नरेश तो फेल हो चुका था,परन्तु सुरेश परीक्षा में प्रथम श्रेणी में पास हो चुका था, और अवसाद से ग्रसित,अपने को हीन समझने वाले नरेश ने और अधिक परिश्रम किया तो नरेश अबकी बार परीक्षा में अच्छे नम्बरों से परीक्षा में,उतीर्ण हो गया है था, परन्तु एक बार परीक्षा में अनुतीर्ण होने के बाद नरेश का उत्साह कोई क्यों बड़ाता, आगे नरेश को पड़ना तो था ही, सो उसने बी.स.सी में दाखिला ले लिया था,परन्तु नरेश की होनी में क्या लिखा था? यहाँ पर भी उसके साथी उसका उपहास करते थे, उसके कुछ साथी उसको निशाना बना कर उसका उपहास करते थे, और शेष बचे हुए उसके साथी उस बेचारे निशाना बने हुए नरेश को लेकर हंसते थे,संभवत: संभवत: उसके भोले स्वाभाव के कारण, उसने बी .एस .सी का विकल्प इसलिए चुना था, कि और रास्ता नहीं था, बी.एस.सी के कारण वोह कुछ बन सकता था, लेकिन मूल रूप से उसका झुकाव हिंदी और अंग्रेजी की ओर था, इसके साथ वोह समाचार पत्रों में इंजीनियरिंग कोलेजो का विगयापन देखता रहता था, उस समय भविष्य के लिए दो ही विकल्प थे, नरेश इंजीनियरिंग के विकल्प को डाक्टर के विकल्प से अच्छा समझाता था, इसी बीच में नरेश का बी.एस .सी प्रथम वर्ष का परीक्षाफल आ चुका था, लेकिन उसके नम्बर बहुत कम, मतलब कि तृतीय श्रेणी के नम्बर, अब उसके माँ था पिता दोनों कहने लगे इतने कम नम्बरों में बी.एस सी कर के क्या करोगे?
लेकिन इस बार नरेश का भाग्य कुछ अच्छा था, यह तो नहीं कह सकता बहुत अच्छा, नरेश ने रासयन की इंजीनियरिंग और सिविल इंजीनियरिंग दोनों का फार्म भरा, उसकी सिविल इंजीनियरिंग में रसायन की इंजीनियरिंग से अधिक रुचि थी, लेकिन नरेश,था सुरेश की आयु ऐसी हो चुकी थी,जहाँ पर बच्चों को स्वयं निर्णय ले कर स्वालंबी बनना चाहिए,वहाँ पर पिता अपने निर्णय देते थे,और तो और जहाँ पर बच्चों को चुनोतियाँ का सामना करना आना चाहिए,वहाँ पर उन चुनोतियों को उनके पिता जी स्वयं अपने अनुभव के कारण दूर कर देते थे, और बहुत बार दोनों बच्चों से यह भी बोलते थे, "तुम्हारे बस का नहीं है", नरेश का स्वाभाव में इस बात का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वोह स्वालंबी ना होकर प्रालम्बी हो गया था,जबकि सुरेश इस बात को चेलेंज के रूप में स्वीकार करता था, यहं भी विधि को जैसा स्वीकार था, नरेश के पास रसायन इंजीनियरिंग फार्म पहले आ चुका था, उसके पिता जी नरेश को लेकर रसायन इंजीनियरिंग के कालेज में लेकर पहुंचे,और उसका उस रासयन इंजीनियरिंग के लिए चयन हो गया था, चूंकि नरेश सिविल का भी फार्म भर चुका था, तो उसने अपना साक्षात्कार उस रासयन शास्त्र के इंजीनियरिंग कोलेज में इस प्रकार दिया कि उसका चयन ना हो पायें,परन्तु उसके साक्षात्कार लेने वालों को नरेश के बारे में क्या लगा उसका चयन हो गया,लेकिन उन लोगों में से किसी ने नरेश के पिता जी को बुला कर कुछ कहा, चूँकि पिता जी के सामने बात करते हुए वोह,उनसे घबराहट के कारण कुछ शब्द चबा जाता था, तो नरेश के पिता जी नरेश से पूछा,"क्या तुम शब्द चबा गये थे?",बस नरेश चुप, अभी नरेश को रसायन शास्त्र वाले कोलेज में ज्वाइन करने का कुछ समय शेष था,और इसी बीच में सिविल इंजीनियरिंग वाले कोलेज से भी आमंत्रण आ गया था,परन्तु नरेश को तो पिता की जबरदस्ती के कारण अपनी मर्जी के विरुद्ध उसे रासयन शास्त्र वाले कोलेज में ही दाखिला लेना ही पड़ा |
मालूम नहीं नरेश के भाग्य में क्या बदा था,उसके यहाँ भी उसके सहपाठियों द्वारा उसका उपहास, किसी प्रकार उसने अपने कोलेज के पड़ाइ को पूरा किया, लेकिन उसके रसायन शास्त्र के इंजीनियरिंग कोलेज के अंतिम वर्ष में,वोह किसी गलती के कारण परीक्षा अनूतिर्ण घोषित हो गया, लेकिन बाद में उसकी परीक्षा की गलती में सूधार हो गया था,और उसको रासयन शास्त्र के सनातक की डिग्री मिल चुकी थी,और वोह बन गया केमिकल इंजिनियर, बस अ़ब सुरेश और नरेश के पिता जी तथा माँ का भी वर्णन सुरेश के साथ कर दूं,दोनों बच्चों के यह पिता जी और माँ दोनों कुछ डरपोक स्वाभाव के भी थे, चूंकि सुरेश तो पिता जी की बातों को एक चेलेंज की भांति लेता था, इसलिए उसका चयन हर स्थान पर हो जाता था,और एक बार सुरेश का चयन नोसेना में हो गया, और नेवी में ज्वाइन करने के लिए सुरेश का वारंट आ गया था, तो डर के कारण सुरेश के पिता जी ने फाड़ दिया वोह वारंट,और माँ भी घबरा गयी थी |
क्रमश :
2 टिप्पणियां:
समीर जी,आपकी के कारण मेने इस कहानी के प्रथम भाग में,सशोधन कर लिया,क्रिपया इस दूसरे भाग को उसी द्रिष्टी से देखें,धन्यवाद ।
विनय
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