आज मेरे मन में एक विचार आया किसी भी मानव जाति की प्रशंसा करें तो मन से करें, अथवा बुझे मन से या चापलूसी करने के बहाने ना करें, व्यंग,बझे मन से प्रशंसा और चापलूसी के कारण प्रशंसा पाने वाले के मन पर तुषारापात सा हो जाता है, इस विचार का मेरे मन में आने का कारण है,किसी मेरे मित्र की उपलब्धि पाने पर किसी ने कहा कि, मालूम नहीं "इसको यह उपलब्धि किस प्रकार मिल गयी ?",जबकि उसकी उपलब्धि असाधारण थी और दूसरे लोग उसकी उपलब्धि की भूरी,भूरी प्रशंसा कर रहे थे,परन्तु उस व्यक्ति द्वारा की गयी टिप्पणी ने मेरे मित्र की ख़ुशी को अत्यंत आघात पहुँचाया और अपनी उस उपलब्धि के कारण, उसका चेहरा बुझा,बुझा सा हो गया, यह मानव स्वाभाव हैं, उसको लाख खुशियाँ मिलें, परन्तु एक इस प्रकार की टिप्पणी उसको आघात पहुंचा जाती हैं,और संवेदनशील व्यक्ति को कुछ अधिक ही व्यथित कर देती है |
मैंने आज ही अंग्रेजी के समाचार पत्र की एक पत्रिका में किसी का व्यान पड़ा था, "love is giving all those things which you can give which you have", प्रेम की उस व्यक्ति की दी हुआ यह व्यान मुझे बहुत अच्छा लगा था, कि प्रेम वोह जिसमें आप वोह सब चीज दे दें जो आप दे सकतें हैं,और उक्त घटना में तो मैंने इसके विपरीत ही देखा, अगर मेरे उस मित्र को उसकी इस उपलब्धि पर,बिना मोल की प्रशंसा मिल जाती तो उसको प्रोत्साहन मिल जाता, और वोह और उत्साह से अपने उस कर्म में लग जाता, मालूम नहीं यह द्वेष की भावना थीया उसको महत्वविहीन दिखाने की भावना थी, या स्वयं को उससे अधिक श्रेष्ठ दिखाने का प्रयास या जिसको यह बात कही गयी थी, उसको मेरे मित्र से श्रेष्ठ दिखाने का प्रयास |
में तो बहारी सुन्दरता से अधिक आंतरिक सुन्दरता को महत्व देता हूँ, अगर वोह व्यक्ति उक्त टिप्पणी ना देकर उसकी ख़ुशी में अपनी ख़ुशी देखता तो उसमें उसकी आन्तरिक सुन्दरता ही झलकती, दूसरे के चेहरे पर मधुर मुस्कान लाना ही मेरे अनुसार वास्तविक प्रेम है,उक्त टिप्पणी के साथ में इस लेख का समापन करता हूँ |
2 टिप्पणियां:
सत्य वचन!!
बहुत अच्छी बातें कही आपने !!
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