रविवार, फ़रवरी 01, 2009

मेरी जीवनी भिवानी

अब मैं पापा के साथ बस मैं बैठ कर के, भिवानी की ओर रोहतक के रास्ते होते हुए जा रहा था, अब मेरी टेक्सटाइल इंजिनियर बनने की परक्रिया आरम्भ होने वाली थी, यह शायद मेरा पहेली बस की लम्बी यात्रा थी जो कि मुझे याद हैं।
आखिरकार हम लोग हरियाणा मैं स्थित भिवानी शहर पहुँच चुके थे, रात्रि का समय था तब मैं पापा के साथ वहाँ के गेस्ट हाउस मैं रुका था, सुबह के समय मेरा साक्षात्कार होने वाला था, समय को तो जैसे पंख लग गए और मेरा साक्षात्कार का समय पहुँचा था, क्योंकि मैं टेक्सटाइल मैं दाखिला ना लेकर कर के चंडीगढ़ मैं सिविल मैं लेना चाहता था,अतः मैंने साक्षात्कार बिना सर आदि सम्मान देने वाले शब्दों को दरकिनार रखा तो, प्रिंसिपल महोदय ने मुझसे पूछा कि तुम्हारे साथ कोई आया हुआ है, तो मैंने पापा का नाम लिया,तब प्रिंसिपल महोदय ने पापा को बुलाया और कुछ बात की, तब पापा ने प्रिंसिपल के कक्ष से निकल कर मुझसे पूछा कि," क्या तुम शब्दों को चबा गए थे", क्योंकि पापा के सामने मैं घबहराहट के कारण शब्दों को चबा जाता था, पर होनी को तो येही मंजूर था,और मेरा दाखिला भिवानी के "T.I.T" मैं हो गया था,क्योकि मेरे भाग्य मैं तो टेक्सटाइल इंजिनियर बनना ही था।
अब मुझे फर्स्ट इयर की लॉबी मैं कमरा मिल गया था, और मेरी इंजिनियर बनने कि परक्रिया आरम्भ हो गयी थी, यहाँ पर नए विद्यार्थियों कि रेगिंग होती थी, यह तो परतेयक इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज का तरीका है, यहाँ पर हम लोगो को आज के जमाने मैं कहें जाने वाले तरीके सिखाये जाते थे, जो कि मुझे अच्छे नहीं लगते थे।
यहाँ तक तो ठीक था परन्तु मैंने एक लड़के को दो सीनियर लड़को से पिटते हुएय देखा, तो मेरे मन मैं डर समां गया,इसलिए मैं भूख लगने पर भी मेस मैं नहीं गया, और औदोतोरिअम मैं बैठ गया, आखिर औदोतोरिअम तो बंद होना ही था, पेओन आया और बोला औदोतोरिअम बंद हो जायगा, पता नहीं मैं कब और कैसे औदोतोरिअम से बहार आया, बाद मैं प्रिंसिपल मह्दयो ने हम लोगो को बुलाया और सब सीनियर लड़को की फोटो दिखा कर पहचान करवाई थी, और पूछा कौन परेशान करता हैं, और हम लोगो को एक दीवार के पीछे खड़ा कर दिया और उन लड़को की पिटाई की।
इसके बाद हम लोग अपने,अपने घरो की तरफ़ चल दिए।
एक बात तो है, प्रोफेशनल कॉलेज मैं अनुशाशन जाता है, ट्रेनिंग ही इस तरह की होती है, और जीने का सलीका जाता है, अब मैं पेहेह्नेन्य, औरने के मामले मैं लापरवाह हो गया हूँ, पर पहेले नहीं था, इन्सान प्रोफेशनल कॉलेज मैं सुसंस्र्कित हो जाता है, चाएं उसे नॉन वेज पाठ पदाया जाता है, पर सुसंस्कृत होने की भी ट्रेनिंग दी जाती है, मेरी सबसे पहेले दोस्ती प्रकाशनारायण जो कि पिथोरगढ का रहने वाला था, उससे हुई थी, कॉलेज से आने के बाद मेस मैं रिफ्रेशमेंट लेने के बाद सिटी बजती थी, और हम लोगो को खेल के मैदान मैं जाना पड़ता था, खेर मैं तो क्रिकेट और बदमिन्तों खेलता था, मुझे तो परेशानी नहीं होती थी, पर ना खेलने वालों को घास छेलनी पड़ती थी, यहाँ पर मैं अपने सेसिओनल पूरे रखता था, और लोग मेरे सेसिओनल ले कर के अपना काम पूरा करते थे। अब हमारा प्रथम सेमेस्टर पूरा हो गया था, और मैं प्रथम सेमेस्टर मैं उतीर्ण हो गया था और मैंने कॉलेज के साथ लगे हुए हनुमान जी के मन्दिर मैं प्रसाद चढ़ाया था, परतेयक सेमेस्टर के बाद अवकाश हो जाता था, अब मैं दूसरे सेमेस्टर मैं पहुँच चुका था, यहाँ पर मैंने प्लेन चिट शुरू किया था, जो कि आत्मा को बुलाना होता है, पता नहीं आत्माएं आती हैं या उँगलियों के कम्पन के कारण उत्तर मिलता है, पर फिर मुझे अनहोनी का सामना करना पड़ा, पता नहीं कैसे मेरे सहपाठी जामवाल को पता लग गया, कि हमारे किसी सीनियर के यहाँ चोरी हो गयी, जो कि आम तोर पर हमारे कॉलेज मैं नहीं होती थी, प्लेन चिट पर पूछने पर हमारे सीनियर ..अग्गार्वल का नाम आया, तब मेरे को जगह जगह प्रतरित किया जाने लगा, पर यह सिलसिला अधिक नहीं चला क्योंकि इंजीनियरिंग कॉलेज मैं एक दूसरे की सहायता की जाती है, आखिरकार फ्रेशर डे गया, वासवानी मिस टी..टी बना और गुलशन धारा मिस्टर टी..टी, मेरे को भी अपना इंट्रो एक निर्लाये अंदाज मैं करने को तयार किया गया।
मेरे को अपने बाकी के दूसरे,तीसरे साल का याद नहीं पर मुझे याद हैं,कि अब मेरा साथ शास्त्री और कैलाश के साथ हो गया था, शास्त्री को तो मैं पढाता था, पर पापा के पास अधिक पैसे ना होने के कारण मुझे सादा रहने के कारण कैलाश के द्वारा उपहास का पात्र बनना पड़ता था, मेरे सहपाठी तो इतने स्मार्ट नहीं थे, अतः मेरी दोस्ती मेरे सेनिओरों के साथ हो गयी थी, जैसे टिक्कू, अश्वनी, जोश इत्यादि।
जमाना अब हिप्पिओयों का चुका था, मैंने भी अपना कमरा उस हिसाब से रखा हुआ था, अब आखिर का सेमेस्टर रह गया था, बस प्रोजेक्ट ही बनाना होता था, वैश और रूप किशन धर मेरे प्रोजेक्ट पार्टनर थे, अब भारत भ्रमण का अवसर गया था, हम लोग भारत भ्रमण के बाद अलग,अलग हो गए थे, मेरा गाजिआबाद के स्वदेशी पोल्य्तेक्स का कॉलेज इंटरव्यू हो चुका था, और मैं आखिरकार सदा के लिए भिवानी छोड़ कर के गाजियाबाद के लिए गया था, जब मैं फयानाल इयर मैं था, तो एक दिन देखा पापा के साथ मेरा छोटा भाई भी इस विद्यालय के लिए चला रहा था, एक साल तो हम दोनों ने इस विद्यालय मैं साथ बिताया, अब मैं गाजियाबाद मैं चुका था, और मेरे पर टेक्सटाइल इंजिनियर की मोहर लगना शेष था, उससे पहले मैंने नौकरी का प्रारम्भ किया था, उस फैक्ट्री से जो कि हिंदुस्तान मैं प्रसिद्ध थी, पर अब तो उसका अवशेष भी नहीं रहा पता नही, समय का बदलाव इस तरह की फक्टोर्यिओं को क्यों समाप्त कर चुका है, अब मैं विद्यार्थी जीवन से निकल कर के इस पूर्ण रूप से विकसित ना हो कर के जीवन के कड़े यथार्थ की ओर चल पड़ा था, शेष गाजियाबाद के दूसरे चरण मैं, जब मैंने कमाना शुरू किया था, और इंजिनियर की मोहर लगना शेष था।

कोई टिप्पणी नहीं: