शनिवार, नवंबर 21, 2009

मांगे मनवाने के लिए यह कैसा आक्रोश है?

याद आता है,सन १९८४ जब हमारी पुर्ब प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी को उनके ही गार्डो ने उनको गोलियों से भून डाला, और उनकी  इतालवी बहु सोनिया गाँधी उनका लहूलुहान पार्थिव शरीर लेकर आल इंडिया मेडिकल इंस्टिट्यूट लेकर पहुंची, उनके इस संसार में ना रहने का समाचार जंगल की आग की तरह सारे देश में फेल गया, और उस समय कैसा भिवत्स दृश्य पैदा हुआ, एक संप्रदाय विशेष की सम्पति की लूट,आगजनी, और इसी विशेष संप्रदाय के लोगों को आग के भेट करना,केवल इसलिए कि जिन लोगों ने श्रीमती इन्द्रा गाँधी ने गोलियों से भूना यह संप्रदाय उस सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखता था, जिनकी संपत्ति लूटी गयी, जिनको आग लगा के स्वाहा किया गया था, इस देश की भोली जनता तो आसामाजिक तत्वों के कारण क्यों बहक जाती है,संभवत शिक्षा के अवाभ्व के कारण और होता है नुक्सान जान माल का|
  यह तो बात थी सन १९८४ की जब श्रीमती इन्द्रा गाँधी की हत्या हुई थी, वोह तो एक लहर थी जिसमें यह सब हुआ था, परन्तु  अब भी जो मांगे मनवाने के लिए आन्दोलन होता है,उसमें सरकारी संपत्ति जैसे रेलगाड़ी,सरकारी बसों इत्यादि को आग लगायी जाती है, लोग भूल जातें हैं यह उन्ही के द्वारा उत्पन्न की हुई सम्पति है, और तो और निजी संपत्ति  आने जाने वाले वाहनों को आग लगाई जाती है, लोग क्यों भूल जाते हैं,उनको चलाने वाले या उसमे बैठे हुए लोग उन्ही की तरह है, क्यों अपने ही लोगों और उनकी ही जैसी संपत्ति का सर्वनाश होता है |
  इससे कम हानि वाला रास्ता है, सडको पर, रैल पथ पर जाम लगाना,परन्तु इस प्रक्रिया के कारण हो सकता है, किसी को कहीं आवश्यकता के अनुसार कहीं जाना हो सकता है,कोई गंभीर बिमारी से ग्रसित हो और अपने तीमारदारों के साथ चिकत्सालय जा रहा हो, और इस जाम के कारण देर होने से इस संसार को  अंतिम विदा कह सकता है, किसी को नौकरी के कारण साक्षात्कार के लिए जाना हो,और समय पर ना पहुचने के कारण अपनी कमाई का साधन खो सकता है, हाँ यह तो हो सकता है,उसको आजीविका कमाने के लिए दूसरा अवसर मिल जाए पर जीविका के लिए बिलम्ब तो होता ही  है |
   हाल ही में गन्ना उत्पादकों किसानो ने, महाराष्ट्र के समर्थन मूल्य ना मिलने के कारण कोई सरकारी और निजी संपत्ति का कोई नुकसान नहीं  किया था, हाँ जाम तो लगाया था, परन्तु हानि तो अपनी ही की थी,अपने स्वयं के पैदा हुए गन्ने को,और आखिर कार सरकार को विवश हो कर उनकी मांग को मानना पड़ा, अगर आन्दोलन करना है तो निजी,सरकारी संपत्ति और जान को नुक्सान क्यों |
 विदर्भ के किसानों ने तो सुखा पड़ने के कारण,अपनी फसल को सूखता हुआ देख कर कर्ज के बोझ में डूबने के कारण,अपना ही जीवन गवायाँ, उनको तो किसी और से रहत नहीं मिली,और इसके बाद  उन्होंने तो कोई भी जान,माल की हानि नहीं की बस हताश हो कर अपना जीवन ही समाप्त किया,में यह नहीं कहता कि अपना अमूल्य जीवन खो दो,बस यह बताना चाह रहा हूँ, यह बिचारे जीवन से निराश हो चुके थे,इस पर भी इन किसानों ने जान माल को हानि नहीं पहुचाई |
  में यह सन्देश उन लोगों तक पहुचना चाहता हूँ,जो लोग अशिक्षित हैं,और आसामाजिक तत्वों के बरगलाने में आ जाते हैं,और जान माल की हानि करते हैं, लिख तो रहा हूँ, चाँद पड़े लिखे लोग और उसमें भी वोह लोग जिनको कोम्पुटर के बारे में मालूम है,और उसमें भी अधिकतर ब्लॉगर लोग ही पड़ पाएंगे,परन्तु यह प्रचार में देश के सुदूर कोने,कोने गाँव,गाँव तक करना चाहता हूँ, भाषा का भी बंधन सामने आता है,में तो केवल हिंदी और अंग्रेजी जानता हूँ,चाहता हूँ यह चीज तोड़ दे भाषाई बन्धनों को |
   अपने देश के बारे में सजग हो |

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