शनिवार, फ़रवरी 13, 2010

विगड़ते ज़माने में बच्चो का भविष्य देख कर सिहर जाता हूँ |

यह युग निरंतर कठिन हालातों की ओर अग्रसर होता जा रहा है, आसमन छूती महंगाई,बड़ता भ्रसटाचार,मिलावटी खाद्य पदार्थ, तेजी से होती पेड़ों की कटाई, बच्चों पर स्कूल की किताबों से बड़ते हुए बस्ते का बोझ  और ना जाने क्या,क्या ?
  यह सोच,सोच कर मन सिहर जाता है, की हम बड़े लोगों को इन कष्टों से गुजरना पड़ रहा है, तो हमारी भावी पीड़ी का भविष्य क्या होगा ? सुनते आयें हैं,कि हमारी बुजुर्ग पीड़ी की मासिक आय बहुत कम थी, मतलब कि 100,200 रूपये और उसमें भी उन लोंगो की अच्छी,खासी बचत हो जाती थी, फिर आया हम लोगों का युग, हम लोगों के प्रारंभ के दिनों में हम लोगों की आय में अच्छी खासी बचत हो जाती थी, परन्तु पता ही नहीं चला कि कैसे महंगाई बड़ती गयी,और यह हाल हो गया कि आमदनी अठन्नी और खर्चा रूपया, और बचत की आशा करना व्यर्थ लगने लगा, और पति,पत्नी अपने घर की व्यवस्था के लिए धनोउपार्जन करने लगे, इसी प्रकार महंगाई तेजी से आसमान छूने लगी  और इस महंगाई पर नियत्रण नहीं लगा, तो हमारी भावी पीड़ी किस प्रकार से चलाएगी अपनी घर,गृहस्ती? आज के युग में जब पाती,पत्नी दोनों ही धन कमाने में लगे रहते हैं, इस कारण से बच्चो की ओर अपेछिकित ध्यान नहीं दे पाते हैं, उनकी इस विवशता के कारण बच्चो में उत्पन्न हो जाती है,भावनात्मक शुन्येता,  यह भावनात्मक बच्चों के  सर्वागीण विकास के लिए निहायत ही अवशयक है |
  आज बच्चो के कन्धों पर झूलते बस्तों में कितबों का बड़ता हुआ बोझ तो है ही जो इन नाजुक बच्चों के कंधो को पीडा तो पहुँचाता हैं, और गृहकार्य इन नन्हे,नन्हे बालक,बालिकाओं इतना मिलता है,इन के पास खेलने,कूदने का समय संभवत: मिल ही नहीं पाता तो कैसे हो इन शिशुओं का शारीरिक विकास? और आज कल धरती पर मैदान तो सिमटते जा रहे हैं, इन बच्चों को दोड़ने,भागने का स्थान नहीं मिल पा रहा है, इस दिशा में पता नहीं काम क्यों नहीं होता ? यह तो सच हैं,आज कल इन्टरनेट का विडियो गेम का युग आ गया है,और बच्चे इन चीजों में लग रहें हैं, इसी सन्दर्भ में मेरे मस्तिष्क में उभर रहा है,अमरीका के सर वाल्ट डिस्नी का नाम,जिनोहने बच्चों के लिए डिस्नेलैंड बनाया,जिसमें बच्चों के लिए सब प्रकार के मनोरंजन हैं, डिस्नीलैंड के  मिकी मौस,टॉम ओर जेर्री जैसे कार्टून तो  विश्विखायत है, हमारे यहाँ इस दिशा में काम क्यों नहीं होता?
  और तो और दिल्ली में जो बच्चों के लिए अप्पू घर बना था, उसका अब कहीं नाम ही नहीं है,जब बच्चा किशोरावस्था में पहुँच जाता है,माता,पिता के पास उसको भावनात्मक समय देने का समय नहीं है, और उसको इस उम्र के पड़ाव में हारमोंस के कारण शारीरिक और मानसिक बदलाव के बारे में उठने वाली जिगयासओं का समाधान नहीं मिल पाता, तो इस युग में इन्टरनेट पर उपलब्ध सब प्रकार की सामग्री विशेष कर व्यसक सामग्री के कारण युवक,युवितियाँ भटक जातें  है, और इन युवाओं को भुगतने पड़ते हैं,दुष्परिणाम विशेषकर युवा लड़कियों को, इन लड़कियों के लिए तो असमय माँ बनना,गर्भपात कराना इत्यादि तो बहुत ही असुविधाजनक हैं,और विशेषकरइसके द्वारा होने वाला  मानसिक दवाब,  आज कल तो लिव इन रिलेशनशिप चल पड़ा है,जिसमें यह संभावनाएं बहुत बड़ जाती हैं |
 आजकल जिस खाद्य पदार्थ के बारे में सोचो उसमें मिलावट ही मिलावट है, क्या होगा वड़ते बच्चों का स्वास्थ्य ?

 माँ,बाप का समयअभाव के कारण बच्चों को भावनात्मक प्यार ना दे पाना, सुरसा के मूह की तरह बड़ती महंगाई,बच्चों के खेलने की दिन,परतिदिन स्थान की कमी होते जाना,बस्ते का और पडाई का बड़ता बोझ, पेडो की कटाई के कारण शुद्ध हवा की तेजी से होती हुई कमी,खाद्य पदार्थों में मिलावट पर कोई नियंत्रण नहीं,क्या होगा हमारी भावी पीड़ी का भविष्य ? देश के कर्णाधार क्यों नहीं सोचते इस बारें में ?,बस एक दूसरे पर दोषारोपण के कारण अतिरिक्त कोई काम नहीं इनके पास,में यह नहीं कहता देश का विकास नहीं हुआ,परन्तु अगर एक दूसरे पर दोषअपरण करना छोड़ कर,देश के भावी कर्णाधार पर भी दें तो कितना अच्छा हो |
पहले तो बहुतयात से पेड़ पौधे हुआ करते थें,लोग प्रात भ्रमण के लिए जाते थे तो पेडो से निकलने वाली स्वछ हवा का सेवन करते थे,और आज क्या मिलता है,प्रदूषित वायु, पौधों पर रंग विरंगी तितलियों के पीछे बच्चे भागते,दौड़ते थे, परन्तु अब फूलों पर मंडराती तितलियों के इस प्रदुषण के कारण देखना दुर्लभ हो गया है,यह बच्चों का भोला मनोरंजन भी समय की गर्त में चला गया है |



 मन कांप उठता है,यह सब सोच कर

3 टिप्‍पणियां:

Yashwant Mehta "Yash" ने कहा…

जब भी वर्तमान स्थितियों के प्रति आपकी निराशा और चिन्ता लेख में साफ़ झलकती है और मैं उससे सहमत भी हूँ. हमें बदलाव को अपने स्तर से शुरु करना पडेगा तभी बदलाव की लहर चलेगी और नया सवेरा आयेगा

संगीता पुरी ने कहा…

प्राचीन काल में बडे बडे राजा महाराजा भी अपने बच्‍चों का आश्रम में एक सामान्‍य जीवन जीने को भेज देते थे .. ताकि किसी भी परिस्थिति में जीने की उनकी आदत बनीं रहे .. पर आज के बच्‍चों को सुख सुविधा और भोग विलासयुक्‍त जीवन जीने की आदत पड गयी है .. जिस दिन ये नहीं मिलेगा .. उन्‍हें बहुत दिक्‍कत होगी !!

Parul kanani ने कहा…

bacchon ka bhavishay hi to nahi hai koi ..aapse puri tarah se sehmat hoon