सुकता थी कि यह प्रोग्राम कैसे बनते हैं, वोह प्रोग्राम उस समय फॉक्स बेस में बनते थे,दिल्ली जा कर फॉक्स बेस की प्रोग्रामईंग की किताब ले आया,और स्वयं ही उस किताब के सहारे काफी हद तक प्रोग्रामिंग सीख ली, अभी प्रोग्रामईंग सीखने की बहुत जिज्ञासा थी,५० वर्ष की अवस्था में, N.I.I.T से कोम्पुटर में डिप्लोमा किया, मेरे कोम्पुटर सीखना प्रारंभ करने के समय टाइपिंग वर्ड स्टार में होती थी,लेकिन अब माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस के सारे प्रोग्राम मुझे आतें हैं,उसके अतिरिक्त फोटोशोप,फ्लैश एनीमेशन भी कर लेता था,बस इन दोनों अभाय्स करना छोड़ दिया है, जिसके कारण इन दोनों सॉफ्टवेर मेरा हाथ थोड़ा तंग हो गया है,अभाय्स करुँ तो पहले जैसा हो जायगा |
जीवन सीमित है,और ज्ञान असीमित हर किसी के लेख पड़ कर अपने ज्ञान में वृद्धि करने की अभी भी,जिज्ञासा है,सब लेखों को पड़ने का प्रयत्न करता हूँ, असीमित ज्ञान को इस सीमित ज्ञान में कैसे समेट पाउँगा? इधर,उधर भ्रमण करता रहता हूँ,अनेकों संस्क्रित्यों को देखता हूँ,उनके बारे में जानने का यतन करता हूँ |
हाँ हो सकता है कोई अवस्था आ जाये जब मस्तिष्क शिथिल हो जाये,परन्तु अभी तो हर चीज की जानकारी पाने की जिज्ञासा है, मुझे यह नहीं समझ नहीं आता लोग क्यों कहतें हैं, बुदापे में क्या सीखेंगे ? बड़ती आयु के साथ लोग कुछ नया सीखने के लिए हतोउत्साहित क्यों होतें हैं?
मनुष्य जीवन पर्यंत सीखता है,मुझे तो ऐसा लगता है,हाँ अब मेरा झुकाब अध्यातम की और अधिक हो गया है,बहुत से प्रश्न मन में उठतें हैं,अगर मनुष्य के छह शत्रु, काम,क्रोध,लोभ,मद,मोह अहंकार हैं,तो मनुष्य के मित्र कितने हैं,उनका वग्रीकरण क्या है?
यम्,नियम,प्रतिहार क्या है,और भी बहुत सारे प्रश्न हैं , हाँ विद्याओं,संस्कृति इत्यादि को जानने की जिज्ञसा अभी भी है|
भागवद के सप्ताह को पूरा सुनने का बहुत प्रयत्न किया,बस कुछ अंश ही सुन पाता हूँ, पूरा कभी नहीं सुन पाया, इसमें बहुत कुछ अध्यात्मिक जिज्ञासा शांत हो जाती है, जीवन से जुडे दृष्टान्त इसमें है, जिसके साथ यह अध्यात्मिक जिज्ञासा शांत करती है, गुरु जी श्री परमहंस जी के अध्यायओं से जीवन से जुड़े हुए अध्यात्मिक प्रश्न की जिज्ञासा पूर्ति तो होती है, परन्तु और भी अध्यात्मिक प्रश्न मन में उठते हैं |
कुल मिला कर सभी चीजों की जानकारी लेने की ललक है |
अगला लेख प्रबंधन से सम्बंधित संवाद की कला पर लिखूंगा |
जय गुरुदेव |
जीवन के ३५ वर्ष की आयु में कार चलाना सीखने की इच्छा होती थी, और दो सप्ताह में, अकेले कार को सड़क पर चलाने में सक्षम हो गया था,४० वर्ष की आयु में हमारी फैक्ट्री में,कंप्युटर आया था, उस समय तो डॉस ही होता था,और हम लोगों का हमारी आवश्यकता के अनुसार लेन के द्वारा प्रोग्राम दिए जाते थे,अब मन में उत्सुकता थी कि यह प्रोग्राम कैसे बनते हैं, वोह प्रोग्राम उस समय फॉक्स बेस में बनते थे,दिल्ली जा कर फॉक्स बेस की प्रोग्रामईंग की किताब ले आया,और स्वयं ही उस किताब के सहारे काफी हद तक प्रोग्रामिंग सीख ली, अभी प्रोग्रामईंग सीखने की बहुत जिज्ञासा थी,५० वर्ष की अवस्था में, N.I.I.T से कोम्पुटर में डिप्लोमा किया, मेरे कोम्पुटर सीखना प्रारंभ करने के समय टाइपिंग वर्ड स्टार में होती थी,लेकिन अब माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस के सारे प्रोग्राम मुझे आतें हैं,उसके अतिरिक्त फोटोशोप,फ्लैश एनीमेशन भी कर लेता था,बस इन दोनों अभाय्स करना छोड़ दिया है, जिसके कारण इन दोनों सॉफ्टवेर मेरा हाथ थोड़ा तंग हो गया है,अभाय्स करुँ तो पहले जैसा हो जायगा |
जीवन सीमित है,और ज्ञान असीमित हर किसी के लेख पड़ कर अपने ज्ञान में वृद्धि करने की अभी भी,जिज्ञासा है,सब लेखों को पड़ने का प्रयत्न करता हूँ, असीमित ज्ञान को इस सीमित ज्ञान में कैसे समेट पाउँगा? इधर,उधर भ्रमण करता रहता हूँ,अनेकों संस्क्रित्यों को देखता हूँ,उनके बारे में जानने का यतन करता हूँ |
हाँ हो सकता है कोई अवस्था आ जाये जब मस्तिष्क शिथिल हो जाये,परन्तु अभी तो हर चीज की जानकारी पाने की जिज्ञासा है, मुझे यह नहीं समझ नहीं आता लोग क्यों कहतें हैं, बुदापे में क्या सीखेंगे ? बड़ती आयु के साथ लोग कुछ नया सीखने के लिए हतोउत्साहित क्यों होतें हैं?
मनुष्य जीवन पर्यंत सीखता है,मुझे तो ऐसा लगता है,हाँ अब मेरा झुकाब अध्यातम की और अधिक हो गया है,बहुत से प्रश्न मन में उठतें हैं,अगर मनुष्य के छह शत्रु, काम,क्रोध,लोभ,मद,मोह अहंकार हैं,तो मनुष्य के मित्र कितने हैं,उनका वग्रीकरण क्या है?
यम्,नियम,प्रतिहार क्या है,और भी बहुत सारे प्रश्न हैं , हाँ विद्याओं,संस्कृति इत्यादि को जानने की जिज्ञसा अभी भी है|
भागवद के सप्ताह को पूरा सुनने का बहुत प्रयत्न किया,बस कुछ अंश ही सुन पाता हूँ, पूरा कभी नहीं सुन पाया, इसमें बहुत कुछ अध्यात्मिक जिज्ञासा शांत हो जाती है, जीवन से जुडे दृष्टान्त इसमें है, जिसके साथ यह अध्यात्मिक जिज्ञासा शांत करती है, गुरु जी श्री परमहंस जी के अध्यायओं से जीवन से जुड़े हुए अध्यात्मिक प्रश्न की जिज्ञासा पूर्ति तो होती है, परन्तु और भी अध्यात्मिक प्रश्न मन में उठते हैं |
कुल मिला कर सभी चीजों की जानकारी लेने की ललक है |
अगला लेख प्रबंधन से सम्बंधित संवाद की कला पर लिखूंगा |
जय गुरुदेव |
शनिवार, नवंबर 07, 2009
बिना जाने और खोज किये बिना लोग अपने तर्क क्यों देते हैं?
कल मैंने पंडित डी.के शर्मा जी का लेख पड़ा और "विज्ञान भी मानने लगेगा है,भूत प्रेत आत्मा का सचमुच अस्तित्व है", और संगीता जी का लेख क्या "ज्योतिष को विकासशील नहीं होना चाहिए, और मैंने अपनी टिप्पणियों के द्वारा साक्ष्य के प्रमाण भी दिए,फिर भी लोग बिना जाने और खोज किये बिना अपने तर्क देने लगे,भूत प्रेत का अस्तित्व नहीं होता, मैंने भूत प्रेत को देखा तो नहीं,परन्तु उनका अधिकार लोगों के शरीर पर देखा है,अगर वोह लोग राजस्थान के महेंद्रगढ़ में बाला जी के मंदिर में जा कर देखे तो उनको उत्तर मिल जायेगा कि भूत,प्रेत का अस्तित्व होता है कि नहीं,वहाँ पर बहुत से लोगों के शरीर पर भूत प्रेत का अधिपत्य देखने को स्वयं ही मिल जायेगा,और मैंने एक टिप्पणी यह भी देखा , भूत प्रेत होते हैं, इसका चेलेंज किया हुआ था,मेरा उत्तर भी उन सज्जन के लिए वोही है, और यही प्रमाण देता है,कि आत्माएं होती हैं,मेरा भी चेलेंज है,वोह सज्जन वहाँ जा कर देखे तो उनको इसका उत्तर स्वयं मिल जायेगा, वहाँ पर आरती के समय इन भूत,प्रेत से ग्रसित लोग इस प्रकार की हरकते ऐसी होती हैं,कोई आम इंसान नहीं कर सकता है, और दूसरा प्रमाण देता हूँ, जो आप लोग घर बैठे ही देख सकतें हैं, गूगल पर सर्च करिए, "Life After Death",और आप लोगों को संभवत: वोह किताब मिल जाये और उस पुस्तक में, उन लोगों के अनुभव हैं,जो चिकत्सक के अनुसार अपना जीवन छोड़ चुके थे,फिर उनके प्राण उनके शरीर में वापिस आ गये थे,और उन लोगों का अनुभव इस पुस्तक में हैं, और साक्षात् आप लोगों को आत्मा का प्रमाण मिल जायेगा,परन्तु जो लोग मेरे ऊपर दिए हुए प्रमाण को जानने का प्र्यतन ही नहीं करते, और अपने नकार्ताम्क तर्क प्रस्तुत करते हैं,वोह लोग इसको कपोल कल्पना ही समझेंगे, विदेश में हर चीज को जानने का प्र्यतन होता है, और जानने के बाद बताया जाता है, इसका एक उदहारण जो इंडिया टीवी के न्यूज़ चैनल पर दिखाया गया था, किसी विदेशी इंसान ने बताया था,हमारी पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इन्द्रा गाँधी पुर्ब जन्म में,नाना जी साहिब थीं,और इस बात को भी बताया गया था, सामान्यता अस्सी परतिशत आत्मा लिंग नहीं बदलती,जो आत्मा स्त्री में होती हैं,वोह दूसरे जन्म में स्त्री के ही शरीर में जाती है, और ऐसा ही पुरुष के लिए होता है,परन्तु बीस परतिशत में ऐसा होता आत्मा लिंग बदलती है, उस इंसान ने कुछ प्रयोग ही कियें होंगे तभी बताया होगा, ना कि बिना जाने और खोज किये अपना तर्क प्रस्तुत किया होगा |
दूसरा लेख संगीता जी का पड़ा "क्या ज्योतिष को विकासशील नहीं होना चाहिए?" तब मेरे मस्तिष्क में एक विचार आया,बहुत से लोग ज्योतिष को तुक्का कह देते हैं,वोह मेरे लेख "भिर्गु सहिंता के बारे में मेरी अल्प जानकारी" पर पंडित डी.के शर्मा जी की टिप्पणी देखे और उनको समझ में आ जायेगा की ज्योतिष क्या है, मेरे इस लेख को पड़ा ही बहुत कम लोगों ने,और बिना जाने,बिना होशियारपुर जाये हुए जहाँ पर यह भृगु सहिंता है,कह देते हैं ज्योतिष तुक्का है, या ज्योतिष कोई विद्या नहीं हैं,वहाँ पर यहाँ तक बता दिया जाता है,अमुक व्यक्ति,अमुक दिन अपने बारे में जानकारी लेने आएगा, और मैंने एक लेख भी लिखा था,"सीमित विज्ञान कैसे खोजेगा असीमित विद्यायें", वोह भी बहुत कम लोगों ने पड़ा होगा,में अपने लेख का प्रचार नहीं कर रहा हूँ,बस यह बताने की चेष्टा कर रहा हूँ, पहले जानने की चेष्टा तो करो,फिर अपना तर्क दो,में स्वयं इंजनियर हूँ,और में समझता हूँ,विज्ञान भी हर चीज को जानने की चेष्टा करता है,प्रयोग करता है,और प्रमाणित करता है,विज्ञान निरे तर्क पर नहीं आधारित है |
कुछ दिन पहले मैंने लवली जी का पराशक्तियों के बारे में,लिखा हुआ लेख पड़ा था,जो कि,बिलकुल यथार्थ पर लिखतीं हैं,और उसमें किसी की टिप्पणी पड़ी थी, उकिसी ने कहा था में पराशक्तियों का अनुभव करा सकता हूँ कुछ ऐसा ही लिखा था ,और लवली जी कि प्रसंशा करनी पड़ेगी,उन्होंने उस बात को नाकारा नहीं और उन्होंने कहा कभी झारखण्ड आ कर मुझ से मिलिए, यह होती है जानने की चेष्टा, और लवली जी ने किसी मनोविज्ञानिक विषय पर लिखा था,और उन्होंने किसी मानसिक रोगी मनोचिक्त्सक को दिखाने का वर्णन किया था, उस के बाद वोह रोगी ठीक हो गया था,और वोह इंसान मनोचिक्त्सक को गालियाँ देने लगा कि मनोचिक्त्सक ने मेरा भगवान् से संपर्क तोड़ दिया, और फिर मैंने एक लेख लिखा था, मानसिक चिकत्सक और मनोचिक्त्सक में अंतर वोह लेख केवल उन्ही ने पड़ा,उन्होंने स्किज्फ्रोनिया के बारे में,एक भी लिखा और मैंने इम्पल्सिव हो कर एक उनके लेख पर किसी के द्वारा दी हुई टिप्पणी के कारण तीखी टिप्पणी दे दी,और फिर मैंने क्षमा मांगते हुए,इम्पल्सिव व्यव्हार रिश्ते बिगाड़ सकता है,एक लेख लिखा,तब उन्होंने टिप्पणी दी और टिप्पणी में लिखा, अगर आप लिंक दे देते तो पाठको को आसानी हो जाती,यहहोती है जानने की चेष्टा करना और दूसरों को बताना , मालूम नहीं अब लिंक में क्यों नहीं दे पा रहा,पहले मैंने अपने स्नेह परिवार वाले ब्लॉग में,स्नेह परिवार का ही लिंक दे दिया था,और वोह मेरी हर पोस्ट को दो बार दिखा रहा था,पावला जी ने मुझे इस समस्या से छुटकारा दिलाया था,और इस बार भी वोह मेरे लिंक ना दे पाने की समस्या से ऑनलाइन हल कर रहे थे, बस वोह समस्या बीच में ही रह गयी है, हो सकता है जब हम ऑनलाइन होंगे तो संभवत: लवली जी आपको लिंक दे पाउँगा |
प्रिय पाठको पहले विषयों को जानने की चेष्टा करो तो सही |
दूसरा लेख संगीता जी का पड़ा "क्या ज्योतिष को विकासशील नहीं होना चाहिए?" तब मेरे मस्तिष्क में एक विचार आया,बहुत से लोग ज्योतिष को तुक्का कह देते हैं,वोह मेरे लेख "भिर्गु सहिंता के बारे में मेरी अल्प जानकारी" पर पंडित डी.के शर्मा जी की टिप्पणी देखे और उनको समझ में आ जायेगा की ज्योतिष क्या है, मेरे इस लेख को पड़ा ही बहुत कम लोगों ने,और बिना जाने,बिना होशियारपुर जाये हुए जहाँ पर यह भृगु सहिंता है,कह देते हैं ज्योतिष तुक्का है, या ज्योतिष कोई विद्या नहीं हैं,वहाँ पर यहाँ तक बता दिया जाता है,अमुक व्यक्ति,अमुक दिन अपने बारे में जानकारी लेने आएगा, और मैंने एक लेख भी लिखा था,"सीमित विज्ञान कैसे खोजेगा असीमित विद्यायें", वोह भी बहुत कम लोगों ने पड़ा होगा,में अपने लेख का प्रचार नहीं कर रहा हूँ,बस यह बताने की चेष्टा कर रहा हूँ, पहले जानने की चेष्टा तो करो,फिर अपना तर्क दो,में स्वयं इंजनियर हूँ,और में समझता हूँ,विज्ञान भी हर चीज को जानने की चेष्टा करता है,प्रयोग करता है,और प्रमाणित करता है,विज्ञान निरे तर्क पर नहीं आधारित है |
कुछ दिन पहले मैंने लवली जी का पराशक्तियों के बारे में,लिखा हुआ लेख पड़ा था,जो कि,बिलकुल यथार्थ पर लिखतीं हैं,और उसमें किसी की टिप्पणी पड़ी थी, उकिसी ने कहा था में पराशक्तियों का अनुभव करा सकता हूँ कुछ ऐसा ही लिखा था ,और लवली जी कि प्रसंशा करनी पड़ेगी,उन्होंने उस बात को नाकारा नहीं और उन्होंने कहा कभी झारखण्ड आ कर मुझ से मिलिए, यह होती है जानने की चेष्टा, और लवली जी ने किसी मनोविज्ञानिक विषय पर लिखा था,और उन्होंने किसी मानसिक रोगी मनोचिक्त्सक को दिखाने का वर्णन किया था, उस के बाद वोह रोगी ठीक हो गया था,और वोह इंसान मनोचिक्त्सक को गालियाँ देने लगा कि मनोचिक्त्सक ने मेरा भगवान् से संपर्क तोड़ दिया, और फिर मैंने एक लेख लिखा था, मानसिक चिकत्सक और मनोचिक्त्सक में अंतर वोह लेख केवल उन्ही ने पड़ा,उन्होंने स्किज्फ्रोनिया के बारे में,एक भी लिखा और मैंने इम्पल्सिव हो कर एक उनके लेख पर किसी के द्वारा दी हुई टिप्पणी के कारण तीखी टिप्पणी दे दी,और फिर मैंने क्षमा मांगते हुए,इम्पल्सिव व्यव्हार रिश्ते बिगाड़ सकता है,एक लेख लिखा,तब उन्होंने टिप्पणी दी और टिप्पणी में लिखा, अगर आप लिंक दे देते तो पाठको को आसानी हो जाती,यहहोती है जानने की चेष्टा करना और दूसरों को बताना , मालूम नहीं अब लिंक में क्यों नहीं दे पा रहा,पहले मैंने अपने स्नेह परिवार वाले ब्लॉग में,स्नेह परिवार का ही लिंक दे दिया था,और वोह मेरी हर पोस्ट को दो बार दिखा रहा था,पावला जी ने मुझे इस समस्या से छुटकारा दिलाया था,और इस बार भी वोह मेरे लिंक ना दे पाने की समस्या से ऑनलाइन हल कर रहे थे, बस वोह समस्या बीच में ही रह गयी है, हो सकता है जब हम ऑनलाइन होंगे तो संभवत: लवली जी आपको लिंक दे पाउँगा |
प्रिय पाठको पहले विषयों को जानने की चेष्टा करो तो सही |
शुक्रवार, नवंबर 06, 2009
कला का सृजन मनोविज्ञान से ही हुआ है |
कला अपनी आवाज जनसाधारण की ओर पहूचाने का एक साधन है, चाहे इसका माध्यम संगीत,लेखन नाटक और भी अनेकों प्रकार की कला हो सकतीं हैं,लेकिन सबसे पहले कला का सृजन हुआ था, काव्य के रूप में जब किलोल करते हुए क्रोंच पक्षी के जोड़े में सेएक को शिकारी ने मार डाला और कवी के मुख से अनायास ही निकल पड़ा "वियोगी होगा पहला कवी आह से उपजा होगा गान", कला एक प्रकार की कुंठा है, जिसको कह सकते हैं,सकारात्मक कम्पल्सिव पर्सनालिटी डिसआर्डर,कलाकार व्याकुल हो जाता है,अपनी बात जनसाधारण के पास हर संभव तरीके से पहूचाने के लिए और उसकी पर्तिक्रिया जानने के लिए, इसका उदहारण है,अपनी काव्य रचना को लोगों के पास पहूचाने के लिए,चाहे सुनने वाला सुनना चाहें या नहीं चाहे परन्तु कवी को तो एक प्रकार का ऐसा हिस्टरिया होता है,जो कवी के नियंत्रण में होता है, इसी प्रकार लेखक अपनी बात जनसाधारण के पास पहुँचाने के लेख लिखता है, लेखक को तो लिखने का नशा होता है, बस उसे तो लिखना ही लिखना है, कलाकार असल में बहुत संवेदन शील होता है,और उसकी भावना उजागर होती है कला के रूप में, लिखना तो निरंतर जारी रहता है, या कोई चित्रकार है, तो वोह अपनी कूंची और रंगों के द्वारा केनवस पर चित्र उकेरता हैं, जब तक वोह काम पूरा नहीं कर लेता उसको शांति नहीं मिलती, इसी में कलाकार को सुखद अनुभूति होती है, यह एक प्रकार से कलाकर के वश में रहने वाली मिर्गी नहीं तो और क्या है?
कलाकार अपनी अनभूति को कला के रूप में पेश करता है, यह अनुभूति सुखद भी हो सकती है और दुखद भी, कलाकार अपनी अनुभूति को हर स्थिति में उजागर करना चाहता है,यह कलाकार जिस को अपने नियंत्रण में रखता है,एक प्रकार का कम्पल्सिव पेर्सनिलिटी डिसआर्डर नहीं तो और क्या है?
विंसेट वेन गोग चित्रकार के बारे में लिखा हुआ है,वोह अपनी चित्रकला में इतना खो जाता था, उसको ना भूख की चिंता होती ना और किसी और चीज की, अगर मन खुश हैं तो सुखद गीतों का सृजन होता है,और दुखी हैं तो दुखद गीतों का,अगर किसी को वाद्य यंत्रो में रुचि होती है,तो अपनी अनुभूति के अनुसार वोह इंसान लगातार अपने वाद्य यंत्रों के तार छेड़ने लगता है, अगर मन अत्यधिक दुखी हैं तो लगातार वाद्य यंत्रो का उपयोग करता है,यह एक प्रकार की नियंत्रण में रहने वाली मिर्गी नहीं तो और क्या है |
यही है कलाकार का मनोविज्ञान जो कि उसके नियंत्रण में रहने वाला कम्पल्सिव पर्सोनालिटी डिसआर्डर,या उसका कोंटरलड हिसटीरीय|
बस चलते,चलते एक बात बता दूं, वैज्ञानिक तो मनोवेगय्निक समस्या के कारण अपना मानसिक संतुलन भी खो सकते हैं,और भाभा एटोमिक में तो हर छे माह बाद उनकी मानसिकता की परीक्षा होती है,कहीं किसी ने मानसिक संतुलन तो नहीं खोया?
कलाकार अपनी अनभूति को कला के रूप में पेश करता है, यह अनुभूति सुखद भी हो सकती है और दुखद भी, कलाकार अपनी अनुभूति को हर स्थिति में उजागर करना चाहता है,यह कलाकार जिस को अपने नियंत्रण में रखता है,एक प्रकार का कम्पल्सिव पेर्सनिलिटी डिसआर्डर नहीं तो और क्या है?
विंसेट वेन गोग चित्रकार के बारे में लिखा हुआ है,वोह अपनी चित्रकला में इतना खो जाता था, उसको ना भूख की चिंता होती ना और किसी और चीज की, अगर मन खुश हैं तो सुखद गीतों का सृजन होता है,और दुखी हैं तो दुखद गीतों का,अगर किसी को वाद्य यंत्रो में रुचि होती है,तो अपनी अनुभूति के अनुसार वोह इंसान लगातार अपने वाद्य यंत्रों के तार छेड़ने लगता है, अगर मन अत्यधिक दुखी हैं तो लगातार वाद्य यंत्रो का उपयोग करता है,यह एक प्रकार की नियंत्रण में रहने वाली मिर्गी नहीं तो और क्या है |
यही है कलाकार का मनोविज्ञान जो कि उसके नियंत्रण में रहने वाला कम्पल्सिव पर्सोनालिटी डिसआर्डर,या उसका कोंटरलड हिसटीरीय|
बस चलते,चलते एक बात बता दूं, वैज्ञानिक तो मनोवेगय्निक समस्या के कारण अपना मानसिक संतुलन भी खो सकते हैं,और भाभा एटोमिक में तो हर छे माह बाद उनकी मानसिकता की परीक्षा होती है,कहीं किसी ने मानसिक संतुलन तो नहीं खोया?
मंगलवार, अक्टूबर 27, 2009
मुँह से निकले हुए शब्द कभी तीर होते हैं कभी मलहम |
बहुधा सोचता हूँ, यह मुँह से निकले हुए शब्द कभी तीर होते हैं,कभी मलहम, अगर मुँह से कटु शब्द निकलते हैं तो यह हिर्दय में तीर की तरह अघात करते हैं,और कभी यही शब्द मलहम का काम करते हैं, इसी लिए कहा गया है, ईश्वर ने दो ऑंखें और एक जवान दि है,जो भी मुँह से शब्द निकाले तो इन दोनों आँखों से देखभाल के यह शब्द जब मुँह से निकल जाते हैं,तो उनको उसी प्रकार वापिस नहीं लिया जा सकता है,जैसे तरकश से निकला हुआ तीर, यही शब्द अगर कटु होते हैं,तो जोड़ने के पश्चात ऐसे ही जुडते है,जैसे धागा टूटने के बाद उन टूटे हुए धागों से जोड़ने पर गांठ पड़ जाती है, और अगर यही शब्द अगर शीतलता लिए होते हैं तो,ऐसा लगता है जैसे सूखे हुए मरुस्थल में वर्षा कि फुआरे पड़ रही हूँ, अगर गांठ पड़ गयी और अनेकों बार शमा या सॉरी कहने पर यह टूटे हुए धागे पूर्वत: तो जुड़ नहीं पाते परन्तु गांठ पड़ना तो स्वाभाविक ही है |
इसीलिए किसी ने कहा है, ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोये |
औरों को भी शीतल करे और खुद भी शीतल होए ||
लिखे हुए शब्दों का इतना प्रभाव नहीं पड़ता, जितना कि बोले हुए शब्दों का, और अगर वचन कटु सत्य है,तो उनको भी इस प्रकार बोलना चाहिए जिससे सुनने वाले का मन शीतल हो, और उस समय कटु सत्य वचन का सुनने वाले पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा,और सुनने वाला मनन की दिशा में जायेगा, और अगर अच्छे वचनों को कटु या व्यंग्य के रूप में कहा जायेगा,तो सुनने वाला ध्यान ही नहीं देगा,हाँ अगर व्यंग्य लिखित है,तो पड़ने वाला मनन करेगा |
अब सवाल यह उठता है,सुनने वाला किस प्रकार से किसी कि कही हुई बात को लेता है, उसी प्रकार से सुनने वाला पर्तिक्रिया करेगा,इसलिए स्नेह से स्पष्टीकरण देते हुए बात करेंगे तो वोह सुनने वाले के लिए मलहम होंगे,और अगर शब्द में स्नेह नहीं है,तो वोह तीर की तरह चुभेंगे|
बस इस लेख में इतना ही
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोये |
औरोन को भी शीतलता दे और खुद भी शीतल होए ||
इसीलिए किसी ने कहा है, ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोये |
औरों को भी शीतल करे और खुद भी शीतल होए ||
लिखे हुए शब्दों का इतना प्रभाव नहीं पड़ता, जितना कि बोले हुए शब्दों का, और अगर वचन कटु सत्य है,तो उनको भी इस प्रकार बोलना चाहिए जिससे सुनने वाले का मन शीतल हो, और उस समय कटु सत्य वचन का सुनने वाले पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा,और सुनने वाला मनन की दिशा में जायेगा, और अगर अच्छे वचनों को कटु या व्यंग्य के रूप में कहा जायेगा,तो सुनने वाला ध्यान ही नहीं देगा,हाँ अगर व्यंग्य लिखित है,तो पड़ने वाला मनन करेगा |
अब सवाल यह उठता है,सुनने वाला किस प्रकार से किसी कि कही हुई बात को लेता है, उसी प्रकार से सुनने वाला पर्तिक्रिया करेगा,इसलिए स्नेह से स्पष्टीकरण देते हुए बात करेंगे तो वोह सुनने वाले के लिए मलहम होंगे,और अगर शब्द में स्नेह नहीं है,तो वोह तीर की तरह चुभेंगे|
बस इस लेख में इतना ही
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोये |
औरोन को भी शीतलता दे और खुद भी शीतल होए ||
मनोचिक्त्सक और मानसिक चिकत्सक में अंतर |
मनोविज्ञान को ही आगे बढाते हुए, अगला लेख लिख रहा हूँ, मनुष्य का मस्तिष्क तीन भागो में बिभक्त होता है, चेतन,अर्ध चेतन और सुप्त, कोई भी घटना होती है, इसका प्रभाव सबसे पहले मस्तिष्क के चेतन भाग पर होती है,और यह प्रभाव भी दो भागो में विभक्त होता है, किसी भी घटना का प्रभाव मस्तिष्क कितनी तीव्रता से लेता है, इस सृष्टि में मनुष्य का व्यक्तित्व अलग,अलग प्रकार को होता है, कोई संवेदन शील है,कोई अति सवेंदन शील है,और किसी में संवेदना का बहुत अभाव है, जितना अधिक मस्तिष्क संवेदन शील है, उतनी ही अधिकता से मस्तिष्क पर प्रभाव होता है, दूसरा किस प्रकार की घटना है, ख़ुशी कि या दुःख कि, फिर उस घटना द्वारा अस्थाई हानि या लाभ है,या स्थाई, और यही घटना समय के अन्तराल के साथ अर्ध चेतन भाग में चली जाती है, और अनुकूल या पर्तिकूल स्थिति,वातावरण में शरीर को मस्तिष्क का यही भाग पर्तिक्रिया करने को कहता है, यह तो रहा घटना का मस्तिष्क पर प्रभाव, परन्तु मुँह से निकले हुए कटु शब्द तो बहुत ही तीव्र गति से मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव डालते हैं,और अच्छे निकले हुए शब्द भी उतनी ही तीव्र गति से मस्तिष्क परअच्छा प्रभाव डालते है, मस्तिष्क को घटना तो इस प्रकार प्रभाव डालती है, कि मस्तिष्क के न्यूरोन में हलचल होती है,और फिर मस्तिष्क सोचने लगता है, पर मुँह से निकले हुए शब्द तो न्यूरोन को उसी क्षण प्रभावित करते हैं,और शरीर उसी क्षण पर्तिक्रिया करता है,इसलिए तो मस्तिष्क तुंरत बोले हुए शब्दों के अनुसार शरीर को पर्तीक्रिया करने को कहता है, और यह शब्द कभी तीर और कभी मल्हम्म का काम करते है |
मनोचिक्त्सक का यही काम है,कि मानव की परतेक क्रिया का अति सूक्ष्मता से अध्यन करना और शब्दों के द्वारा उसको परामर्श देना,परन्तु हमारे देश में मनोचिक्त्सक का बहुत अभाव है, इस काम में में मनोचिक्त्सक को सहानभूति से नहीं बल्कि इस प्रकार से मनोरोगी से बात करनी होती है,जैसे यह घटना मनोचिक्त्सक के साथ हो रही है, और दूसरे होते हैं मानसिक चिकत्सक,वोह मनुष्य के शरीर में होने वाली क्रिया का अधयन्न करते हैं, पहले तो यह अपने औजारों से देखते हैं,मनुष्य के अंग उनके औजारों के परति कितने संवेदनशील है,आँख कि पुतली पर बहुत ही बारीक टॉर्च की रौशनी डाल कर देखते है,आँख की पुतली कितनी सिकुड़ती है, मतलब कि शरीर में क्रिया की परति क्रिया का अधयन्न करते हैं, फिर E.E.G मशीन से दिमाग से निकलने वाली तरंगो का अध्यन करते हैं,और देखते हैं वोह तरंगे कितनी विचलित हैं,और शरीर में होने वाली क्रिया और पर्तिक्रिया के साथ दिमाग से निकलने वाली तरंगो का अध्यन करके दवाई देते हैं |
दिल्ली में एक संस्था थी संजीवनी ,जिसमे यह दोनों प्रकार के चिकत्सक मनोचिक्त्सक और मानसिक चिकत्सक थे, और यह संस्था मानसिक रोगियों की निशुल्क चिकत्सा करती थी, इस संस्था को इसलिए कह रहा हूँ थी,इस संस्था को गूगल पर खोजा पर नहीं मिली |
अगले लेख में इस संजीवनी संस्था के बारे में लिखूंगा |
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मनोचिक्त्सक का यही काम है,कि मानव की परतेक क्रिया का अति सूक्ष्मता से अध्यन करना और शब्दों के द्वारा उसको परामर्श देना,परन्तु हमारे देश में मनोचिक्त्सक का बहुत अभाव है, इस काम में में मनोचिक्त्सक को सहानभूति से नहीं बल्कि इस प्रकार से मनोरोगी से बात करनी होती है,जैसे यह घटना मनोचिक्त्सक के साथ हो रही है, और दूसरे होते हैं मानसिक चिकत्सक,वोह मनुष्य के शरीर में होने वाली क्रिया का अधयन्न करते हैं, पहले तो यह अपने औजारों से देखते हैं,मनुष्य के अंग उनके औजारों के परति कितने संवेदनशील है,आँख कि पुतली पर बहुत ही बारीक टॉर्च की रौशनी डाल कर देखते है,आँख की पुतली कितनी सिकुड़ती है, मतलब कि शरीर में क्रिया की परति क्रिया का अधयन्न करते हैं, फिर E.E.G मशीन से दिमाग से निकलने वाली तरंगो का अध्यन करते हैं,और देखते हैं वोह तरंगे कितनी विचलित हैं,और शरीर में होने वाली क्रिया और पर्तिक्रिया के साथ दिमाग से निकलने वाली तरंगो का अध्यन करके दवाई देते हैं |
दिल्ली में एक संस्था थी संजीवनी ,जिसमे यह दोनों प्रकार के चिकत्सक मनोचिक्त्सक और मानसिक चिकत्सक थे, और यह संस्था मानसिक रोगियों की निशुल्क चिकत्सा करती थी, इस संस्था को इसलिए कह रहा हूँ थी,इस संस्था को गूगल पर खोजा पर नहीं मिली |
अगले लेख में इस संजीवनी संस्था के बारे में लिखूंगा |
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रविवार, अक्टूबर 25, 2009
संभवत: प्राचीन काल में चार आश्रम की व्यवस्था का मनोवाज्ञानिक आधार रहा होगा |
प्राचीन काल में, मानव जीवन की व्यवस्था को चार भागो में, विभक्त किया था , व्रह्म्चार्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और सन्यास, जब शिशु जन्म लेता है, कुछ वर्ष तक तो उसका प्रयास अपने शरीर को संभालना होता है, और उसके बाद उसमें अपने आसपास की वस्तुओं को जानने कि जिज्ञासा होती है, और १३,१४ वर्ष की अवस्था तक पहुँचते, पहुंचते वोह अपने आस पास की जानकारी ले चुका होता है और शरीर में शक्ति का संचार हो चुका होता है, और यह अवस्था ऐसी होती है, वोह अपने आस पास के वातावरण से तो परिचित हो ही जाता है,और वोह अपनी सोच के अनुसार प्रयोग करना चाहता है, यही वोह अवस्था होती हैं, जिसमें उसके शरीर और मस्तिष्क में परिवर्तन होने लगता हैं, इस अवस्था में होने वाले शारीरिक परिवर्तन होने के साथ, उसके मस्तिष्क में भी हार्मोनल परिवर्तन होने लगते है, aderdinal gland से निकलने वाले हारमोन,और शारीरिक परिवर्तन के कारण उसके मस्तिस्क में ऐसे प्रश्न उठने लगते हैं, जो वोह संकोच वश अपने माँ,बाप से पूछ नहीं सकता और अगर माँ बाप से पूछ भी लिया तो माँ बाप उसको संकोचवश ठीक से उत्तर दे नहीं पाते, यह अवस्था १३ वर्ष से लेकर १९ वर्ष की अवस्था तक रहती है,और इसको टीनएज और मुश्किल एज कहा जाता है, इस एज में लड़के,लड़की के कदम बहकने की बहुत सम्भावना रहती है, लड़के और लड़की में आकर्षण होने लगता है, जिसको यह लोग प्यार की संज्ञा दे देते हैं |
संभवत: इसी लिए किशोरों के लिए व्रह्म्चार्य आश्रम की व्यवस्था की गयी थी, १३,१४ वर्ष की आयु में,इन किशोरों को गुरु के पास भेजा जाता था,शक्ति तो इन लोगों में भरपूर होती थी, मस्तिष्क भी उन बातों को जानने का इछुक होता था, जिसका इन किशोरों और इनके माँ वाप के बीच में ठीक से संवाद नहीं हो सकता था, उस समय के गुरु हर प्रकार की विद्या से सपन्न होते थे,और यह गुरुजन किशोरों की शारीरिक और मानसिक शक्ति को सही दिशा देते थे |
उस समय की किशोरियों के लिए इस प्रकार कि व्यवस्था क्यों नहीं थी यह समझ नहीं आता ,और इन किशोरियों के लिए गुरु क्यों नहीं थे, प्राचीन ग्रंथो में पुरुष गुरु और किशोर शिष्य का वर्णन तो मिलता है, परन्तु किशोरियों के लिए नहीं,संभवत: पुरुष प्रधान देश होने के कारण |
किशोर गुरुओं से २५ वर्ष की अवस्था तक रहते थे, अनेकों प्रकार कि विद्याओं में और अपने मस्तिष्क में उठने वाले पर्श्नों के उत्तर अपने गुरुओं से प्राप्त कर चुके होते थे , और इन विद्याओं में पारंगत, और अपने मस्तिष्क में उठने वाले पर्श्नों का उत्तर प्राप्त कर के पूर्ण रूप से गृहस्त आश्रम में प्रवेश के लिए उपयुक्त हो जाते थे ,और उस समय की स्वयंबर प्रथा के लिए तय्यारहो जाते थे , और अपने बल और बुद्धि कौशल पर वधु के गले में वरमाला डाल पाते थे , उसके बाद प्रारंभ हो जाता था गृहस्थ आश्रम में प्रवेश, इस गृहस्थ आश्रम को तब से आज तक से सब से बड़ी तपस्या कहा जाता है , संतानुत्पत्ति करना,संतान को सही दिशा देना, उनका लालन पालन करना, माँ को रातों की नींद का त्याग करना, स्वयं का गीले बिस्तर पर सोना और संतान को सूखे बिस्तर पर सुलाना,पिता के लिए अपनी पत्नी और संतान के लिए जीविका कमाना, कभी संतान वीमार हुई तो जीविका कमाना तो है ही और संतान के उपचार का प्रबंध करना ना जाने माँ बाप को कितने पापड़ बेलने पड़ते थे,आज का परिवेश बादल गया है, आज के समय में तो स्त्री पुरुष एक दूसरे के साथ कंधे से कन्धा मिला कर आजीविका कमा रहें हैं, यह गृहस्थ आश्रम २५ से ५० वर्ष की आयु तक रहता था, फिर आता था वानप्रस्थ आश्रम, संतान अब तक गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर चुकी होती थी |
अब इस गृहस्थ आश्रम में प्रवेश की हुई संतान को केवल कभी,कभी परामर्श की आवयश्कता पड़ती थी, हस्तकशेप करना उस समय भी नहीं पसंद होता होगा,जैसे आज भी नहीं पसंद है, आज तो एक पीडी के अंतर को genration gap कहा जाता है, और यह वानप्रस्थ ऐसा होता था, वानप्रस्थ में प्रवेश करने वाले लोग अपनी गृहस्थ में प्रवेश करने वाली संतान से अलग रहते थे,बस सम्बन्ध बनाये रहते थे |
५० से ७५ वर्ष की आयु तक तो वानप्रस्थ आश्रम रहता था,और इसके बाद प्रारंभ हो जाता था सन्यास जो कि ७५ वर्ष की आयु से १०० वर्ष की आयु तक बताया जाता है, हो सकता उस समय कि सम आयु १०० वर्ष तक होती होगी, यह समय वोह होता था,जब सुब कुछ त्याग कर प्रभु भक्ति में लगने का परामर्श दिया जाता है, उतरोतर आयु में शक्ति तो रहती नहीं,और कब देहावसान हो जाये इसके बारे में कुछ ज्ञात नहीं होता, संभवत: इसीलिए सन्यास आश्रम के लिए उपरोक्त समय बताया होगा |
यह सब हुए मनोवाज्ञानिक कारण, अगले लेख में लिखूंगा मनोचिक्त्सक और मानसिक चिकत्सक में अंतर |
संभवत: इसी लिए किशोरों के लिए व्रह्म्चार्य आश्रम की व्यवस्था की गयी थी, १३,१४ वर्ष की आयु में,इन किशोरों को गुरु के पास भेजा जाता था,शक्ति तो इन लोगों में भरपूर होती थी, मस्तिष्क भी उन बातों को जानने का इछुक होता था, जिसका इन किशोरों और इनके माँ वाप के बीच में ठीक से संवाद नहीं हो सकता था, उस समय के गुरु हर प्रकार की विद्या से सपन्न होते थे,और यह गुरुजन किशोरों की शारीरिक और मानसिक शक्ति को सही दिशा देते थे |
उस समय की किशोरियों के लिए इस प्रकार कि व्यवस्था क्यों नहीं थी यह समझ नहीं आता ,और इन किशोरियों के लिए गुरु क्यों नहीं थे, प्राचीन ग्रंथो में पुरुष गुरु और किशोर शिष्य का वर्णन तो मिलता है, परन्तु किशोरियों के लिए नहीं,संभवत: पुरुष प्रधान देश होने के कारण |
किशोर गुरुओं से २५ वर्ष की अवस्था तक रहते थे, अनेकों प्रकार कि विद्याओं में और अपने मस्तिष्क में उठने वाले पर्श्नों के उत्तर अपने गुरुओं से प्राप्त कर चुके होते थे , और इन विद्याओं में पारंगत, और अपने मस्तिष्क में उठने वाले पर्श्नों का उत्तर प्राप्त कर के पूर्ण रूप से गृहस्त आश्रम में प्रवेश के लिए उपयुक्त हो जाते थे ,और उस समय की स्वयंबर प्रथा के लिए तय्यारहो जाते थे , और अपने बल और बुद्धि कौशल पर वधु के गले में वरमाला डाल पाते थे , उसके बाद प्रारंभ हो जाता था गृहस्थ आश्रम में प्रवेश, इस गृहस्थ आश्रम को तब से आज तक से सब से बड़ी तपस्या कहा जाता है , संतानुत्पत्ति करना,संतान को सही दिशा देना, उनका लालन पालन करना, माँ को रातों की नींद का त्याग करना, स्वयं का गीले बिस्तर पर सोना और संतान को सूखे बिस्तर पर सुलाना,पिता के लिए अपनी पत्नी और संतान के लिए जीविका कमाना, कभी संतान वीमार हुई तो जीविका कमाना तो है ही और संतान के उपचार का प्रबंध करना ना जाने माँ बाप को कितने पापड़ बेलने पड़ते थे,आज का परिवेश बादल गया है, आज के समय में तो स्त्री पुरुष एक दूसरे के साथ कंधे से कन्धा मिला कर आजीविका कमा रहें हैं, यह गृहस्थ आश्रम २५ से ५० वर्ष की आयु तक रहता था, फिर आता था वानप्रस्थ आश्रम, संतान अब तक गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर चुकी होती थी |
अब इस गृहस्थ आश्रम में प्रवेश की हुई संतान को केवल कभी,कभी परामर्श की आवयश्कता पड़ती थी, हस्तकशेप करना उस समय भी नहीं पसंद होता होगा,जैसे आज भी नहीं पसंद है, आज तो एक पीडी के अंतर को genration gap कहा जाता है, और यह वानप्रस्थ ऐसा होता था, वानप्रस्थ में प्रवेश करने वाले लोग अपनी गृहस्थ में प्रवेश करने वाली संतान से अलग रहते थे,बस सम्बन्ध बनाये रहते थे |
५० से ७५ वर्ष की आयु तक तो वानप्रस्थ आश्रम रहता था,और इसके बाद प्रारंभ हो जाता था सन्यास जो कि ७५ वर्ष की आयु से १०० वर्ष की आयु तक बताया जाता है, हो सकता उस समय कि सम आयु १०० वर्ष तक होती होगी, यह समय वोह होता था,जब सुब कुछ त्याग कर प्रभु भक्ति में लगने का परामर्श दिया जाता है, उतरोतर आयु में शक्ति तो रहती नहीं,और कब देहावसान हो जाये इसके बारे में कुछ ज्ञात नहीं होता, संभवत: इसीलिए सन्यास आश्रम के लिए उपरोक्त समय बताया होगा |
यह सब हुए मनोवाज्ञानिक कारण, अगले लेख में लिखूंगा मनोचिक्त्सक और मानसिक चिकत्सक में अंतर |
बुधवार, अक्टूबर 21, 2009
क्या आज के युग केवल भौतिकता का ही सम्मान है ?
बहुधा में सोचता हूँ,अगर कोई भी स्त्री,पुरष,युवक अगर प्रसिद्ध नहीं हैं, तो उसको सम्मान की दृष्टि से तभी देखा जाता है, जब तक वोह सुख सुविधा से संपन्न ना हो और जितना अधिक सुविधा संपन्न उतना ही अधिक सम्मान, अगर किसी ने कीमती वस्त्र पहने हुए हो तो वोह सम्मान का अधिकारी है,अगर उसके पासअपनी साथ साधारण कार है तो ओर सम्मान,अगर कीमती कार तो ओर सम्मान,अगर विदेशी कार हो तो ओर सम्मान, की दृष्टि में उसका सम्मान बड़ जाता है,और अगर अपना घर है तो उसको और सम्मानित दृष्टि से देखा जाता है |
जितनी अधिक धन को पर्दर्शित करना उतना ही सम्मान, लक्ष्मी के बारे में कहा जाता है,यह सदा स्थिर नहीं रहती है, हर समय यह चलायमान रहती है,कभी यहाँ तो कभी वहाँ, अगर किसी के पास किसी भी कारणवश सुख,सुविधा के साधन नष्ट होते जातें हैं, और जितने नष्ट होते जाते हैं तो,उसी अनुपात में उसका लोगों की दृष्टि में सम्मान गिरता जाता है, क्या सुख सुविधा ही सम्मान सूचक है ? क्या निर्धन होने पर सम्मानित व्यक्ति हेय हो जाता है,अभी तक तो वोह सम्मानित था कि उसके पास धन दोलत थी,और धन दोलत के नष्ट होते हि उसका सम्मान गिर गया,यह तो व्यक्ति का सम्मान ना होकर के लक्ष्मी का सम्मान हो गया |
अगर कोई बॉय फ्रेंड अपनी गर्ल फ्रेंड को कीमती उपहार देता है, तो गर्ल फ्रेंड की दृष्टि में उसका सम्मान बड जाता है, इस सन्दर्भ में समाचार पत्रों में अधिंकाश समय यह आता है, अच्छे घरो के लड़को ने महिलाओं अथवा लड़कियों के गले से चेन खींच ली, अगर कारण जानने का प्रयत्न करो तो यह सामने आता है कि, यह लड़के सुख संपन्न घर से हैं और, अपनी गर्ल फ्रेंड को कीमती उपहार देकर सम्मानित होना चाहते हैं, कहाँ गया वोह महात्मा गाँधी जी का वचन "सादा जीवन उच्च विचार" |
मान लीजिये अगर कोई परसिद्ध बुद्धि जीवी जैसे कि लेखक, वैज्ञानिक और कोई भी पर्तिभाशाली व्यक्ति जो आम जनता की दृष्टि में नहीं है,वोह अगर बिना शान शौकत के जन संपर्क में आता है, तो क्या उसका सम्मान नहीं है, क्योंकि वोह अपनी सम्पन्नता को पर्दर्शित नहीं कर रहा है (ऐसा कम ही होता है,इन लोगों का चित्र समाचार पत्रों में इनके वर्णन का साथ निकल ही जाता है )
किसी भी समारोह में, उपहार देने में भी अपने को परितिष्ठ दिखाने के लिए कीमती उपहार देने का प्रचलन है,तो यह गरीब लोग जो कीमती उपहार नहीं दे सकते उनका सम्मान नहीं हैं, यह भी सच है अगर आपके सुख,समृधि है तो अनेकों रिश्तेदार बन जाते हैं, और अगर सुख समृधि छुट जाती है,तो यही रिश्तेदार आपको छोड़ कर चले जाते हैं, तो क्या सम्मान उनका है,जिनके पास सम्पन्नता है,या लक्ष्मी का सम्मान है ? इसी सन्दर्भ में जो बात मेरे मस्तिष्क में आ रही है, जो इस लेख से थोड़ा हट कर है,सच्चा मित्र वोही है,जो आपका संकट के समय साथ दे, अगर कोई भी धनी,सुख सम्पन्नता से शने:शने: दूर होकर निर्धन हो जाता है, और अगर कोई उसका साथ उस संकट में दे तो वही आपका सच्चा मित्र है |
यह धन सम्पदा और एकत्रित हो,और एकत्रित हो यह तो मिरगतृष्णा है, जिसका अंत कभी नहींहोता , सिकंदर ने सब कुछ जीत लिया,और उसके बाद उसने यही कहा था, मेरे ताबूत में से मेरे खुले हाथ बहार रखना, जिससे लोगों को यह संकेत मिले में खाली हाथ आया था और खाली हाथ जा रहा हूँ |
बस इतना ही बहुत है,जिससे परिवार को रोटी मिल जाए किसी के आगे हाथ ना फेलाना पड़े,और जो अथिति घर में आये वोह भी भूखा ना जाये |
बस इस लेख का अंत साईं नाथ से की जाने वाली प्रार्थना से कर रहा हूँ |
साईं इतना दीजिये जिसमे कुटुंब समाय |
में भी भूखा ना रहूँ और भी भूखा ना जाये ||
जितनी अधिक धन को पर्दर्शित करना उतना ही सम्मान, लक्ष्मी के बारे में कहा जाता है,यह सदा स्थिर नहीं रहती है, हर समय यह चलायमान रहती है,कभी यहाँ तो कभी वहाँ, अगर किसी के पास किसी भी कारणवश सुख,सुविधा के साधन नष्ट होते जातें हैं, और जितने नष्ट होते जाते हैं तो,उसी अनुपात में उसका लोगों की दृष्टि में सम्मान गिरता जाता है, क्या सुख सुविधा ही सम्मान सूचक है ? क्या निर्धन होने पर सम्मानित व्यक्ति हेय हो जाता है,अभी तक तो वोह सम्मानित था कि उसके पास धन दोलत थी,और धन दोलत के नष्ट होते हि उसका सम्मान गिर गया,यह तो व्यक्ति का सम्मान ना होकर के लक्ष्मी का सम्मान हो गया |
अगर कोई बॉय फ्रेंड अपनी गर्ल फ्रेंड को कीमती उपहार देता है, तो गर्ल फ्रेंड की दृष्टि में उसका सम्मान बड जाता है, इस सन्दर्भ में समाचार पत्रों में अधिंकाश समय यह आता है, अच्छे घरो के लड़को ने महिलाओं अथवा लड़कियों के गले से चेन खींच ली, अगर कारण जानने का प्रयत्न करो तो यह सामने आता है कि, यह लड़के सुख संपन्न घर से हैं और, अपनी गर्ल फ्रेंड को कीमती उपहार देकर सम्मानित होना चाहते हैं, कहाँ गया वोह महात्मा गाँधी जी का वचन "सादा जीवन उच्च विचार" |
मान लीजिये अगर कोई परसिद्ध बुद्धि जीवी जैसे कि लेखक, वैज्ञानिक और कोई भी पर्तिभाशाली व्यक्ति जो आम जनता की दृष्टि में नहीं है,वोह अगर बिना शान शौकत के जन संपर्क में आता है, तो क्या उसका सम्मान नहीं है, क्योंकि वोह अपनी सम्पन्नता को पर्दर्शित नहीं कर रहा है (ऐसा कम ही होता है,इन लोगों का चित्र समाचार पत्रों में इनके वर्णन का साथ निकल ही जाता है )
किसी भी समारोह में, उपहार देने में भी अपने को परितिष्ठ दिखाने के लिए कीमती उपहार देने का प्रचलन है,तो यह गरीब लोग जो कीमती उपहार नहीं दे सकते उनका सम्मान नहीं हैं, यह भी सच है अगर आपके सुख,समृधि है तो अनेकों रिश्तेदार बन जाते हैं, और अगर सुख समृधि छुट जाती है,तो यही रिश्तेदार आपको छोड़ कर चले जाते हैं, तो क्या सम्मान उनका है,जिनके पास सम्पन्नता है,या लक्ष्मी का सम्मान है ? इसी सन्दर्भ में जो बात मेरे मस्तिष्क में आ रही है, जो इस लेख से थोड़ा हट कर है,सच्चा मित्र वोही है,जो आपका संकट के समय साथ दे, अगर कोई भी धनी,सुख सम्पन्नता से शने:शने: दूर होकर निर्धन हो जाता है, और अगर कोई उसका साथ उस संकट में दे तो वही आपका सच्चा मित्र है |
यह धन सम्पदा और एकत्रित हो,और एकत्रित हो यह तो मिरगतृष्णा है, जिसका अंत कभी नहींहोता , सिकंदर ने सब कुछ जीत लिया,और उसके बाद उसने यही कहा था, मेरे ताबूत में से मेरे खुले हाथ बहार रखना, जिससे लोगों को यह संकेत मिले में खाली हाथ आया था और खाली हाथ जा रहा हूँ |
बस इतना ही बहुत है,जिससे परिवार को रोटी मिल जाए किसी के आगे हाथ ना फेलाना पड़े,और जो अथिति घर में आये वोह भी भूखा ना जाये |
बस इस लेख का अंत साईं नाथ से की जाने वाली प्रार्थना से कर रहा हूँ |
साईं इतना दीजिये जिसमे कुटुंब समाय |
में भी भूखा ना रहूँ और भी भूखा ना जाये ||
रविवार, अक्टूबर 18, 2009
बुराई से गृहणा करो बुरे से नहीं |
कल भैयादूज का पावन अवसर है, यानि कि बहिन द्वारा भाई की सुख कामना करने का, और भाई के द्वारा बहिन की रक्षा का बचन देना, वैसे तो यह पर्व हर वर्ष आता है, और परतेक वर्ष बहिन पूजा की थाली सजा कर भाई की सुख कामना करती है, पूजा की थाली में होता है, रोली,चावल,नारियल,दीप और मिठाई, बहिन का थाली में नारियल रखने का अभिप्राय होता है,अगर भाई पर संकट आये तो यह संकट नारियल पर आये और भाई सुरक्षित रहे,और भाई हर परिस्थिति में बहिन की रक्षा करे, भाई का इस पर्व पर विवाहित बहिन के घर जाने का कारण है, भाई को बहिन की स्थिति का आभास हो जाये |
आप लोग सोचने लगे होंगे की शीर्षक तो है, बुराई से गृहणा करो बुराई से नहीं, परन्तु लिखना प्रारंभ कर दिया भाईदूज के बारे में, इसका कारण यह है, हमारी बेटी हमारी एकलौती संतान है, वैसे तो उसके रिश्तेदारी में सात भाई है, पर हर समय तो वोह उसके साथ नहीं रह सकते हैं, उसके मन में भाई के लिए कसक सदा बनी रहती थी |
उसका हमारी कोलोनी में रहने वाला वोह लड़का जो कि मार पिटाई और हर समय उधम करने वाला, किस प्रकार उसका भाई बनावोह बता रहा हूँ , थी तो वोह गलतफेमी,हमारी बेटी हमारी कोलोनी से सड़क की ओर जा रही थी, और वोह लड़का बोल उठा "वाह", हमारी बेटी ने समझा वोह उसको कह रहा था, परन्तु वोह अपने भतीजे को कह रहा था,जो दही नहीं खाता उसके उस भतीजे ने उस दिन दही खाया था,इसलिए वोह अपने भतीजे को वाह कह रहा था, वैसे तो मुझे क्रोध नहीं आता और में स्थिति को समझने की कोशिश करता हूँ,फिर उसके बाद ही पर्तिक्रिया देता हूँ,पर हूँ तो इंसान ही कोई भगवान नहीं, और साथ में पिता भी तो इंसान होने के नाते में आवेशित हो गया, और खड़ा हो गया सड़क के कोने पर उससे बात करने के लिए,किसी ने उसको यह खबर दे दी कि में उसकी पर्तीक्षा कर रहा हूँ,वोह भय के कारण घर से ही नहीं निकला, और संध्या समय वोह अपनी कोलोनी में रहने वाली रिश्तेदारी में लगनी वाली बहिन के साथ हमारे घर आया,और मेरी पत्नी ने उसके सामने हमारी बेटी से उसके सामने राखी बंधवा कर बहिन बनाने की पेशकश की,और वोह सहर्ष मान गया, और उसने हमारे पुत्र और हमारी बेटीके भाई का स्थान ले लिया, और उसने हमारे पुत्र और उसका भाई बन कर अपनी बहिन की रक्षा का प्रमाण भी दिया, हमारी बेटी युवा अवस्था को प्राप्त कर चुकी थी, एक हमारी कोलोनी का दूसरा लड़का उसको परेशान करता था, और हमारे मूह्बोले पुत्र और हमारी बेटी के मूह्बोले भाई ने यह सब देखा,था तो वोह उदंडथा ही, और उसके पुलिस के इंसपेक्टर इत्यादी से अच्छे सम्बन्ध थे, उसने उस परेशान करने वाले के लड़के के सामने पुलिस इंसपेक्टर को ला खड़ा कर दिया,और उस परेशान करने वाले लड़के ने उसके बाद हमारी बेटी को कभी तंग नहीं किया, अब तो हमारे मूह्बोले पुत्र का विवाह हो चुका है,और उसके दो पुत्र भी हैं, और हम लोगों को उस हमारे पुत्र और उसकी बहु के कारण सदा उसके माँ,बाप होने का एहसास होता है, और हमारी बेटी का उसके साथ राखी और भाईदूज का पावन त्यौहार मनाती है |
क्योंकि हमारा पुत्र शरारती तत्व था, तो उसके मित्र भी शरारती होंगे यह तो जाहिर सी बात है, उसका एक मित्र था जिस का काम दिन रात आवारागर्दी में जाता था, मैंने उसको समझाया कि "तुम दिन,रात आवारागर्दी करते हो कोई काम क्यों नहीं करते,"
बेचारा पड़ा लिखा तो कम था,कभी दिल्ली में बस ड्राईवर था, उसने बस ड्राईवर की नौकरी क्यों छोड़ी वोह तो मुझे ज्ञात नहीं, परन्तु उस पर मेरी बात का प्रभाव पड़ा और मैंने एक दिन देखा वोह डेयरी से बहुत अधिक मात्रा में,दूध खरीद रहा है, मुझे कुछ समझ में नहीं आया, जब मैंने हमारे घर से बहार निकलने वाली सड़क पर हलवाई की दूकान के नीचे कड़ाही पर रखा गरम होता दूध देखा और बहुत से कुल्हर, छुआरे देखे तो समझ में आया,कि इसने ग्राहकों को गरम दूध पिलाने का कार्य प्रारंभ कर दिया था, उसने यह नेक काम प्रारंभ कर दिया था,परन्तु एक दिन मुझे खबर मिली कि उसको किसी ने गोली मार दी,और मुझे दुःख हुआ जब यह लड़का अच्छा काम करने लगा, उसके बाद हो गया गोली का शिकार |
इन घटनाओ के बाद दिमाग में यही आता है, बुराई से घृणा करो बुराई से नहीं, और इस कड़ी की अंतिम घटना बता रहा हूँ ,
हमारी कामवाली की बेटी कभी,कभी अपनी माँ की अनुप्स्थ्ती में हमारे घर काम करने आ जाती है, वोह उन दिनों नवीं कक्षा में पड़ती थी,और उसको में गणित पड़ा दिया करता था, परन्तु उसे चोरी की गन्दी आदत थी,और एक दो बार मैंने उसे रंगे हाथो भी पकड़ा था, एक दिन जब मैंने उसे चोरी करते हुए पकड़ा तो मैंने उसे कहा,"अगर तुम्हारा काम कम पैसों के कारण नहीं चलता तो तुम कोई ऐसा कोर्स क्यों नहीं कर लेती,जिससे तुम्हे कुछ आमदनी हो जाए",और मेरी बात का उस पर ऐसा प्रभाव पड़ा, उसने सिलाई का कोर्स कर लिया,आज किसी दूसरे घर में काम कर रही है,और आवयश्कता पड़ने पर हमारे घर भी काम करने आ जाती है,और अपनी आवयश्कता के अनुसार लेडीज कपड़े सिल कर अपना खर्चा निकाल रही है |
बुराई बुरी होती है,ना की बुरे लोग को अवसर तो दीजिये बुराई को समाप्त करने का |
सब भाई,बहिनों को इस पवित्र उत्सव पर बहुत,बहुत शुभकानाएं |
आप लोग सोचने लगे होंगे की शीर्षक तो है, बुराई से गृहणा करो बुराई से नहीं, परन्तु लिखना प्रारंभ कर दिया भाईदूज के बारे में, इसका कारण यह है, हमारी बेटी हमारी एकलौती संतान है, वैसे तो उसके रिश्तेदारी में सात भाई है, पर हर समय तो वोह उसके साथ नहीं रह सकते हैं, उसके मन में भाई के लिए कसक सदा बनी रहती थी |
उसका हमारी कोलोनी में रहने वाला वोह लड़का जो कि मार पिटाई और हर समय उधम करने वाला, किस प्रकार उसका भाई बनावोह बता रहा हूँ , थी तो वोह गलतफेमी,हमारी बेटी हमारी कोलोनी से सड़क की ओर जा रही थी, और वोह लड़का बोल उठा "वाह", हमारी बेटी ने समझा वोह उसको कह रहा था, परन्तु वोह अपने भतीजे को कह रहा था,जो दही नहीं खाता उसके उस भतीजे ने उस दिन दही खाया था,इसलिए वोह अपने भतीजे को वाह कह रहा था, वैसे तो मुझे क्रोध नहीं आता और में स्थिति को समझने की कोशिश करता हूँ,फिर उसके बाद ही पर्तिक्रिया देता हूँ,पर हूँ तो इंसान ही कोई भगवान नहीं, और साथ में पिता भी तो इंसान होने के नाते में आवेशित हो गया, और खड़ा हो गया सड़क के कोने पर उससे बात करने के लिए,किसी ने उसको यह खबर दे दी कि में उसकी पर्तीक्षा कर रहा हूँ,वोह भय के कारण घर से ही नहीं निकला, और संध्या समय वोह अपनी कोलोनी में रहने वाली रिश्तेदारी में लगनी वाली बहिन के साथ हमारे घर आया,और मेरी पत्नी ने उसके सामने हमारी बेटी से उसके सामने राखी बंधवा कर बहिन बनाने की पेशकश की,और वोह सहर्ष मान गया, और उसने हमारे पुत्र और हमारी बेटीके भाई का स्थान ले लिया, और उसने हमारे पुत्र और उसका भाई बन कर अपनी बहिन की रक्षा का प्रमाण भी दिया, हमारी बेटी युवा अवस्था को प्राप्त कर चुकी थी, एक हमारी कोलोनी का दूसरा लड़का उसको परेशान करता था, और हमारे मूह्बोले पुत्र और हमारी बेटी के मूह्बोले भाई ने यह सब देखा,था तो वोह उदंडथा ही, और उसके पुलिस के इंसपेक्टर इत्यादी से अच्छे सम्बन्ध थे, उसने उस परेशान करने वाले के लड़के के सामने पुलिस इंसपेक्टर को ला खड़ा कर दिया,और उस परेशान करने वाले लड़के ने उसके बाद हमारी बेटी को कभी तंग नहीं किया, अब तो हमारे मूह्बोले पुत्र का विवाह हो चुका है,और उसके दो पुत्र भी हैं, और हम लोगों को उस हमारे पुत्र और उसकी बहु के कारण सदा उसके माँ,बाप होने का एहसास होता है, और हमारी बेटी का उसके साथ राखी और भाईदूज का पावन त्यौहार मनाती है |
क्योंकि हमारा पुत्र शरारती तत्व था, तो उसके मित्र भी शरारती होंगे यह तो जाहिर सी बात है, उसका एक मित्र था जिस का काम दिन रात आवारागर्दी में जाता था, मैंने उसको समझाया कि "तुम दिन,रात आवारागर्दी करते हो कोई काम क्यों नहीं करते,"
बेचारा पड़ा लिखा तो कम था,कभी दिल्ली में बस ड्राईवर था, उसने बस ड्राईवर की नौकरी क्यों छोड़ी वोह तो मुझे ज्ञात नहीं, परन्तु उस पर मेरी बात का प्रभाव पड़ा और मैंने एक दिन देखा वोह डेयरी से बहुत अधिक मात्रा में,दूध खरीद रहा है, मुझे कुछ समझ में नहीं आया, जब मैंने हमारे घर से बहार निकलने वाली सड़क पर हलवाई की दूकान के नीचे कड़ाही पर रखा गरम होता दूध देखा और बहुत से कुल्हर, छुआरे देखे तो समझ में आया,कि इसने ग्राहकों को गरम दूध पिलाने का कार्य प्रारंभ कर दिया था, उसने यह नेक काम प्रारंभ कर दिया था,परन्तु एक दिन मुझे खबर मिली कि उसको किसी ने गोली मार दी,और मुझे दुःख हुआ जब यह लड़का अच्छा काम करने लगा, उसके बाद हो गया गोली का शिकार |
इन घटनाओ के बाद दिमाग में यही आता है, बुराई से घृणा करो बुराई से नहीं, और इस कड़ी की अंतिम घटना बता रहा हूँ ,
हमारी कामवाली की बेटी कभी,कभी अपनी माँ की अनुप्स्थ्ती में हमारे घर काम करने आ जाती है, वोह उन दिनों नवीं कक्षा में पड़ती थी,और उसको में गणित पड़ा दिया करता था, परन्तु उसे चोरी की गन्दी आदत थी,और एक दो बार मैंने उसे रंगे हाथो भी पकड़ा था, एक दिन जब मैंने उसे चोरी करते हुए पकड़ा तो मैंने उसे कहा,"अगर तुम्हारा काम कम पैसों के कारण नहीं चलता तो तुम कोई ऐसा कोर्स क्यों नहीं कर लेती,जिससे तुम्हे कुछ आमदनी हो जाए",और मेरी बात का उस पर ऐसा प्रभाव पड़ा, उसने सिलाई का कोर्स कर लिया,आज किसी दूसरे घर में काम कर रही है,और आवयश्कता पड़ने पर हमारे घर भी काम करने आ जाती है,और अपनी आवयश्कता के अनुसार लेडीज कपड़े सिल कर अपना खर्चा निकाल रही है |
बुराई बुरी होती है,ना की बुरे लोग को अवसर तो दीजिये बुराई को समाप्त करने का |
सब भाई,बहिनों को इस पवित्र उत्सव पर बहुत,बहुत शुभकानाएं |
शनिवार, अक्टूबर 17, 2009
मौसम,,सामाजिकता की अनेकता में एकता के प्रतीक हमारे भारत में झगड़े क्यों ?
आज दिवाली का पर्व है,और इस दीपावली के पावन अवसर में,मुझे लग रहा है, कि अभी दिवाली का पर्व समाप्त होगा तो कुछ समय के अन्तराल पर आ जायेगा, इसाईओं का क्रिसमस का त्यौहार, अभी,अभी तो नवरात्रे और ईद, और विजयदशमी के त्यौहार समाप्त हुए हैं, और फिर आएगा नव वर्ष| हिन्दुओं के त्यौहार होली,दिवाली,विजयदशमी, इत्यादि के साथ अनेकता में एकता समेटे हुए,यहाँ पर अनेकों संप्रदाय,हिन्दू, मुसलमान,सिख और इसाई हैं,सब मिल जुल कर हर्षौल्लास और उत्साह के साथ त्यौहार मानते हैं, फिर बाद में आपस वैमन्यस्य क्यों बड़ता है?
सन १९८४ में जब हमारी पुर्ब प्रधानमंत्री श्रीमती इन्द्रा गाँधी को, उनके सिख गार्डों ने गोलियों से भून दिया, और प्रारंभ हो गया हिन्दू,सिखों के बीच में कत्ले आम, क्यों हम भूल गये थे, सिखों तो हिन्दुओं से ही बने हैं, गुरु गोविन्दसिंह ने उस समय के बर्बर मुस्लिम शासको से लोहा लेने के लिए ही तो सिख बनाये थे, उन्ही के कारण ही तो बने थे पंज प्यारे, गुरु गोविन्दसिंह जी ने, अपना शिष्य बनाने के लिए, द्रीर प्र्त्य्ग लोगों का चुनाव करने के लिए , एक इन्सान कोबंद कमरे में बुलाया और एक बकरा काट दिया, बहार लोगों ने देखा खून बह रहा है, इस प्रकार गुरु गोविन्दसिंह जी ने एक,एक कर के चार और लोगों को बुलाया और यही बकरा काटने का क्रम करते रहे, और उस समय के क्रूर शासक ओरोंग्जेब के विरूद्व उन पंज प्यरो को, सिखों के पॉँच ककारों,कछ,केश,कड़ा,कृपाण और पग से सुशोभित किया था, और इनका कारण था अगर तलवार या किसी अस्त्र के साथ, सर पर प्रहार किया जाये तो पग और केश उस अस्त्र के कारण सुरक्षा प्रदान हो,अगर लड़ने के लिए कोई हथियार ना हो,तो कड़े के द्वारा प्रहार हो सके, गुरुगोविंदसिंह जी ने, निडर और साहसी लोगों का चुनाव किया और उनको धारण कराई यह सैनिक वेश्वूषा, और इस प्रकार गुरुगोविंदसिंह जी के और भी अनुयायी बने और हुआ सिख धर्म,परन्तु सन १९८४ में कुछ राजनीती की रोटी सेकने के कारण हुआ,सिख हिन्दुओं के बीच कत्ले आम, इन लोगों ने भोली,भाले नासमझ लोगों को बरगला लिया,और यह भोले,भाले लोग यह नासमझी करने लगे |
यही हमारा देश भारत ही तो है, जिसमे हिन्दुओं के मंदिरों के घंटों के साथ आरती, मस्जिद में कुरान की अजान और एक साथ सुनाई देते हैं, लेकिन विदेशी ताकते अपने ही देश की भोली,भाली जनता के नौजवानों को जिहाद के नाम बरगला कर आतंकवाद को जन्म देती हैं, कहाँ लिखा है कुरान में कि धर्म के नाम पर आतंकवाद फेलाया जाये, और मुंबई के आतंकवाद जैसी घटना हो ?, ईद के दिन तो हिन्दू,मुस्लमान गले मिलते हुए देखे जाते हैं,फिर धर्म के नाम पर आतंकवाद क्यों? धरती का स्वर्ग कहलाने वाली कश्मीर की धरती आतंकवाद का नरक क्यों बन गया था?
अभी कुछ दिनों के बाद संध्या के समय क्रिसमस के समय हमारे ही देश में,क्रिसमस करोल गूंजने लगेंगे, बिभीन्न संप्रदाय की अनेकता में एकता तो हमारे ही देश में मिलती है |
दिवाली का अवसर गुजरातियों के लिए नया साल लेकर आता है, और हमारे देश भारत में, अनेकों प्रान्त हैं, परतेक प्रान्त की अलग,अलग परम्परा अलग,अलग बोली,अलग,अलग बेश्बूषा है, नवरातों में,गुजरात का गरबा, गणपति का महाराष्ट्र का प्रसिद्ध गणपति का त्यौहार, केरल का ओणम, पंजाब की लोहरी, बिहार का छट अनेकता में एकता लिए हुए इस हमारे देश में ही तो है, फिर आपस में सदभावना के स्थान पर यह प्रानतीय झगड़े क्यों? यह प्रान्त हमारा है,या वोह प्रान्त हमारा है |
हमारा यह भारतवर्ष,मस्तक पर हिमालय पर्वत का मुकुट लिए और तीन और से जिसके सागर चरण धोता है, एक ही मौसम में अलग,अलग प्रकार के मौसम प्रदान करता है, गर्मी में अगर सर्दी का आनद लेना हो तो चले जाइये पहाडो में,सर्दी में गर्मी का आनद लेना हो तो चले जायिए, इस देश के दक्षिणो शेत्रो में,सम मौसम का आनद लेना चाहते हैं,तो चले जाईए समुद्रवर्ती शेत्रो में, और वर्षा का अनद लेना चाहते हैं,तो चले जाइये असम के चिरापुंजी शेत्र में |
जब हमारा देश, सांस्कृतिक,सामाजिक, और मौसम की अनेकता में एकता है, तो हम सब लोग इन वस्तुओं से अनेकता में एकता का सबक क्यों नहीं लेते ?
में इस प्रार्थना के साथ अपने इस लेख को विराम देता हूँ, सब के घरों में,धन लक्ष्मी,ज्ञान लक्ष्मी,वैभव लक्ष्मी का वास हो, दीपावली के दीयों से सब के घर में तिमिर का नाश हों, दीयों से परम्परानुसार दिए जलते रहे, इस दिन श्री रामचंद्र जी, असुरों का संघार कर के अयोध्या वापिस लौटे थे,और लोगों ने दीपो को परज्वालित करके उनका स्वागत किया था,और रामराज्य की स्थापना का प्रारंभ हुआ था, जब आपस में कोई वैमनस्य नहीं था, ना कोई संप्रादियक झगड़े, ना कोई आतंकवाद, ऐसे ही समाज की स्थापना हो, लोगों के हिर्दय में अंधकार के स्थान पर प्रकाश हो |
तमसो माँ ज्योतिर्गमय
असतो माँ सद्गमय
सन १९८४ में जब हमारी पुर्ब प्रधानमंत्री श्रीमती इन्द्रा गाँधी को, उनके सिख गार्डों ने गोलियों से भून दिया, और प्रारंभ हो गया हिन्दू,सिखों के बीच में कत्ले आम, क्यों हम भूल गये थे, सिखों तो हिन्दुओं से ही बने हैं, गुरु गोविन्दसिंह ने उस समय के बर्बर मुस्लिम शासको से लोहा लेने के लिए ही तो सिख बनाये थे, उन्ही के कारण ही तो बने थे पंज प्यारे, गुरु गोविन्दसिंह जी ने, अपना शिष्य बनाने के लिए, द्रीर प्र्त्य्ग लोगों का चुनाव करने के लिए , एक इन्सान कोबंद कमरे में बुलाया और एक बकरा काट दिया, बहार लोगों ने देखा खून बह रहा है, इस प्रकार गुरु गोविन्दसिंह जी ने एक,एक कर के चार और लोगों को बुलाया और यही बकरा काटने का क्रम करते रहे, और उस समय के क्रूर शासक ओरोंग्जेब के विरूद्व उन पंज प्यरो को, सिखों के पॉँच ककारों,कछ,केश,कड़ा,कृपाण और पग से सुशोभित किया था, और इनका कारण था अगर तलवार या किसी अस्त्र के साथ, सर पर प्रहार किया जाये तो पग और केश उस अस्त्र के कारण सुरक्षा प्रदान हो,अगर लड़ने के लिए कोई हथियार ना हो,तो कड़े के द्वारा प्रहार हो सके, गुरुगोविंदसिंह जी ने, निडर और साहसी लोगों का चुनाव किया और उनको धारण कराई यह सैनिक वेश्वूषा, और इस प्रकार गुरुगोविंदसिंह जी के और भी अनुयायी बने और हुआ सिख धर्म,परन्तु सन १९८४ में कुछ राजनीती की रोटी सेकने के कारण हुआ,सिख हिन्दुओं के बीच कत्ले आम, इन लोगों ने भोली,भाले नासमझ लोगों को बरगला लिया,और यह भोले,भाले लोग यह नासमझी करने लगे |
यही हमारा देश भारत ही तो है, जिसमे हिन्दुओं के मंदिरों के घंटों के साथ आरती, मस्जिद में कुरान की अजान और एक साथ सुनाई देते हैं, लेकिन विदेशी ताकते अपने ही देश की भोली,भाली जनता के नौजवानों को जिहाद के नाम बरगला कर आतंकवाद को जन्म देती हैं, कहाँ लिखा है कुरान में कि धर्म के नाम पर आतंकवाद फेलाया जाये, और मुंबई के आतंकवाद जैसी घटना हो ?, ईद के दिन तो हिन्दू,मुस्लमान गले मिलते हुए देखे जाते हैं,फिर धर्म के नाम पर आतंकवाद क्यों? धरती का स्वर्ग कहलाने वाली कश्मीर की धरती आतंकवाद का नरक क्यों बन गया था?
अभी कुछ दिनों के बाद संध्या के समय क्रिसमस के समय हमारे ही देश में,क्रिसमस करोल गूंजने लगेंगे, बिभीन्न संप्रदाय की अनेकता में एकता तो हमारे ही देश में मिलती है |
दिवाली का अवसर गुजरातियों के लिए नया साल लेकर आता है, और हमारे देश भारत में, अनेकों प्रान्त हैं, परतेक प्रान्त की अलग,अलग परम्परा अलग,अलग बोली,अलग,अलग बेश्बूषा है, नवरातों में,गुजरात का गरबा, गणपति का महाराष्ट्र का प्रसिद्ध गणपति का त्यौहार, केरल का ओणम, पंजाब की लोहरी, बिहार का छट अनेकता में एकता लिए हुए इस हमारे देश में ही तो है, फिर आपस में सदभावना के स्थान पर यह प्रानतीय झगड़े क्यों? यह प्रान्त हमारा है,या वोह प्रान्त हमारा है |
हमारा यह भारतवर्ष,मस्तक पर हिमालय पर्वत का मुकुट लिए और तीन और से जिसके सागर चरण धोता है, एक ही मौसम में अलग,अलग प्रकार के मौसम प्रदान करता है, गर्मी में अगर सर्दी का आनद लेना हो तो चले जाइये पहाडो में,सर्दी में गर्मी का आनद लेना हो तो चले जायिए, इस देश के दक्षिणो शेत्रो में,सम मौसम का आनद लेना चाहते हैं,तो चले जाईए समुद्रवर्ती शेत्रो में, और वर्षा का अनद लेना चाहते हैं,तो चले जाइये असम के चिरापुंजी शेत्र में |
जब हमारा देश, सांस्कृतिक,सामाजिक, और मौसम की अनेकता में एकता है, तो हम सब लोग इन वस्तुओं से अनेकता में एकता का सबक क्यों नहीं लेते ?
में इस प्रार्थना के साथ अपने इस लेख को विराम देता हूँ, सब के घरों में,धन लक्ष्मी,ज्ञान लक्ष्मी,वैभव लक्ष्मी का वास हो, दीपावली के दीयों से सब के घर में तिमिर का नाश हों, दीयों से परम्परानुसार दिए जलते रहे, इस दिन श्री रामचंद्र जी, असुरों का संघार कर के अयोध्या वापिस लौटे थे,और लोगों ने दीपो को परज्वालित करके उनका स्वागत किया था,और रामराज्य की स्थापना का प्रारंभ हुआ था, जब आपस में कोई वैमनस्य नहीं था, ना कोई संप्रादियक झगड़े, ना कोई आतंकवाद, ऐसे ही समाज की स्थापना हो, लोगों के हिर्दय में अंधकार के स्थान पर प्रकाश हो |
तमसो माँ ज्योतिर्गमय
असतो माँ सद्गमय
सोमवार, अक्टूबर 12, 2009
नए गेजेट्स से दूरियां तो कम हुई हैं,परन्तु आत्मिक बड दूरियां गयें
बहुत बार मन में विचार आता है, कि आव्यशकतायों के कारण नए,नए गेजेट्स का आविष्कार हुआ, और इन्सान को बहुत प्रकार की सुविधाएँ मिल गयीं, आज मोबाइल हैं, कंप्यूटर, है, लेप टॉप है, इन्टरनेट हैं, और भी अनेकों प्रकार के उपकरण है, परन्तु वोह वसुधेव कुटुम्बकम कहाँ है? जीवन की गति इतनी बड़ गई है, हर इंसान भागता हुआ सा प्रतीत होता है, बहुत से महानगरों जैसे मुंबई मैं तो आजीविका कमाने के लिए, बहुत,बहुत दूर जाना पड़ता है, इस कारण वहाँ के आम लोगों का आपस मैं मेल,मिलाप तो यदा कदा ही हो पाता हैं,जैसे कोई सामाजिक समारोह हो या सार्वजानिक अवकाश हो, वहाँ तो एक प्रकार की विवशता सी हो गई है, मैं इन उपकरणों के विरूद्व नहीं हूँ, बस यह कहना चाहता हूँ, इन उपकरणों का प्रयोग करते हुए अगर विवशता ना हो, उपकरणों के प्रयोगके साथ अत्मिक दूरी मैं सामंज्यस्ता स्थापित करने का प्र्यतन करे,तो कितना सुंदर हो |
मेरे मस्तिष्क मैं,बचपन की वोह यादें,अभी ताजा हैं, उन दिनों विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे, हम बच्चो का प्रिय होता था,वोह बाइस्कोप वाला,जिसके ऊपर रिकॉर्ड बजता रहता था,और बहुत से झरोखे होते थे,जिनमे शीशे लगे होते थे,और उन शीशो के अन्दर झांक कर विभिन्न चित्र देखते थे, समय बिताने के लिए कभी अंतराक्षरी, कभी ताश का खेल,कितने आत्मीयता से भरे दिन होते थे,वोही रूठना,मानना, फिर मद्रियों द्वारा बन्दर,भालू इत्यादि का नाच, कहीं सर्कस,तो कहीं जादूगर द्वारा जादू के खेल दिखाना, हम सब बच्चे मिल जुल कर वोह देखते थे, किसी के जन्मदिन इत्यादि पर अपने हाथो द्वारा, ग्रीटिंग कार्ड बनाना,अगला कितनी खुशी से उस कार्ड को स्वीकार करता था|
फिर आया दूरदर्शन का युग, उस समय तो केवल राष्ट्रीय प्रसारण होता था,वोह भी सुबह,शाम सीमित समय में, तब तक तो मिलने,जुलने का सिलसिला चलता रहा, अब आया रामायण का प्रसारण सब लोग रामायण को देखने में व्यस्त रहते थे,दूरियां बड़ने का सिलसिला बड़ने लगा,और उसके बाद महाभारत, अब सुबह का समय तो दूरदर्शन को ही समर्पित हो गया, सुबह के समय यह कार्यकर्म तो चलते रहे,अब आए हमलोग, बुनियाद जैसे धारावाहिक शाम को, यह शाम के समय का मिलना,जुलना लील गया, और उसके बाद का स्थान लिया केबल दूरदर्शन का,उसमे सुबह,शाम अनेको प्रकार के कार्यक्रम इन्सान तो दूरदर्शन से चिपट कर ही रह गया, इसी कारण पश्चिम में इसको इडयट बॉक्स कहने लगे,और उन लोगों ने मिलना,जुलना और दूसरे कार्यक्रम में भाग लेना,प्रारम्भ किया |
उसके बाद आया मोबाइल का युग, सुभीधा तो हो गयी,कहीं से भी किसी को संदेश देने की, परन्तु उसके बाद तो यह हर समय कान से चिपट कर रहने लगा,और यांत्रिकता आ गयी,और बड़ गयी आत्मिक दूरी, फिर आया इस पर S.M.S करने की सुविधा, अब तो इंसान बात करने और S.M.S करने का कायल हो गया,विषेत: युवा वर्ग, और अ़ब है इन्टरनेट भी,यह तो अपने में दुनिया ही समेटे हुए हैं,और युवा वर्ग कई,कई घंटे इस पर व्यतीत कर देते हैं |
मेरा कहना यह है, सब उपकरणों को, अपनी रुचि के और आवश्यकता के अनुसार समय दें,पर उसके आदि ना होकर के, आपस में भी अत्मिक रिश्ता,बनायें और इस प्रकार से इन उपकरणों के उपयोग करने के साथ,आपस में समय दे कर अत्मिक रिश्तों और इन उपकरणों मे सामंजस्य रखें |
मेरे मस्तिष्क मैं,बचपन की वोह यादें,अभी ताजा हैं, उन दिनों विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे, हम बच्चो का प्रिय होता था,वोह बाइस्कोप वाला,जिसके ऊपर रिकॉर्ड बजता रहता था,और बहुत से झरोखे होते थे,जिनमे शीशे लगे होते थे,और उन शीशो के अन्दर झांक कर विभिन्न चित्र देखते थे, समय बिताने के लिए कभी अंतराक्षरी, कभी ताश का खेल,कितने आत्मीयता से भरे दिन होते थे,वोही रूठना,मानना, फिर मद्रियों द्वारा बन्दर,भालू इत्यादि का नाच, कहीं सर्कस,तो कहीं जादूगर द्वारा जादू के खेल दिखाना, हम सब बच्चे मिल जुल कर वोह देखते थे, किसी के जन्मदिन इत्यादि पर अपने हाथो द्वारा, ग्रीटिंग कार्ड बनाना,अगला कितनी खुशी से उस कार्ड को स्वीकार करता था|
फिर आया दूरदर्शन का युग, उस समय तो केवल राष्ट्रीय प्रसारण होता था,वोह भी सुबह,शाम सीमित समय में, तब तक तो मिलने,जुलने का सिलसिला चलता रहा, अब आया रामायण का प्रसारण सब लोग रामायण को देखने में व्यस्त रहते थे,दूरियां बड़ने का सिलसिला बड़ने लगा,और उसके बाद महाभारत, अब सुबह का समय तो दूरदर्शन को ही समर्पित हो गया, सुबह के समय यह कार्यकर्म तो चलते रहे,अब आए हमलोग, बुनियाद जैसे धारावाहिक शाम को, यह शाम के समय का मिलना,जुलना लील गया, और उसके बाद का स्थान लिया केबल दूरदर्शन का,उसमे सुबह,शाम अनेको प्रकार के कार्यक्रम इन्सान तो दूरदर्शन से चिपट कर ही रह गया, इसी कारण पश्चिम में इसको इडयट बॉक्स कहने लगे,और उन लोगों ने मिलना,जुलना और दूसरे कार्यक्रम में भाग लेना,प्रारम्भ किया |
उसके बाद आया मोबाइल का युग, सुभीधा तो हो गयी,कहीं से भी किसी को संदेश देने की, परन्तु उसके बाद तो यह हर समय कान से चिपट कर रहने लगा,और यांत्रिकता आ गयी,और बड़ गयी आत्मिक दूरी, फिर आया इस पर S.M.S करने की सुविधा, अब तो इंसान बात करने और S.M.S करने का कायल हो गया,विषेत: युवा वर्ग, और अ़ब है इन्टरनेट भी,यह तो अपने में दुनिया ही समेटे हुए हैं,और युवा वर्ग कई,कई घंटे इस पर व्यतीत कर देते हैं |
मेरा कहना यह है, सब उपकरणों को, अपनी रुचि के और आवश्यकता के अनुसार समय दें,पर उसके आदि ना होकर के, आपस में भी अत्मिक रिश्ता,बनायें और इस प्रकार से इन उपकरणों के उपयोग करने के साथ,आपस में समय दे कर अत्मिक रिश्तों और इन उपकरणों मे सामंजस्य रखें |
रविवार, अक्टूबर 11, 2009
मेरा सच का सामना |
सच का सामना धारावाहिक तो समाप्त हो चुका है,परन्तु मैं भी सच का सामना करना चाहता हूँ |
१) सच बोलने का साहस ना कर पाना, बहुत वर्षो पहले मैं, गुटके का सेवन करता था, जो कि मेरी पत्नी को पसंद नहीं था, गुटका खाता था,तो मुँह से गुटके की गंध तो आती थी, जिससे पत्नी को पता चल जाता था,की मैंने गुटके का सेवन किया है, पर जब मुझसे वोह कहती थी,गुटका खाया है,तो मैं झगड़े से बचने के कारण कह देता था,नहीं खाया, जब गुटके कारण मेरे दो दांत टूट गये तब से मैंने गुटका छोड़ दिया |
२) वैसे तो मैं किसी भी इन्सान जिसको मेरी सहायता की आवयश्कता है,तो अपने को कष्ट दे कर के उसकी सहायता करने को बड़े मनोयोग से तत्पर रहता हूँ, परन्तु अगर मुझे शारीरिक रूप से किसी की सहायता करने की आवश्यकता पड़े, जैसे किसी का सर दवाना,या पैर दवाना,पर उतने मनोयोग से सहायता नहीं कर पता, उस समय मुझे भी किसी भी चीज का सहारा लेना पड़ता है,जैसे पैर दवाते हुए या सर दवाते हुए दूरदर्शन देख्नना, अगर यह सम्भव नहीं होता है, उस समय शारीरिक रूप से सहयता तो करता हूँ,पर उतने मनोयोग से नहीं |
शनिवार, अक्टूबर 10, 2009
बच्चो आज तुम्हे तीन प्रकार के आविष्कार बताता हूँ |
१) पहले वोह आविष्कार जिसके वारे मैं बस सोचा गया और हो गया अविष्कार |
इस श्रेणी मैं सबसे पहले नाम लूँगा यूनान के वैज्ञानिक, आर्कमेंडिस का,वोह नहाने के लिए टब मैं घुसे,और उनके घुसने के साथ पानी निकला और वोह बिना वस्त्र पहने, यूनान की सड़कों पर यूरेका,यूरेका कहते हुए भागने लगे, मतलब की मुझे मिल गया |
इससे ज्ञात हुआ, कोई भी द्रव, उतने ही आयतन का द्रव विस्थापित करता है, जो भी वस्तु उसमे डाली गयी है |
दूसरा नाम है न्यूटन का जिनके सर पर सेव गिरा तो वोह सोचने लगे सेव ऊपर क्यो नहीं गया,और नीचे क्यों गिरा
हो गया न्यूटन के पहला गुरुत्वआकर्षण के नियम का आविष्कार प्रतेक वस्तु, धरती के गुरत्व आकर्षण का आविष्कार |
इसी प्रकार उन्होंने चलती हुई और रुकी हुई वस्तुओं को देखा,तो हो गया न्यूटन के दूसरे नियम का आविष्कार जो वस्तु चलती है तो चलती रहती है,और जो वस्तु रुकी है रुकी रहती है |
और इसी प्रकार न्यूटन के तीसरे नियम का आविष्कार हुआ, प्रतेक वस्तु क्रिया करने पर पर्तिक्रिया करती है |
२) दूसरे प्रकार के वोह आविष्कार जो की सयोंग से हो गये |
पता है,बेनजिन के फार्मूले का रिंग कैसे बना,एक वेगानिक थे,उन्होंने बेनजीन का आविष्कार तो कर लिया और वोह उसका फार्मूला नहीं दे पा रहे थे , और वोह सो गए उन्होंने सपने मैं एक सांप को अपनी पूँछ मुँह मैं दवाए देखा तो उन्होंने बेनजीन के रिंग का आविष्कार कर लिया |
अब बताता हूँ दूरबीन का आविष्कार कैसे हुआ, एक चश्मेबनाने वाले एक लेंस के आगे दूसरा लेंस आ गया,और उनको दूर का गिरजाघर पास मैं दिखाई देने लगा हो गया दूरबीन का आविष्कार |
अब बताता हूँ एक्स रे का आविष्कार कैसे हुआ, एक वेगय्निक फिसिक्स का प्रयोग कर रहे थे, उनकी शरीर के अन्दर के भाग का दूर रखी प्लेट पर आ गई, उनको उन किरणों का नाम कुछ नहीं सुझाई दिया बस उन किरणों का नाम उन्होंने, एक्स रे रख दिया |
३) अब बताता हूँ,कुछ पहले आविष्कार जिन पर दूसरे लोगो ने प्रतिबन्ध लगा दिए |
इस शेत्र मैं सबसे पहले नाम आता है,इन्सटीन का उन्होंने, न्यूटन के दूसरे नियम पर पर्तिबंध लगया,जो वस्तु चल रही है, वोह चलती रहेगी,या जो वस्तु रुकी हुई है,रुकी रहेगी जब तक इन पर बल ना लगाया
जाए |
इन्सटीन ने ही, न्यूटन के तीसरे नियम,पर प्रतिबन्ध लगाया, हर क्रिया की बराबर और विपरीत दिशा मैं,पर्तिक्रिया होती है |
इस श्रेणी मैं सबसे पहले नाम लूँगा यूनान के वैज्ञानिक, आर्कमेंडिस का,वोह नहाने के लिए टब मैं घुसे,और उनके घुसने के साथ पानी निकला और वोह बिना वस्त्र पहने, यूनान की सड़कों पर यूरेका,यूरेका कहते हुए भागने लगे, मतलब की मुझे मिल गया |
इससे ज्ञात हुआ, कोई भी द्रव, उतने ही आयतन का द्रव विस्थापित करता है, जो भी वस्तु उसमे डाली गयी है |
दूसरा नाम है न्यूटन का जिनके सर पर सेव गिरा तो वोह सोचने लगे सेव ऊपर क्यो नहीं गया,और नीचे क्यों गिरा
हो गया न्यूटन के पहला गुरुत्वआकर्षण के नियम का आविष्कार प्रतेक वस्तु, धरती के गुरत्व आकर्षण का आविष्कार |
इसी प्रकार उन्होंने चलती हुई और रुकी हुई वस्तुओं को देखा,तो हो गया न्यूटन के दूसरे नियम का आविष्कार जो वस्तु चलती है तो चलती रहती है,और जो वस्तु रुकी है रुकी रहती है |
और इसी प्रकार न्यूटन के तीसरे नियम का आविष्कार हुआ, प्रतेक वस्तु क्रिया करने पर पर्तिक्रिया करती है |
२) दूसरे प्रकार के वोह आविष्कार जो की सयोंग से हो गये |
पता है,बेनजिन के फार्मूले का रिंग कैसे बना,एक वेगानिक थे,उन्होंने बेनजीन का आविष्कार तो कर लिया और वोह उसका फार्मूला नहीं दे पा रहे थे , और वोह सो गए उन्होंने सपने मैं एक सांप को अपनी पूँछ मुँह मैं दवाए देखा तो उन्होंने बेनजीन के रिंग का आविष्कार कर लिया |
अब बताता हूँ दूरबीन का आविष्कार कैसे हुआ, एक चश्मेबनाने वाले एक लेंस के आगे दूसरा लेंस आ गया,और उनको दूर का गिरजाघर पास मैं दिखाई देने लगा हो गया दूरबीन का आविष्कार |
अब बताता हूँ एक्स रे का आविष्कार कैसे हुआ, एक वेगय्निक फिसिक्स का प्रयोग कर रहे थे, उनकी शरीर के अन्दर के भाग का दूर रखी प्लेट पर आ गई, उनको उन किरणों का नाम कुछ नहीं सुझाई दिया बस उन किरणों का नाम उन्होंने, एक्स रे रख दिया |
३) अब बताता हूँ,कुछ पहले आविष्कार जिन पर दूसरे लोगो ने प्रतिबन्ध लगा दिए |
इस शेत्र मैं सबसे पहले नाम आता है,इन्सटीन का उन्होंने, न्यूटन के दूसरे नियम पर पर्तिबंध लगया,जो वस्तु चल रही है, वोह चलती रहेगी,या जो वस्तु रुकी हुई है,रुकी रहेगी जब तक इन पर बल ना लगाया
जाए |
इन्सटीन ने ही, न्यूटन के तीसरे नियम,पर प्रतिबन्ध लगाया, हर क्रिया की बराबर और विपरीत दिशा मैं,पर्तिक्रिया होती है |
शुक्रवार, अक्टूबर 09, 2009
मेरी पहेली हवाई यात्रा वोह भी विदेश की |
वैसे तो अब तक तो में,अपने काम के संदर्भ में, बहुत सी देशी,विदेशी हवाई यात्राएं कर चुका हूँ, जैसे अमरीका,कनाडा,जर्मनी इत्यादि,परन्तु पहली यात्रा थी,इंग्लैंड की और वोह भी ,हवाई यात्रा, इसके शुभारम्भ भी हमारे पिता जी के द्वारा ही होता है,
में उन दिनों मोदीनगर के मोदीपोन फैक्ट्री में,कार्यरत था, पिता जी के कस्टम और सेंट्रल एक्ससाइज़ में होने के कारण, उनका संपर्क पासपोर्ट अधिकारीयों से भी था, परिणाम स्वरुप उन्होंने मेरा पासपोर्ट,और मेरी पत्नी का पासपोर्ट मय हमारी बेटी का बनवाने की सोची,उन दिनों हमारी बेटी संभवत: दो,तीन साल की होगी,मैंने पिताजी से कहा "मेरा पासपोर्ट क्यों बनवा रहें हैं,मुझे कहीं जाना,आना तो कहीं नहीं है",परन्तु उन्होंने मेरी सुनी नहीं और ले आये पासपोर्ट बनाने के लिए फॉर्म, अब फॉर्म तो भरना ही था, और उसमें भी एक रोचक किस्सा हुआ, मैंने पिताजी से पुछा की, व्यवसाय वाले प्रश्न में क्या भरूं, उनका उत्तर था निल लिख दो,औरउसके बाद उन्होंने हम लोगों के पासपोर्ट के फॉर्म जमा करवा दिए गए |
कुछ दिनों के बाद पासपोर्ट के लिए पूछ ताछ के लिए अधिकारी आया,में तो बहुत असमंजस में,मैंने ना कोई चोरी की,ना डाका डाला या और कोई गुनाह नहीं किया तो यह पूछ ताछ क्यों? और उस समय वोह अधिकारी मेरा पासपोर्ट भी लेकर आया था और पूछने "लगा कहाँ काम करते हो?" मैंने तो बताना ही था कि,मोदीपोन में,फिर उसने मेरा पासपोर्ट सामने रख दिया,और उसमें व्यवसाय की स्थान पर निल लिखा हुआ था,कहने लगा इसमें तो व्यवसाय निल लिखा हुआ है, अब तो में पुन: शंका में की हुआ मेरा पासपोर्ट रद्द पर ऐसा नहीं हुआ,वोह अधिकारी मेरा पासपोर्ट मुझे दे कर के चला गया |
खैर समय बीतता गया, हम इंजिनियर लोगों को लालच तो होता ही है,जहाँ पर पैसे और अच्छी सुवधाएँ मिलेगीं हम लोग वहीँ चल देते हैं, अब तो जीवन का उतरार्ध आ गया,परन्तु उस समय तो जवान था, और ऐसे में, अच्छे पैसे और सुविधा का आकर्षण अधिक तो होता ही है, समय ने तो अपनी गति से चलना ही था, उस समय कनाडा की एक कम्पनी में तो नौकरी मिल गयी थी, और उसके साथ गुजरात की हीरा नगरी सूरत में,मोदीपोन से अच्छे पैसे और अच्छी सुविधा के साथ नौकरी मिल गयी थी, और में अपनी पत्नी,और पुत्री के साथ सूरत के लिए आजीविका कमाने के लिए चल पड़ा, और मेरे पासपोर्ट बनने के कुछ समय अन्तराल पर मेरी पत्नी का पासपोर्ट मय मेरी पुत्री के साथ भी बन कर आ चुका था |
सूरत में काम करते समय मेरा निजी व्यवसाइयों से भी समपर्क हो गया था, अब किसी व्यवसाई को अपने कारखाने के लिए मशीन खरीदनी थी, और मेरी कम्पनी मुझे अवकाश नहीं दे रही थी, आखिरकार मुझे तीन दिन का अवकाश मिल गया, अब मुझे करनी थी विदेश यात्रा और वोह भी हवाई,अभी तक तो में हवाई अड्डे से लोगों को लेने और छोड़ने ही गया था, और बचपन में तो हवाई जहाज को पास से देखा था, पर जब से पूरा होश सम्भाल चुका,तो हवाई अड्डे का प्रवेश,और निकास द्वार ही देखा था, सूरत से चला मुंबई की ओर साहर हवाई अड्डे की ओर रेलगाड़ी से, क्योंकि वोह पहली यात्रा थी इंग्लॅण्ड की,उसके बाद तो अनेकों बार जा चुका हूँ, वहाँ के कुछ अंग्रेज परिवार मेरे मित्र भी बन चुके हैं |
अब आप लोग हसेंगे मैंने सोचा इंग्लॅण्ड में तो सर्दी पड़ती है,इसलिए मैंने अपने लिए कम्बल ले लिया, जाना हैं,इंग्लॅण्ड और वोह भी ठंडा स्थान तो अपनी सुरक्षा करना तो उचित ही था ना?
वहाँ मुंबई में मुझे वोह व्यवसाई बही मिल गये, और मुझे हैरानी से देखते हुए बोले "कोई विदेश भी कम्बल ले जाता है?", और उस समय तो किसी से विदेश जाने के लिए किसी से राए लेना तो हमारी शान के विरूद्व था ना, चलो यहाँ तक तो सही अब उन्ही व्यवसाई से सुना वीसा के लिए इंग्लिश एम्बेसी में इंटरव्यू होगा,में मन में सोचने लगा भई विनय शर्मा यह कौन सी नयी मुसीबत, विदेश जाने के लिए बही इंटरव्यू, जैसे तैसे ब्रिटिश एम्बेसी के इंटरव्यू का समय आ गया, पासपोर्ट तो इंटरव्यू से पहेले वहीं जमा हो जाता है,खैर अब हमको इंटरव्यू तो देना ही था, उस ब्रिटिश अधिकारी ने बहुत से प्रश्न पूछे,परन्तु एक प्रश्न पुछा "आपने अपना यह पासपोर्ट सन १९८५ में क्यों बनवाया?" उसी समय मेरे मस्तिष्क की बत्ती जली,चूंकि मुझे कनाडा में नौकरी मिल तो गयी थी,बस किन्ही कारणों से वहाँ ज्वाइन नहीं किया था, सो हमने उत्तर दे दिया, "मुझे कनाडा में नौकरी मिल गयी थी,इसलिए मैंने उपरोक्त सन में पासपोर्ट बनवाया", अब उनको तो यह संदेह हो गया की यह तो इंग्लैंड में बस जायगा,मुझे क्या मालूम था इस उत्तर से लेने के देने पड़ जायेंगे,परिणामस्वरूप उन लोगों ने मेरे पासपोर्ट पर लिख दिया "Applied for", वोह व्यवसाई तो बहुत सी विदेश यात्राएं कर चुके थे, वोह पासपोर्ट के पुन: आवेदन के लिएकोई पीला फॉर्म लाये, उसको मैंने भरा फिर उस अंग्रेज अफसर ने मेरे पासपोर्ट पर इंग्लैंड के वीसा की मोहर लगाते हुए कहा,हम आपको छे महीने के लिए वीसा दे रहें हैं, पीला फॉर्म जमा करने के बाद इंटरव्यू में दिए गये उत्तर तो मुझे याद नहीं हैं,ऐसे प्रारंभ हुई मेरी विदेश यात्रा |
विदेश यात्रा का श्री गणेश तो हो ही चुका था, और उसके बाद मुझे भेजा गया अमरीकन एक्सप्रेस बैंक पैसा लेने के लिए,में फिर सोचने लगा की मेरा अमरीकन एक्सप्रेस बैंक में खाता तो है नहीं,फिर यह मुझे पैसा क्यों मिल रहा है, वहाँ से मैंने पैसा तो लिया और एक चीज नयी देख कर फिर असमंजस में, पैसा लेने के लिए मैंने जो फार्म भरा,उसके नीचे दूसरा फार्म लगा हुआ था,उस पर बही मेरे लिखे की कॉपी बिना कार्बन पेपर के बन गयी, उस समय मुझे कार्बन लेस पेपर के बारे में नहीं पता था,खैर अब में तीन हजार डॉलर लेकर निकला बैंक के बहार,और अब हमें जाना था इम्मीग्रेशन के लिए,वोह मेरे लिए नयी चीज, अब इम्मीग्रेशन के बाद आ ही गया नंबर हवाई जहाज में बैठने का, लेकिन उससे पहले अपना सामान तो रखना ही था,कन्वेर बेल्ट पर मैंने अपना सामान उस बेल्ट पर रखा और देखने लगा की मेरा सामान वापिस आयगा तो उठा लूँगा,पर यह क्या मेरा सामान तो वापिस आया ही नहीं, तब मेरे साथ जाने वाले वोह शख्स शायद मेरी मनोस्थिति को भांप गये थे,वोह वोले पहुँच गया सामान हवाई जहाज में, अब तो हवाई जहाज में प्रवेश करने का नंबर था, अब तो सिक्यूरिटी चेक का नम्बर था उस समय मेरी जेब में कुछ भारतीय सिक्के थे,सो वोह सिक्यूरिटी चेक करने वाला यन्त्र बोलने लगा,मैंने सोचा मर गये विनय भई अब तो यह लोग पकड़ के जेल में बंद करेंगे, परन्तु ऐसा नहीं हुआ,आखिरकार हम लोगों ने हवाई जहाज में प्रवेश कर लिया, वड़ा हवाई जहाज था, और में सोच रहा था, कि उड़ते हुए नीचे देखूँगा कि आकाश से धरती और धरती की वस्तुएं केसी दिखाई देती हैं, पर यह क्या मेरे को जो सीट मिली वोह बीच वाली कतार में थी, कुछ देर तो नीचे की वस्तुएं दिखाई दीं, फिर तो नीचे दिखाई दे रहे थे, बादल, मन तो कर रहा था,उचक,उचक के नीचे देखूं, पर यह ना कर सका,जब कुछ ना मिला तो सीट में लगे हुए बटन के बारे में जानकारी लेने लगा,एक बटन दबाया तो परिचालिका आ गयी अ़ब उससे पूछूँ तो क्या?
आखिर दस घंटे बाद पहुँच गए हम लोग इंगलैंड के हिथ्रो हवाई अड्डे, और वहाँ हवाई जहाज से उतर कर निकल कर बिना किसी बस में सवार हो कर निकल चुके, हवाई अड्डे के निकास द्वार से लन्दन शहर के लिए, वहाँ तो सामान्य जीवन ही गुजारा और तीसरे दिन निकल पड़े अपने भारत देश के लिए, आये तो थे भारत सेतो चले थे रात के समय में, और इंगलैंड से प्रस्थान किया भारत के लिए सुबह के समय,पहले हवाई जहाज बहुत ही धीरे,धीरे चल रहा था,मैंने सोचा हवाई जहाज ख़राब हो गया,फिर तो धीरे,धीरे चलते हुए,हवाई जहाज ने रफ्तार पकड़ और उड़ने लगा, नीचे बिल्डिंग इत्यादि दिख रहे थे,और उसके बाद हो गयाहवाई जहाज बादलों के ऊपर, अब परिचालिका आई और उसने ने पुछा लाल वाइन या सफ़ेद वाइन,मुझे वाइन के बारे में कुछ नहीं पता था, पहले लाल वाइन के लिए कहा, फिर उसने वोही प्रशन किया तब मैंने कहा,सफ़ेद वाइन और सिगरेट तो पीता था इसलिए बैठाया गया नॉन स्मोकिंग जोन मैं , कभी,कभी पार्टी इत्यादि में शराब का भी सेवन कर लेता था, शराब की तो आदत नहीं थी,अब तो सिगरेट भी छोड़ चुका हूँ, और निर्धारित समय पर हमारे हवाई जहाज ने जबभारत की धरती को छुआ,तो केवल एक बार जोर का झटका लगा, में सोचने लगा कि यह क्या हुआ?,कोई क्रेश लैंडिंग है क्या? अब तो विदेश यात्रा और हवाई यात्रा का अनुभव भी हो चुका है, ऐसी थी मेरी विदेश यात्रा वोह भी हवाई |
उसके बाद ही मैंने अपने देश में हवाई यात्रायें की हैं |
में उन दिनों मोदीनगर के मोदीपोन फैक्ट्री में,कार्यरत था, पिता जी के कस्टम और सेंट्रल एक्ससाइज़ में होने के कारण, उनका संपर्क पासपोर्ट अधिकारीयों से भी था, परिणाम स्वरुप उन्होंने मेरा पासपोर्ट,और मेरी पत्नी का पासपोर्ट मय हमारी बेटी का बनवाने की सोची,उन दिनों हमारी बेटी संभवत: दो,तीन साल की होगी,मैंने पिताजी से कहा "मेरा पासपोर्ट क्यों बनवा रहें हैं,मुझे कहीं जाना,आना तो कहीं नहीं है",परन्तु उन्होंने मेरी सुनी नहीं और ले आये पासपोर्ट बनाने के लिए फॉर्म, अब फॉर्म तो भरना ही था, और उसमें भी एक रोचक किस्सा हुआ, मैंने पिताजी से पुछा की, व्यवसाय वाले प्रश्न में क्या भरूं, उनका उत्तर था निल लिख दो,औरउसके बाद उन्होंने हम लोगों के पासपोर्ट के फॉर्म जमा करवा दिए गए |
कुछ दिनों के बाद पासपोर्ट के लिए पूछ ताछ के लिए अधिकारी आया,में तो बहुत असमंजस में,मैंने ना कोई चोरी की,ना डाका डाला या और कोई गुनाह नहीं किया तो यह पूछ ताछ क्यों? और उस समय वोह अधिकारी मेरा पासपोर्ट भी लेकर आया था और पूछने "लगा कहाँ काम करते हो?" मैंने तो बताना ही था कि,मोदीपोन में,फिर उसने मेरा पासपोर्ट सामने रख दिया,और उसमें व्यवसाय की स्थान पर निल लिखा हुआ था,कहने लगा इसमें तो व्यवसाय निल लिखा हुआ है, अब तो में पुन: शंका में की हुआ मेरा पासपोर्ट रद्द पर ऐसा नहीं हुआ,वोह अधिकारी मेरा पासपोर्ट मुझे दे कर के चला गया |
खैर समय बीतता गया, हम इंजिनियर लोगों को लालच तो होता ही है,जहाँ पर पैसे और अच्छी सुवधाएँ मिलेगीं हम लोग वहीँ चल देते हैं, अब तो जीवन का उतरार्ध आ गया,परन्तु उस समय तो जवान था, और ऐसे में, अच्छे पैसे और सुविधा का आकर्षण अधिक तो होता ही है, समय ने तो अपनी गति से चलना ही था, उस समय कनाडा की एक कम्पनी में तो नौकरी मिल गयी थी, और उसके साथ गुजरात की हीरा नगरी सूरत में,मोदीपोन से अच्छे पैसे और अच्छी सुविधा के साथ नौकरी मिल गयी थी, और में अपनी पत्नी,और पुत्री के साथ सूरत के लिए आजीविका कमाने के लिए चल पड़ा, और मेरे पासपोर्ट बनने के कुछ समय अन्तराल पर मेरी पत्नी का पासपोर्ट मय मेरी पुत्री के साथ भी बन कर आ चुका था |
सूरत में काम करते समय मेरा निजी व्यवसाइयों से भी समपर्क हो गया था, अब किसी व्यवसाई को अपने कारखाने के लिए मशीन खरीदनी थी, और मेरी कम्पनी मुझे अवकाश नहीं दे रही थी, आखिरकार मुझे तीन दिन का अवकाश मिल गया, अब मुझे करनी थी विदेश यात्रा और वोह भी हवाई,अभी तक तो में हवाई अड्डे से लोगों को लेने और छोड़ने ही गया था, और बचपन में तो हवाई जहाज को पास से देखा था, पर जब से पूरा होश सम्भाल चुका,तो हवाई अड्डे का प्रवेश,और निकास द्वार ही देखा था, सूरत से चला मुंबई की ओर साहर हवाई अड्डे की ओर रेलगाड़ी से, क्योंकि वोह पहली यात्रा थी इंग्लॅण्ड की,उसके बाद तो अनेकों बार जा चुका हूँ, वहाँ के कुछ अंग्रेज परिवार मेरे मित्र भी बन चुके हैं |
अब आप लोग हसेंगे मैंने सोचा इंग्लॅण्ड में तो सर्दी पड़ती है,इसलिए मैंने अपने लिए कम्बल ले लिया, जाना हैं,इंग्लॅण्ड और वोह भी ठंडा स्थान तो अपनी सुरक्षा करना तो उचित ही था ना?
वहाँ मुंबई में मुझे वोह व्यवसाई बही मिल गये, और मुझे हैरानी से देखते हुए बोले "कोई विदेश भी कम्बल ले जाता है?", और उस समय तो किसी से विदेश जाने के लिए किसी से राए लेना तो हमारी शान के विरूद्व था ना, चलो यहाँ तक तो सही अब उन्ही व्यवसाई से सुना वीसा के लिए इंग्लिश एम्बेसी में इंटरव्यू होगा,में मन में सोचने लगा भई विनय शर्मा यह कौन सी नयी मुसीबत, विदेश जाने के लिए बही इंटरव्यू, जैसे तैसे ब्रिटिश एम्बेसी के इंटरव्यू का समय आ गया, पासपोर्ट तो इंटरव्यू से पहेले वहीं जमा हो जाता है,खैर अब हमको इंटरव्यू तो देना ही था, उस ब्रिटिश अधिकारी ने बहुत से प्रश्न पूछे,परन्तु एक प्रश्न पुछा "आपने अपना यह पासपोर्ट सन १९८५ में क्यों बनवाया?" उसी समय मेरे मस्तिष्क की बत्ती जली,चूंकि मुझे कनाडा में नौकरी मिल तो गयी थी,बस किन्ही कारणों से वहाँ ज्वाइन नहीं किया था, सो हमने उत्तर दे दिया, "मुझे कनाडा में नौकरी मिल गयी थी,इसलिए मैंने उपरोक्त सन में पासपोर्ट बनवाया", अब उनको तो यह संदेह हो गया की यह तो इंग्लैंड में बस जायगा,मुझे क्या मालूम था इस उत्तर से लेने के देने पड़ जायेंगे,परिणामस्वरूप उन लोगों ने मेरे पासपोर्ट पर लिख दिया "Applied for", वोह व्यवसाई तो बहुत सी विदेश यात्राएं कर चुके थे, वोह पासपोर्ट के पुन: आवेदन के लिएकोई पीला फॉर्म लाये, उसको मैंने भरा फिर उस अंग्रेज अफसर ने मेरे पासपोर्ट पर इंग्लैंड के वीसा की मोहर लगाते हुए कहा,हम आपको छे महीने के लिए वीसा दे रहें हैं, पीला फॉर्म जमा करने के बाद इंटरव्यू में दिए गये उत्तर तो मुझे याद नहीं हैं,ऐसे प्रारंभ हुई मेरी विदेश यात्रा |
विदेश यात्रा का श्री गणेश तो हो ही चुका था, और उसके बाद मुझे भेजा गया अमरीकन एक्सप्रेस बैंक पैसा लेने के लिए,में फिर सोचने लगा की मेरा अमरीकन एक्सप्रेस बैंक में खाता तो है नहीं,फिर यह मुझे पैसा क्यों मिल रहा है, वहाँ से मैंने पैसा तो लिया और एक चीज नयी देख कर फिर असमंजस में, पैसा लेने के लिए मैंने जो फार्म भरा,उसके नीचे दूसरा फार्म लगा हुआ था,उस पर बही मेरे लिखे की कॉपी बिना कार्बन पेपर के बन गयी, उस समय मुझे कार्बन लेस पेपर के बारे में नहीं पता था,खैर अब में तीन हजार डॉलर लेकर निकला बैंक के बहार,और अब हमें जाना था इम्मीग्रेशन के लिए,वोह मेरे लिए नयी चीज, अब इम्मीग्रेशन के बाद आ ही गया नंबर हवाई जहाज में बैठने का, लेकिन उससे पहले अपना सामान तो रखना ही था,कन्वेर बेल्ट पर मैंने अपना सामान उस बेल्ट पर रखा और देखने लगा की मेरा सामान वापिस आयगा तो उठा लूँगा,पर यह क्या मेरा सामान तो वापिस आया ही नहीं, तब मेरे साथ जाने वाले वोह शख्स शायद मेरी मनोस्थिति को भांप गये थे,वोह वोले पहुँच गया सामान हवाई जहाज में, अब तो हवाई जहाज में प्रवेश करने का नंबर था, अब तो सिक्यूरिटी चेक का नम्बर था उस समय मेरी जेब में कुछ भारतीय सिक्के थे,सो वोह सिक्यूरिटी चेक करने वाला यन्त्र बोलने लगा,मैंने सोचा मर गये विनय भई अब तो यह लोग पकड़ के जेल में बंद करेंगे, परन्तु ऐसा नहीं हुआ,आखिरकार हम लोगों ने हवाई जहाज में प्रवेश कर लिया, वड़ा हवाई जहाज था, और में सोच रहा था, कि उड़ते हुए नीचे देखूँगा कि आकाश से धरती और धरती की वस्तुएं केसी दिखाई देती हैं, पर यह क्या मेरे को जो सीट मिली वोह बीच वाली कतार में थी, कुछ देर तो नीचे की वस्तुएं दिखाई दीं, फिर तो नीचे दिखाई दे रहे थे, बादल, मन तो कर रहा था,उचक,उचक के नीचे देखूं, पर यह ना कर सका,जब कुछ ना मिला तो सीट में लगे हुए बटन के बारे में जानकारी लेने लगा,एक बटन दबाया तो परिचालिका आ गयी अ़ब उससे पूछूँ तो क्या?
आखिर दस घंटे बाद पहुँच गए हम लोग इंगलैंड के हिथ्रो हवाई अड्डे, और वहाँ हवाई जहाज से उतर कर निकल कर बिना किसी बस में सवार हो कर निकल चुके, हवाई अड्डे के निकास द्वार से लन्दन शहर के लिए, वहाँ तो सामान्य जीवन ही गुजारा और तीसरे दिन निकल पड़े अपने भारत देश के लिए, आये तो थे भारत सेतो चले थे रात के समय में, और इंगलैंड से प्रस्थान किया भारत के लिए सुबह के समय,पहले हवाई जहाज बहुत ही धीरे,धीरे चल रहा था,मैंने सोचा हवाई जहाज ख़राब हो गया,फिर तो धीरे,धीरे चलते हुए,हवाई जहाज ने रफ्तार पकड़ और उड़ने लगा, नीचे बिल्डिंग इत्यादि दिख रहे थे,और उसके बाद हो गयाहवाई जहाज बादलों के ऊपर, अब परिचालिका आई और उसने ने पुछा लाल वाइन या सफ़ेद वाइन,मुझे वाइन के बारे में कुछ नहीं पता था, पहले लाल वाइन के लिए कहा, फिर उसने वोही प्रशन किया तब मैंने कहा,सफ़ेद वाइन और सिगरेट तो पीता था इसलिए बैठाया गया नॉन स्मोकिंग जोन मैं , कभी,कभी पार्टी इत्यादि में शराब का भी सेवन कर लेता था, शराब की तो आदत नहीं थी,अब तो सिगरेट भी छोड़ चुका हूँ, और निर्धारित समय पर हमारे हवाई जहाज ने जबभारत की धरती को छुआ,तो केवल एक बार जोर का झटका लगा, में सोचने लगा कि यह क्या हुआ?,कोई क्रेश लैंडिंग है क्या? अब तो विदेश यात्रा और हवाई यात्रा का अनुभव भी हो चुका है, ऐसी थी मेरी विदेश यात्रा वोह भी हवाई |
उसके बाद ही मैंने अपने देश में हवाई यात्रायें की हैं |
मंगलवार, अक्टूबर 06, 2009
लक्ष्मी माता यह कैसी दिवाली आने को है |
लक्ष्मी माता यह कैसी दिवाली आने को है |
इस वर्ष वर्षा ऋतू के मौसम में,वर्षा भी बहुत कम हुई, किसानों की फसल को सूखे की मार मार गयी, उन किसानों के परिवार रोते बिलखते रहे, जिन किसानों ने किस,किस जतन से, लोन इत्यादि लेकर अपनी खेती की,और आसमान की ओर वर्षा ऋतू में,टकटकी लगा कर देखते रहे,परन्तु वर्षा तो आई ही नहीं, और उन किसानों की फसल सुख गयी, दिवाली आने से पहले यह कैसा तुषारापात? और निकल गया दिवाली से पहेले इन किसानों के परिवार का दिवाला |
परिणाम क्या हुआ, बाजारों में साग,सब्जी अनाज,फल के दाम आसमान छुने लगे,और इन बिचारे किसानों की तो जान गयी,और जमाखोरों,कालाबाजारी करने वालों ने इसका लाभ उठाया, इन लोगों की आत्मा तो मर ही चुकी है, और इन लोगों के साथ कुछ वर्षो से मिलावट करने वाले भी अपना लाभ उठा रहे हैं,खोये में मिलावट,घी में मिलावट,दिवाली तो मन रही है, इन पथभ्रष्ट लोगों की, परन्तु सीधे,भोले,इमानदार लोगों का तो दिवाला ही निकल रहा है |
दिवाली आने को कुछ ही दिन हैं,और बाड़ ने बहुत से प्रदेशों में कहर ढा दिया है, आंध्र परदेश,और कर्णाटक में लोग बेघर हो गये, वोह लोग क्या दिवाली मना पाएंगे ?
एक बात तो समझ में नहीं आती,इस दिन शगुन के नाम पर बहुत से लोग जुआ,खेलते हैं, दिवाली तो मनाई जाती है,श्री राम के बन से अयोध्या लौटने के कारण, और यहाँ से प्रारंभ हुआ था,रामराज्य अर्थार्त,सब बराबर ना कोई,अधिक अमीर ना कोई अधिक गरीब,परन्तु इस जुए से एक ही दिन में,हजारो लाखों के बारे,न्यारे,क्या यही दिवाली का प्रब्व्हाव है,कोई एक ही दिन में अधिक अमीर,और कोई एक ही दिन में अधिक गरीब, क्या यही अर्थ है रामराज्य का?
हाँ दीपोउत्सव का दिन है, मिठाई खाने और खिलाने का उत्सव है,सर्वोपरि लक्ष्मी माता,और विघ्न विनाशक गणेश जी की पूजा का उत्सव है, लक्ष्मी गणेश जी सब पर अपनी कृपा दिरष्टि करो |
गणेश जी उन लोगों को सद्बुद्धि दो जो अनेकों पटाखे चला कर पर्दूषण से वातावरण दूषित कर रहें है, और इसके साथ ही, कर्णफोडू पटाखे चला कर ध्वनि पर्दूषण वातावरण में व्याप्त कर रहें हैं,उनको सद्बुद्धि दो |
लक्ष्मी माता सब को अधिक नहीं,इतना तो धन,संपन्न करो, हम भी भूखे ना रहें,और जो हमारे घर आये वोह भी भूखा ना जाए |
अंत में मेरी तो सब लोगों से विनती है, अपने घरो से एक एक दीप उन घरो में,प्रज्जुवालित करें,जिनके घर में दीप तेल की व्यवस्था ना हों, उनके घरों में दीप,तेल की व्यवस्था करके उन के होंठो पर मुस्कान लाने का प्र्यतन करें|
सभी पाठको का घर दिवाली के दिए जगमगाते रहे, लक्ष्मी,गणेश जी सब की आशाएं जगमगाती रहें |
इस वर्ष वर्षा ऋतू के मौसम में,वर्षा भी बहुत कम हुई, किसानों की फसल को सूखे की मार मार गयी, उन किसानों के परिवार रोते बिलखते रहे, जिन किसानों ने किस,किस जतन से, लोन इत्यादि लेकर अपनी खेती की,और आसमान की ओर वर्षा ऋतू में,टकटकी लगा कर देखते रहे,परन्तु वर्षा तो आई ही नहीं, और उन किसानों की फसल सुख गयी, दिवाली आने से पहले यह कैसा तुषारापात? और निकल गया दिवाली से पहेले इन किसानों के परिवार का दिवाला |
परिणाम क्या हुआ, बाजारों में साग,सब्जी अनाज,फल के दाम आसमान छुने लगे,और इन बिचारे किसानों की तो जान गयी,और जमाखोरों,कालाबाजारी करने वालों ने इसका लाभ उठाया, इन लोगों की आत्मा तो मर ही चुकी है, और इन लोगों के साथ कुछ वर्षो से मिलावट करने वाले भी अपना लाभ उठा रहे हैं,खोये में मिलावट,घी में मिलावट,दिवाली तो मन रही है, इन पथभ्रष्ट लोगों की, परन्तु सीधे,भोले,इमानदार लोगों का तो दिवाला ही निकल रहा है |
दिवाली आने को कुछ ही दिन हैं,और बाड़ ने बहुत से प्रदेशों में कहर ढा दिया है, आंध्र परदेश,और कर्णाटक में लोग बेघर हो गये, वोह लोग क्या दिवाली मना पाएंगे ?
एक बात तो समझ में नहीं आती,इस दिन शगुन के नाम पर बहुत से लोग जुआ,खेलते हैं, दिवाली तो मनाई जाती है,श्री राम के बन से अयोध्या लौटने के कारण, और यहाँ से प्रारंभ हुआ था,रामराज्य अर्थार्त,सब बराबर ना कोई,अधिक अमीर ना कोई अधिक गरीब,परन्तु इस जुए से एक ही दिन में,हजारो लाखों के बारे,न्यारे,क्या यही दिवाली का प्रब्व्हाव है,कोई एक ही दिन में अधिक अमीर,और कोई एक ही दिन में अधिक गरीब, क्या यही अर्थ है रामराज्य का?
हाँ दीपोउत्सव का दिन है, मिठाई खाने और खिलाने का उत्सव है,सर्वोपरि लक्ष्मी माता,और विघ्न विनाशक गणेश जी की पूजा का उत्सव है, लक्ष्मी गणेश जी सब पर अपनी कृपा दिरष्टि करो |
गणेश जी उन लोगों को सद्बुद्धि दो जो अनेकों पटाखे चला कर पर्दूषण से वातावरण दूषित कर रहें है, और इसके साथ ही, कर्णफोडू पटाखे चला कर ध्वनि पर्दूषण वातावरण में व्याप्त कर रहें हैं,उनको सद्बुद्धि दो |
लक्ष्मी माता सब को अधिक नहीं,इतना तो धन,संपन्न करो, हम भी भूखे ना रहें,और जो हमारे घर आये वोह भी भूखा ना जाए |
अंत में मेरी तो सब लोगों से विनती है, अपने घरो से एक एक दीप उन घरो में,प्रज्जुवालित करें,जिनके घर में दीप तेल की व्यवस्था ना हों, उनके घरों में दीप,तेल की व्यवस्था करके उन के होंठो पर मुस्कान लाने का प्र्यतन करें|
सभी पाठको का घर दिवाली के दिए जगमगाते रहे, लक्ष्मी,गणेश जी सब की आशाएं जगमगाती रहें |
रविवार, अक्टूबर 04, 2009
सिगरेट,गुटखा छोड़ना चाहते हैं ?
अपनी पचासवीं पोस्ट लिख रहा हूँ, यह तो कानून बनते हैं,सार्वजानिक स्थानों, बस में रेलगाड़ी में,होटलों इत्यादि में सिगरेट,बीड़ी पीने पर जुरमाना होगा, सिगरेटों के पाकेटों पर हिंदी,अंग्रेजी दोनों में लिखा आता था, सिगरेट स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं, और अब तो इन पाकेटों पर चित्र के रूप में चेतावनी आने लगी है, परन्तु सिगरेट,गुटका आदि छोड़ने की किसी भी विधि का प्रचार नहीं होता हैं, पहला तरीका तो है,इच्छा शक्ति,परन्तु सिगरेट और गुटके के सेवन करने वाले में,अधिकतर इतनी इच्छा शक्ति नहीं होती की वोह सिगरेट छोड़ सके, पहला तरीका है, stop smoking ucsf .edu site के निर्देशों का पालन करके, जो की nicotine gum, nicotine patch आदि का प्रयोग करके, परन्तु हमारे देश में तो निकोटीन गम ही उपलब्ध है,जिसका नाम है निकोतेक्स परन्तु यह बहुत महेंगा पड़ेगा, ५० रूपये का एक पैकेट आयगा,और उसके अन्दर ही आपको इसके सेवन के निर्देश मिल जायेंगे, जब,जब आपको सिगरेट पीने की इच्छा करे तो यह एक चुंगुम दातों और गालो के बीच में रख,लें और थोड़ा,थोड़ा चबाये,और फिर उसी प्रकार दांतों और गालों के बीच में,रख लें, और धीरे,धीरे चुइंगगम की मात्रा कम करतें जाएँ, इस प्रकार धीरे,धीरे आपका सिगरेट,और गुटके का सेवन बंद हो जायगा, बाकि और निर्देश इस nicotex में रखे कागज में मिल जायेंगे, यह साईट आप गूगल में,सर्च कर सकतें हैं|
दूसरा सस्ता तरीका बताता हूँ,किसी आयुर्वेदिक दवाई बेचने वाले से मुलेठी की पॉँच,दस रूपये की खरीद लायें,और जब भी सिगरेट,या गुटके की इच्छा करे,तो इसको चबाये,बहुत ही सस्ता और कारगर तरीका है|
में २५-३० साल से सिगरेट पीता था, मुझे पता हैं, ऊपर लिखे हुए बंधन तब तक कारगर नहीं होते जब तक आप में द्रीर इच्छाशक्ति ना हो, और मेरे विचार से सरकार द्वारा लगाये हुए बन्धनों के साथ इसके उपाए भी बताने,चाहिए,यही नहीं और भी व्यसनों को छोड़ने के उपाए बताये,जाने चाहिए,शराब छुड़वाने के भी कारगर उपाए है,परन्तु इस विषय में सरकार जाग्रति ही नहीं देती, इसके लिए भी Annomynus नाम से संस्था है, और उस संस्था द्वारा हमारे एक जानकार शराब छोड़ चुके हैं, वोह रहते तो पूना में हैं,परन्तु उनोहने दिल्ली में ही इस Annomynus संस्था में भाग लेकर शराब बिलकुल छोड़ दी है,कभी वोह इधर मेरे पास आयेंगे तो उनसे पूछ कर इस संस्था,और उसकी कार्यविधि के बारे में लिखूंगा |
सिनेमाँ में काम करने वाले संजय दत्त Drugs के आदि थे, उनके पिता सुनील दत्त ने उनका उपचार कराया और वोह,Drugs छोड़ चुकें हैं, सरकार को चाहिए रोक तो लगाये परन्तु उपचार को भी तो,पोलियो,तपेदिक,ऐड्स इत्यादि की तरह सार्वजानिक करें |
दूसरा सस्ता तरीका बताता हूँ,किसी आयुर्वेदिक दवाई बेचने वाले से मुलेठी की पॉँच,दस रूपये की खरीद लायें,और जब भी सिगरेट,या गुटके की इच्छा करे,तो इसको चबाये,बहुत ही सस्ता और कारगर तरीका है|
में २५-३० साल से सिगरेट पीता था, मुझे पता हैं, ऊपर लिखे हुए बंधन तब तक कारगर नहीं होते जब तक आप में द्रीर इच्छाशक्ति ना हो, और मेरे विचार से सरकार द्वारा लगाये हुए बन्धनों के साथ इसके उपाए भी बताने,चाहिए,यही नहीं और भी व्यसनों को छोड़ने के उपाए बताये,जाने चाहिए,शराब छुड़वाने के भी कारगर उपाए है,परन्तु इस विषय में सरकार जाग्रति ही नहीं देती, इसके लिए भी Annomynus नाम से संस्था है, और उस संस्था द्वारा हमारे एक जानकार शराब छोड़ चुके हैं, वोह रहते तो पूना में हैं,परन्तु उनोहने दिल्ली में ही इस Annomynus संस्था में भाग लेकर शराब बिलकुल छोड़ दी है,कभी वोह इधर मेरे पास आयेंगे तो उनसे पूछ कर इस संस्था,और उसकी कार्यविधि के बारे में लिखूंगा |
सिनेमाँ में काम करने वाले संजय दत्त Drugs के आदि थे, उनके पिता सुनील दत्त ने उनका उपचार कराया और वोह,Drugs छोड़ चुकें हैं, सरकार को चाहिए रोक तो लगाये परन्तु उपचार को भी तो,पोलियो,तपेदिक,ऐड्स इत्यादि की तरह सार्वजानिक करें |
स्त्री पुरुष को परखने के दोहरे मापदंड
आज से तीन दिन के बाद, विवाहित नारियों द्वारा मनाया जाने वाला करवा चौथ है, और इस दिन विवाहित नारियां,संध्या काल के समय में जब तक चाँद निकल नहीं आता, निर्जल,और बिना कुछ खाए हुए अपने पति की दीर्घायु की कामना लेकर व्रत रखती हैं, और चाँद को अर्घ्य देकर अपने पति का मुख देख कर ही ,अन्न,जल ग्रहण करतीं हैं, अब तो कुछ पति भी इसमें नारी का साथ देने लगे हैं,परन्तु पुरातन काल में इसका उद्देश तो यह था, पति कमा कर लाता था,और इसी कारण से नारी की जीविका चलती थी, पर अब तो नारी भी पुरुष के साथ कंधे से कन्धा मिला कल चल रही है, और दोनों हीं,अपना घर संसार चलाने में सक्षम हैं,और कभी,कभी तो घर गृहस्ती की सर्वेसवा ही स्त्री ही है, उसके बाद में भी हमारे समाज में नारी को पुरुष की तुलना में,नीचा स्थान ही प्राप्त है | यह तो समझ आता है, यह व्यवस्था पुरातन काल में,पुरष प्रधान समाज में पुरुषों द्वारा ही बनाई गयी थी, पर आज के बदलते समाज में भी वोह ही भेदभाद की दोहरी मानसिकता दिखाई देती है |
लड़के ने कोई गलती की तो उसको कम सजा मिलती है,और किसी लड़की ने भी वोही गलती करी तो उसकी सजा अधिक,अगर लड़के ने सिगरेट या शराब का सेवन किया तो उसको ,इतनी हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता,जितना लड़की को अगर लड़की के साथ कोई बलात्कार की घटना हो जाती है,तो बिना मौत के वोह जीवन भर के लिए मर जाती है, और अगर किसी पुरुष के द्वारा यही घटना होती है,तो वोह स्वछंद रहता है,हालाँकि अब तो बलात्कार के विषय में कानून सख्त हो चुका है,पर हमारा समाज दोहरी मानसिकता का पीछा नहीं छोड़ता, आज कल वैसे अपवाद स्वरुप लिव इन रिलेशन ने भी जन्म ले लिया है, परन्तु मेरे विचार से हाईप्रोफाइल समाज में , उन पर तो कोई प्रवहाव नहीं होता,और यह तो उनके लिए शान की बात है, परन्तु पिस्ता तो मध्य वर्गीय परिवार |
इसी प्रकार व्यसन तो निम्न वर्गीय परिवारों में महिलाओं के लिए तो आम बात है, वोह खूब बीड़ी,हुक्के आदि का सेवन करतीं हैं,परन्तु उनको हेय दृष्टि से कोई नहीं देखता,हाँ निम्न वर्गीय परिवारों में पुरषों के द्वारा शराब पी कर के अपनी पत्नियों से गाली गलौज करना और उनको मारना पीटना तो आम बात है, यहाँ भी दोहरे स्त्री,पुरुष के अवगुण देखने के दोहरे मापदंड |
में एक परिवार को जानता हूँ,पति,पत्नी और उनके दो बेटे हैं , पत्नी कपडे पहने तो पति,और बेटों की मर्जी के अनुसार,सब्जी बनाये तो अपने पति की रुचि के अनुसार,मतलब की उसकी रुचि बिलकुल गौण ही हो गयी है, एक दिन वोह पत्नी मेरे साथ अपने लिए साडी खरीदने के लिए गयी,तो साडी तो खरीद तो ली जो मैंने दिलवा दी थी लेकिन वोह बोली की पता नहीं,यह पसंद आएगी की नहीं ?,बाद में उसने कहा कि यह साडी सबको बहुत पसंद आई,उसका इशारा अपने पति और अपने बच्चो कि ओर था, इसी प्रकार एक दिन मैंने उनसे पुछा आप को खाने में क्या पसंद हैं,तो वोह बोली घिया चने की दाल,और उसने वोह घिया चने की दाल अपने घर में शायद ही बनाइ होगी,में उसके लिए अपने घर से घिया चने की दाल उसके लिए बनवा के ले गया, ऐसा तो शायद कम ही होता है, पर मैंने स्त्री पुरष के अलग,अलग मापदंड ऐसे भी देखे हैं|
इसी संनदर्भ में मुझे केरल प्रान्त की याद आ रही है,जो की स्त्री प्रधान परदेश हैं,वहाँ पर स्त्री,पुरष में समंज्यस्ता है, और वहाँ संतान का नाम माँ के नाम से चलता है, और वहाँ पर स्त्री,पुरष को परखने के लिए दोहरे मापदंड नहीं हैं |
लड़के ने कोई गलती की तो उसको कम सजा मिलती है,और किसी लड़की ने भी वोही गलती करी तो उसकी सजा अधिक,अगर लड़के ने सिगरेट या शराब का सेवन किया तो उसको ,इतनी हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता,जितना लड़की को अगर लड़की के साथ कोई बलात्कार की घटना हो जाती है,तो बिना मौत के वोह जीवन भर के लिए मर जाती है, और अगर किसी पुरुष के द्वारा यही घटना होती है,तो वोह स्वछंद रहता है,हालाँकि अब तो बलात्कार के विषय में कानून सख्त हो चुका है,पर हमारा समाज दोहरी मानसिकता का पीछा नहीं छोड़ता, आज कल वैसे अपवाद स्वरुप लिव इन रिलेशन ने भी जन्म ले लिया है, परन्तु मेरे विचार से हाईप्रोफाइल समाज में , उन पर तो कोई प्रवहाव नहीं होता,और यह तो उनके लिए शान की बात है, परन्तु पिस्ता तो मध्य वर्गीय परिवार |
इसी प्रकार व्यसन तो निम्न वर्गीय परिवारों में महिलाओं के लिए तो आम बात है, वोह खूब बीड़ी,हुक्के आदि का सेवन करतीं हैं,परन्तु उनको हेय दृष्टि से कोई नहीं देखता,हाँ निम्न वर्गीय परिवारों में पुरषों के द्वारा शराब पी कर के अपनी पत्नियों से गाली गलौज करना और उनको मारना पीटना तो आम बात है, यहाँ भी दोहरे स्त्री,पुरुष के अवगुण देखने के दोहरे मापदंड |
में एक परिवार को जानता हूँ,पति,पत्नी और उनके दो बेटे हैं , पत्नी कपडे पहने तो पति,और बेटों की मर्जी के अनुसार,सब्जी बनाये तो अपने पति की रुचि के अनुसार,मतलब की उसकी रुचि बिलकुल गौण ही हो गयी है, एक दिन वोह पत्नी मेरे साथ अपने लिए साडी खरीदने के लिए गयी,तो साडी तो खरीद तो ली जो मैंने दिलवा दी थी लेकिन वोह बोली की पता नहीं,यह पसंद आएगी की नहीं ?,बाद में उसने कहा कि यह साडी सबको बहुत पसंद आई,उसका इशारा अपने पति और अपने बच्चो कि ओर था, इसी प्रकार एक दिन मैंने उनसे पुछा आप को खाने में क्या पसंद हैं,तो वोह बोली घिया चने की दाल,और उसने वोह घिया चने की दाल अपने घर में शायद ही बनाइ होगी,में उसके लिए अपने घर से घिया चने की दाल उसके लिए बनवा के ले गया, ऐसा तो शायद कम ही होता है, पर मैंने स्त्री पुरष के अलग,अलग मापदंड ऐसे भी देखे हैं|
इसी संनदर्भ में मुझे केरल प्रान्त की याद आ रही है,जो की स्त्री प्रधान परदेश हैं,वहाँ पर स्त्री,पुरष में समंज्यस्ता है, और वहाँ संतान का नाम माँ के नाम से चलता है, और वहाँ पर स्त्री,पुरष को परखने के लिए दोहरे मापदंड नहीं हैं |
शनिवार, अक्टूबर 03, 2009
नाना नानी बनने के बाद लगता है,इतिहास अपने को दोहरा रहा है
हम दोनों नाना,नानी बन गये, और अब मेरी बेटी ,ने लगभग ने चार साल पहेले एक लड़के को जन्म दिया था,जिसकी फोटो ऊपर दी हुई है, अपनी बेटी के जन्म के समय तो रोजी के लिए काम करने के कारण बहुत व्यस्त जीवन था, उस समय तो बेटी के जन्म लेने से लेकर बड़े होने तक और उसकी शादी होने तक,उस को इतने करीब से नहीं देख पाया, परन्तु फिर भी नाना बनने के बाद ऐसा लगने लगा कि, इतिहास कि पुनरावृति हो रही है, परन्तु अब तो अपने नाती को बहुत ही करीब से देख रहा हूँ,और लगने लगा है,इतिहास अपने को दोहरा रहा है, और इसी वर्ष की ८ जून को मेरी बेटी ने एक बेटी को भी जन्म दिया है | पहले हमारे नाती का जन्म लेना,और उसके बाद कुछ समय के बाद उसका अपनी गर्दन उठाना,और फिर उसका एक और से धीरे,धीरे सरकना,बहुत रोमांचित करने लगा, फिर उसका दूसरी और से भी सरकना, और उसका उसके बाद घुटनों चलना,एक अभूतपुर्ब ख़ुशी दे जाता था, उसका पहला प्यारा सा शब्द माँ कहना तो अभी तक कानो में गूंजता है, पहले उसका चलने का प्रयतन करना,और फिर आसपास की वस्तुओं को पकड़,पकड़ कर चलना और फिर चलना और डगमगा के गिर जाना,और फिर धीरे,धीरे चलना,और फिर चाल में गति पकड़ना,और फिर दोड़ लगाना अभी तक मानस पटल पर अंकित है, और इसी विषय में एक घटना याद आ रही है, अपनी आयु के बच्चो में वोह सबसे तेज भागता था,और अब उसको बोलना भी आ चुका था, और उसको माइक पर बोलना बहुत पसंद था, एक बार उसकी माँ यानि की मेरी बेटी ने अपनी कालोनी के किसी फंकशन में,उसका नाम दोड़ पर्तीयोगता में लिखवा दिया, दोड़ में तो सबसे आगे था,परन्तु उसको जजों के पास रखा हुआ माइक दिखाई दे गया,तो फिर क्या था,उसने तो रेस लगा दी माइक की ओर और वोह पहला पुरुस्कार लेने से वंचित रह गया, और थोड़ा बड़ा हुआ तो उसके माँ,बाप ने उसके लिए भी खिलोने ला दिए,जब वोह हमारे पास आता है,तो खिलोने और सोफा,कुर्सियों के कवर सारे अस्त,व्यस्त होते हैं, अब तो लिखना सीख गया है, और लिखने का बहुत शौक है, डायरी,पेन तो यदा,कदा ही छूटते हैं उसके हाथ से, कार्टून पिक्चर भी देखनी होती हैं,कंप्यूटर पर गेम भी खेलना होता है,किसी भी चीज को बंद नहीं करने देता, उसके चले जाने के बाद तो एक सन्नाटा सा पसर जाता है,अब तो उसका नर्सरी में दाखिला हो चुका है |
नातिन भी आ चुकी हैं,अभी तो केवल दूध ही पीती है,और करवट लेना जन्म के तीन दिन बाद ही सीख गयी थी, अब तो उल्टा होना भी सीख गयी है, उससे बात करो तो मुस्कराती हैं, चुप हो जाओ तो रोती हैं,थोड़ा सा भी शोर होता है सोते से जाग जाती है, मुझे याद आता है,हमारी बेटी से बात करते रहो तो उसको अच्छा लगता था,ना बात करो तो रोने लगती थी,हम लोग अपनी बेटी के कान के पास ट्रांजिस्टर रख देते थे,उसको लगता था,सचमुच में कोई बात कर रहा है,शायद हमारी नातिन,बड़े हो कर के बेटी की हरकतों की पुरावृति करेगी, एक बार हमारी बेटी ने गुडिया,गुड्डे की शादी रचाई,और हमारी फैक्ट्री की कालोनी में सब को हमारे को बिना बताये निमंत्रण दे डाला,अब सब लोग गिफ्ट ले कर आ गये,पर हम लोगों के पास उनके स्वागत के लिए कुछ नहीं,आनन फानन में,बाजार से गुड्डे,गुड्डी की शादी में निमंत्रित लोगों के लिए खाने का सामान लाया गया, एक बार उसने अपनी सब सहेलियों को एकत्रित कर के घर की छत पर बुलाया और,फ्रिज में रखे हुए सारे,चीकू अपनी सहेलियों को चीकू बाट के समाप्त कर दिए, लगता है,हमारी नातिन भी यह सब करेगी,और इतिहास दोहराया जायेगा |
हमारे नाती को विडियो गेम खेलना आ गया है,बस यह नहीं पता कैसे हार,जीत होगी लेकिन कंप्यूटर के की बोर्ड से विडियो गेम का संचालन तो आ ही गया है, जब भी में उसी गेम के बारे में और जानकारी लेना चाहता हूँ,वोह मुझे की बोर्ड छुने ही नहीं,देता हमारा दामाद कहता आप समझते हो क्या आप को यह कुछ करने देगा?,परन्तुहमारे लिए तो उसका गेम खेलना और गेम के कारण किलकारी मारना ही गेम है,और उसी को हम दोनों एन्जॉय करते हैं, नाती,और नातिन की शैतानिया देख कर यही लगता है,की इतिहास अपने को दोहरा रहा है |
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