यह तो सर्वविदित है की मानव स्वाभाव सामाजिक परिवेश,उसका लालन पालन,बदलती परिस्थितिओं के अनुसार होता है, यह भी कहा जाता है कि उसकी जन्म के समय की गृह स्थितिओं के कारण उसका स्वाभाव निर्मित होता है, यह गृह स्थिति की बात तो उन लोगों के लिए कह रहा हूँ,जो इसको मानते हैं, में अपनी ओर से इस विषय पर कुछ नहीं कह रहा हूँ, अभी में इस विषय का प्रमाण देने में अक्षम हूँ,क्योंकि मेरे स्मृति पटल से इस विषय का प्रमाण उतर गया है, लेकिन बहुधा सोचता हूँ,कि प्रमणित और स्थापित प्रमाण को भी लोग नकार देते हैं,तो प्रमाण देने की अधिक आवश्यकता भी नहीं हैं, अब आता हूँ मूल विषय पर प्राय: देखा गया है, कि अंग प्रत्यारोपित करवाने वाले का स्वाभाव में इस प्रकार से परिवर्तन हो जाता है उसका स्वाभाव , अंग प्रत्यारोपित का स्वाभाव अंग देने वाले जैसा हो जाता है, मान लीजिये अगर अंग प्रत्यारोपित करवाने वाला शांत प्रक्रति को हो,और अंग देने वाले का स्वाभाव झग्रालू हो तो,अंग प्रत्यारोपित करवाने वाले का स्वाभाव भी झग्रालू हो जाता है |
यह तो सर्वविदित है कि मानव के अंगों में नाड़ियों का जाल है,और इन नाड़ियों का संबध मस्तिष्क से है, यह नाड़ीयाँ ही बहारी संदेशो को मस्तिष्क को पहुंचती हैं,और इन्ही नाड़ियों के द्वारा मस्तिष्क अपना सन्देश अंगों को देता है,और हमारे अंगों का एछीक या अनेछिक रिफ्लेक्स इन्ही संदेशों के अनुसार होता है, और बिलकुल जाहिर सी बात है,इन नाड़ियों का जाल मानव अंगों में भी होता है, कहने का अर्थ है, इन नाड़ियों के कारण से मस्तिष्क के अतिरिक्त यह अंग भी मानव स्वाभाव को संचित कर लेते हैं,जिसको चिकत्सा विज्ञान के अनुसार सेल्लुलोर कहतें हैं, इसी कारण जब कोई किसी का अंग प्रत्यारोपित करवाता है,तो अंग देने वाले की अंगों की नाडिया अंग प्रत्यारोपित करवाने वाले के साथ जुड़ जाती है,चूंकि अंग दान देने वाले के अंग में उसका स्वाभाव संचित होता है,इस कारण अंग प्रत्यारोपित करवाने वाले का स्वाभाव अंग दान देने वाले जैसा हो जाता है,अभी तक यह पूर्ण प्रमाणित नहीं हुआ है, परन्तु इस विषय पर शोध चल रहा है,और मैंने यह भी पड़ा था स्वाभाव मस्तिष्क में जुड़ने वाली दो नाड़ियों के गेप के अनुरूप होता है,अभी बस इतना ही जब यह शोध प्रमाणित हो जायेगा तो हो सकता है,मुझे इसका साक्ष्य उपलब्ध हो जायेगा,और उस साक्ष्य के बारे में भी बता दूंगा |
चिकत्सा शास्त्र का नया शोध
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