ब्लोगवाणी के सथागित होने पर ब्लोगवाणी के पाठक वर्ग,और लेखको में निराशा फैल गयी थी, सोचा कि माहौल को कुछ हल्का फुल्का कर दूं, वैसे तो हमारे पिता जी का देहावसान ८२ वर्ष की आयु में हो गया था, लेकिन आज भी उनकी कुछ यादें मन को गुदगुदा जातीं है, वोह गुलाम देश के अंग्रेजो से बहुत प्रभावित थे, उनका जन्म मथुरा नगरी में हुआ था,और उनको M.A. अंग्रजी में करने के लिए अल्ल्हाबाद भेजा गया था, अगर किसी साइनबोर्ड पर कुछ अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओँ में लिखा होता था,तो उनको हिंदी में पड़ना गवारा नहीं था, बस वोह अंग्रेजी में ही पड़ते थे, और यह अंग्रेजी भी विचत्र भाषा हैं,अगर put पुट है,तो but बट हैं, एक बार पिता जी को किसी पुस्तक की आवयश्कता पड़ी तो वोह चल पड़े,वोह किताब लेने,घुमते,घुमते उनकी निगाह किसी साइनबोर्ड पर पड़ी जिस पर अंग्रेजी में kitabistan लिखा हुआ था,और उसके ठीक नीचे लिखा हुआ था किताबिस्तान,पर पिता जी को हिंदी में पड़ना गवारा नहीं था,लिहाजा उन्होंने उसको अंग्रेजी में पड़ा कइटबसतन,और बिना पुस्तक लिए पहुँच गये वापिस अपने छात्रावास, उन्होंने अपने सहपाठियों से पुछा अमुक पुस्तक कहाँ मिलेगी,तो किसी उनके सहपाठी ने उस किताबिस्तान का रास्ता बता दिया, वोह वहीँ पहुंचे और अपनी आवयश्कता की पुस्तक खरीद लाये |
यह तो उनका बताया हुआ किस्सा है, उनका अंग्रेजी बोलने के कुछ हास्यापद किस्से तो मेरे साथ भी हुए थे, उनमे से दो का जिक्र कर रहा हूँ, हम लोग उन दिनों छोटे,छोटे हुआ करते थे, उस ज़माने में दूरदर्शन तो होता नहीं था,बस रेडियो ही एक मात्र मनोरंजन का साधन था,और रेडियो में एक सुई होती थी,जो की एक डोरी के ऊपर चलती थी, इसी से रेडियो स्टेशन का निर्धारण होता था,एक बार वोह डोरी टूट गयी, तो वोह मुझे बोले लाला को बुला लाओ,वोह लाला परचून की दूकान करता था,और उसको रेडियो ठीक करने का अनुभव भी था,में उस लाला के पास पहुंचा और मैंने उस लाला से उन्ही के शब्दों में कहा "रेडियो का Dial Cord टूट गया",पापा बुला रहें हैं,अब लाला हैरान,परेशान मेरे साथ अपने औजार लेकर के चलने लगा, उसको डायल कॉर्ड समझ नहीं आया था, मेरे साथ चलते चलते वोह अचानक रूक कर बोला ठेर जाओ में अभी मल्टीमीटर ले कर आता हूँ,पता नहीं डायल कॉर्ड क्या होता है,खेर वोह घर पर आया उसने रेडियो की डोरी ठीक करी, और मुझ से बोला यह दूकान पर ही बता देते डोरी टूट गयी है |
इसी प्रकार मुझे एक और किस्सा याद आ रहा हूँ, मेरी नयी,नयी नौकरी लगी थी,और हम लोगों को कोन्वेयोंस अलओनस मिलता था,उस जमाने में यजदी बाईक का चलन था, मैंने भी खरीद ली,अब मुझे उस पर पिट्ठू लगाने की आवयश्कता पड़ी, सो पिता जी भी चल पड़े मेरे साथ पिट्ठू लेने, और दूकान वाले से बोले हैबेरसेक देना,दूकान वाला बोला "बाउजी यह हेबरसेक क्या होता है?", मैंने जब कहा एक "पिट्ठू देना" तो उसने मुझे पिट्ठू दे दिया,पिता जी हर एक से अंग्रेजी के शब्दों में बात करते थे, चाहें अगला समझे या ना समझे |
अपनी बड़ती उम्र के कारण वोह कुछ ऊँचा सुनने लगे थे,वैसे तो उन्होंने ऊँचा सुनने की मशीन खरीद रखी थी, पर उसका प्रयोग कम ही करते थे, अक्सर हम लोग उनके साथ उनकी गाड़ी में बैठ कर के घुमने जाया करते थे, और उनका ड्राईवर गाड़ी चलाया करता था,एक बार सदा की भांति उनके साथ घुमने जाया करते थे, गाड़ी के डेक में उस समय का गाना बज रहा था,"दिल देने की रुत आई", तो उन्होंने पता नहीं क्या सुना, अपने ड्राईवर चुन्नू से बोले "क्यों बे चुन्नू क्या कह रही है,दिल्ली में लुगाई",हम लोगों का हंसते,हंसते बुरा हाल और चुन्नू के हाथ से तो गाड़ी का स्टीरिंग हंसते,हंसते छुट गया |
अविनाश जी से शमा याचना के साथ इस पोस्ट का अंतिम पारूप दे रहा हूँ, क्योंकि अगर उनके ब्लॉग पिताजी में लिखता तो उसको एडिट करना कठिन हो जाता, बस अंत में यही कहना चाहता हूँ,हंसते रहो,हंसाते रहो, और ब्लोगवाणी के पुन: लौटने पर खुशियाँ मनाओ,और ऐसा कोई कार्य ना करो जिससे ब्लोगवाणी को अघात पहुंचे |
सबके होंठो पर मुस्कान देखने की इच्छा से इस पोस्ट का पटाक्षेप | |
2 टिप्पणियां:
हंस रहे हैं और ब्लॉगवाणी के वाप आने की खुशियाँ मना रहे हैं.
जिन्हें आप कह रहे हैं फनी बातें
इनमें सहज ही हनी भरा हुआ है।
आप इसे पिताजी ब्लॉग पर अवश्य लगायें।
प्रसन्नता होगी।
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