राज पिछले जन्म का सीरियल जो दूरदर्शन पर आ रहा था, और कुछ ही दिन पहले समाप्त हुआ है, इस सीरियल पर इस बात में ना पड़ कर कि यह सच है कि नहीं,मुझे यह बहुत अच्छा लगा बहुत से लोग इस राज पिछले जन्म के सीरियल के माध्यम से,जिसमे डाक्टर तृप्ति जैन लोगों को,रिसेशन के माध्यम से पूर्व जन्म में ले जातीं थीं लाभान्वित हुए, और इस प्रक्रिया में से बहुत से लोगों के डर, उनके अपने बारे में संदेहों का निवारण हो गया है |
यह सीरियल में दूरदर्शन पर यदा,कदा देखा करता था, और सोचा करता था कि जो भी लोग इस प्रक्रिया से गुजरे हैं,उनका अनुसरण भी होना चाहिए,कि उनको वास्तव में लाभ हुआ कि नहीं, इस सीरियल पर बहुत से विवाद उठे थे, इतने वर्षों तक आत्मा कहाँ रहीं ?, किसी ने यह नहीं बताया कि वोह पुर्ब जन्म में जानवर था या थी ? इस सीरियल में बहुत सी जानी,मानी हस्तियाँ और साधारण लोग आये थे, और उन सबको अपनी,अपनी समस्यों का समाधान मिल गया था, बहुतों का डर निकल गया था,वोह लोग जो भी समस्याओं को लेकर आये थे,वोह समस्याएं जिन के बारें में वोह लोग जानना चाहते थे,जिस का उत्तर उनको नहीं कहीं भी मिल पता था,वोह उत्तर इन लोगों को मिल गया था |
किसी को छुरी से डर लगता था, किसी को पानी से डर लगता था और भी अनेकों प्रकार के डर, कोई जानना चाहती थी उसके सम्बन्ध अपने पिता से इतने मधुर क्यों नहीं, या किसी को पीठ में दर्द होता था,वोह दर्द जो कहीं और ठीक नहीं हो पाया वोह ठीक हो गया,किसी को पानी से डर और किसी को भीर से डर,किसी को उचाई से डर सब निकल गयें |
में इस सीरियल को देख कर सोचता था,इन लोगों का अनुसरण होगा कि नहीं, आखिरकार वोह दिन आ ही गया,इन लोगों ने यह बताया कि उन लोगों की समस्याएँ दूर हो गयीं थी, इन लोगों ने यह भी बताया था कि इन लोगों को कोई भी स्क्रिप्ट नहीं दी गयी थी, सब कुछ स्वाभाविक था, इस विवाद में ना पड़ कर कि यह ढकोसला है,या हकीकत, अगर इस प्रक्रिया से लोग लाभान्वित होतें हैं,तो यह बहुत अच्छी प्रक्रिया है |
हम सिक्के के दो पहलु में से अच्छा पहलु क्यों नहीं देखें ?
गुरुवार, जनवरी 28, 2010
बुधवार, जनवरी 27, 2010
क्यों हो रहा है, क्रिकेट का व्य्वासिकरण मतलब (आई.पी.एल )
आज के युग में देखा जाये,हर वस्तु का व्य्वासिकरण हो रहा है, जैसे कला का व्यवसायीकरण कला भी व्यवसायीकरण की शिकार हो रही है, जिस वस्तु का कोई मापदंड नहीं होना चाहिए, उसको दूरदर्शन पर दिखाया जाता है,और और उसको पॉइंट्स दिए जाते हैं, मेरा मतलब कला से है,और अगर खेल जगत में आयें तो बहुत से हमारे देश में होने वाले खेल हैं, जो की क्रिकेट के खेल के आगे गोण हैं, और बहुत से खेल तो दुर्दशा की कगार पर हैं, जैसे हमारा राष्ट्रीय खेल होकी,जिसका पूर्व में विश्व में डंका बजा करता था, वोह तो इस कगार पर पहुँच चुका है, होकी इंडिया को होकी के खिलाडियों को देने के लिए पैसे नहीं हैं,जैसे तैसे पुरुष होकी खिलाडियों की दशा में सूधार हुआ, परन्तु अ़ब होकी इंडिया को उन होकी की महिला खिलाडियों के लिए पैसे नहीं हैं,जिन्होंने हाल में ही बहुत से कीर्तिमान स्थापित किये हैं, और इन महिला खिलाडियों ने अपना बैंक अकाउंट खोल कर जनता से पैसों की अपील करके,होकी इंडिया को एक एक गहरा आघात दिया है,और जनता ने भी इन महिला खिलाडियों का बखूबी बहुत साथ दिया है |
यह तो रही होकी की दुर्दशा, और भी बहुत से खेल हैं, जिनमें खिलाडी परसिद्ध हो जाते हैं,लोग उन खिलाडियों की पहचान तो बना लेते हैं, पर खेलो की नहीं, टेनिस की खिलाडी सानिया मिर्जा को लोग पहचानते हैं,परन्तु टेनिस का उतना महत्व नहीं, इसी प्रकार बेडमिन्टन की खिलाडी साईंना नेहवाल जैसी शीर्ष खिलाडी को तो पहचानते हैं, परन्तु बेडमिन्टन का कितना महत्व है,सर्वविदित है, इसी प्रकार मुक्केबाजी के खिलाडी विजेंदर या शूटिंग के खिलाडी अभिनव बिंद्रा को लोग पहचानते हैं,पर यह खेल कितने लोकप्रिय सब जानते हैं |
और हमारे देश में क्रिकेट की तो जैसे पूजा सी होती है, सबसे अधिक लोकप्रिय खेल है तो यही क्रिकेट है, लोग अपने देश क्या विदेशों के क्रिकेट के खिलाडियों तक को पहचानते हैं, और इस खेल के आगे होकी,फूटबाल,वोल्लीवोल इत्यादि सब खेल तो जैसे बोने हो जातें हैं, और जब यह खेल क्रिकेट खेला जाता है,तो सारे के सारे कार्यकलाप स्थगित से हो जाते हैं, लोग दूरदर्शन से चिपट कर बैठ जातें हैं,और जब दूरदर्शन नहीं था, तब लोग सारे के सारे काम काज छोड़ कर रेडियो,ट्रांसिस्टर से कान लगा कर बैठ जाते थे, इसकी दीवानगी इस हद तक थी,कि ओफ्फिसों में एक सन्नाटा सा पसर जाता था, प्रारंभ में तो पॉँच दिनों का क्रिकेट होता था, उस समय जो भी अपने देश और विदेश की क्रिकेट की टीमें आपस में भिड़ती थी तो एक रोमांच सा पैदा होता था, फिर आया एक दिन का क्रिकेट वोह भी रोमनचित करने वाला होता था, फिर आया रात दिन खेलने वाला क्रिकेट वोह भी रोमांचक अनुभूति करता था, फिर जमाना आया 50,50 ओवर का क्रिकेट तब तक भी गनीमत थी, इन सब प्रकार के क्रिकेट में तो खिलाडियों की क्षमता का आकलन होता था, और इसके बाद आया 20,20 ओवर का क्रिकेट,अब यह क्रिकेट कहाँ रह गया था,बस एक प्रकार का जुआ ही तो है, जिस टीम का तुक्का अधिक रन बनाने का लग गया वोह टीम जीत गयी,खिलाडियों की क्षमता का प्रश्न तो उठता ही नहीं,उनका आकलन इस प्रकार के क्रिकेट में किस प्रकार हो ?
और एक और क्रिकेट का प्रचलन हो गया है, आई.पी.एल, खिलाडियों की नीलामी लगी और इन खिलाडियों को अलग,अलग मालिकों ने खरीद लिया, अब यह खेल खिलाडियों के बीच में कहाँ रह गया, यह खेल तो मालिको के लिए हो गया है, और टीमयें भी कैसी,एक देश के एक टीम के कुछ खिलाडी एक मालिक के पास और उसी देश के कुछ खिलाडी दूसरे मालिक के पास,और खेल भी कैसा इन दोनों मालिकों के खिलाडियों के बीच में मैच, अब कहाँ रहा उस प्रकार का रोमांच जब एक देश के खिलाडी और दूसरे देश के खिलाडियों के बीच में मैच होता था, जब कोई चीज कभी,कभी देखने को मिलती है,तो अच्छी लगती है, परन्तु जो चीज रोज,रोज होने लगे तो उसमें स्वाभाविक है, रुचि कम होने लगती है,और इस प्रकार के आई.पी.एल के मैच नित,प्रतिदिन होने लगे हैं,तो कहाँ रहेगी वोह रुचि ? और यह भी जाहिर सी बात है ,अगर दिन प्रतिदिन खेल खेला जायेगा तो खिलाडियों को चोटे लगना तो निश्चित ही है, शरीर को अभी आराम भी नहीं मिला,और अपने मालिकों के लिए खेलने को फिर तय्यार तो इस प्रकार के मैच की क्या दशा होगी,सहज अनुमान लगाया जा सकता है, इन्सान को पैसे का लालच तो स्वाभाविक है ही,यह खिलाडी पैसे के लालच में आकर अपने मालिकों के लिए नीलाम हो कर यह खेल क्रिकेट खेलते है,तो इसमें स्वाभाविक आकर्षण कहाँ से आएगा?
यह तो सब रहा पुरष क्रिकेट का हाल, लेकिन महिला क्रिकेट को कौन जानता हैं ? कौन जनता भारत की महिला क्रिकेट की कप्तान झूलन गोस्वामी है,या कौन जनता है अंजुम चोपरा को, वस पुरष क्रिकेट के आगे यह महिला क्रिकेट और अन्य खेल गौण और इसमें भी आई.पी.एल क्रिकेट आज चरम पर है, और इस आई.पी.एल के कारण हमारे पडोसी देश पाकिस्तान के खिलाडियों को आई.पी.एल में ना लेना एक विवाद बन गया है,आगे चल कर पता नहीं क्या,क्या होगा,हो सकता है,इन आई.पी.एल क्रिकेट टीम के स्वामियों में झगड़े,विवाद इत्यादि हों |
क्रिकेट बोर्ड के पास तो बेशुमार दौलत है, सरकार ऐसा नियम क्यों नहीं बनाती की सब प्रकार के खेलों के सामान रूप से धन मिले,तो और खेलों को भी प्रोत्साहन मिलेगा,और हमारे राष्ट्रीय खेल होकी की ऐसी दुर्दशा नहीं होगी |
आई.पी.एल का क्या औचित्य है ?
यह तो रही होकी की दुर्दशा, और भी बहुत से खेल हैं, जिनमें खिलाडी परसिद्ध हो जाते हैं,लोग उन खिलाडियों की पहचान तो बना लेते हैं, पर खेलो की नहीं, टेनिस की खिलाडी सानिया मिर्जा को लोग पहचानते हैं,परन्तु टेनिस का उतना महत्व नहीं, इसी प्रकार बेडमिन्टन की खिलाडी साईंना नेहवाल जैसी शीर्ष खिलाडी को तो पहचानते हैं, परन्तु बेडमिन्टन का कितना महत्व है,सर्वविदित है, इसी प्रकार मुक्केबाजी के खिलाडी विजेंदर या शूटिंग के खिलाडी अभिनव बिंद्रा को लोग पहचानते हैं,पर यह खेल कितने लोकप्रिय सब जानते हैं |
और हमारे देश में क्रिकेट की तो जैसे पूजा सी होती है, सबसे अधिक लोकप्रिय खेल है तो यही क्रिकेट है, लोग अपने देश क्या विदेशों के क्रिकेट के खिलाडियों तक को पहचानते हैं, और इस खेल के आगे होकी,फूटबाल,वोल्लीवोल इत्यादि सब खेल तो जैसे बोने हो जातें हैं, और जब यह खेल क्रिकेट खेला जाता है,तो सारे के सारे कार्यकलाप स्थगित से हो जाते हैं, लोग दूरदर्शन से चिपट कर बैठ जातें हैं,और जब दूरदर्शन नहीं था, तब लोग सारे के सारे काम काज छोड़ कर रेडियो,ट्रांसिस्टर से कान लगा कर बैठ जाते थे, इसकी दीवानगी इस हद तक थी,कि ओफ्फिसों में एक सन्नाटा सा पसर जाता था, प्रारंभ में तो पॉँच दिनों का क्रिकेट होता था, उस समय जो भी अपने देश और विदेश की क्रिकेट की टीमें आपस में भिड़ती थी तो एक रोमांच सा पैदा होता था, फिर आया एक दिन का क्रिकेट वोह भी रोमनचित करने वाला होता था, फिर आया रात दिन खेलने वाला क्रिकेट वोह भी रोमांचक अनुभूति करता था, फिर जमाना आया 50,50 ओवर का क्रिकेट तब तक भी गनीमत थी, इन सब प्रकार के क्रिकेट में तो खिलाडियों की क्षमता का आकलन होता था, और इसके बाद आया 20,20 ओवर का क्रिकेट,अब यह क्रिकेट कहाँ रह गया था,बस एक प्रकार का जुआ ही तो है, जिस टीम का तुक्का अधिक रन बनाने का लग गया वोह टीम जीत गयी,खिलाडियों की क्षमता का प्रश्न तो उठता ही नहीं,उनका आकलन इस प्रकार के क्रिकेट में किस प्रकार हो ?
और एक और क्रिकेट का प्रचलन हो गया है, आई.पी.एल, खिलाडियों की नीलामी लगी और इन खिलाडियों को अलग,अलग मालिकों ने खरीद लिया, अब यह खेल खिलाडियों के बीच में कहाँ रह गया, यह खेल तो मालिको के लिए हो गया है, और टीमयें भी कैसी,एक देश के एक टीम के कुछ खिलाडी एक मालिक के पास और उसी देश के कुछ खिलाडी दूसरे मालिक के पास,और खेल भी कैसा इन दोनों मालिकों के खिलाडियों के बीच में मैच, अब कहाँ रहा उस प्रकार का रोमांच जब एक देश के खिलाडी और दूसरे देश के खिलाडियों के बीच में मैच होता था, जब कोई चीज कभी,कभी देखने को मिलती है,तो अच्छी लगती है, परन्तु जो चीज रोज,रोज होने लगे तो उसमें स्वाभाविक है, रुचि कम होने लगती है,और इस प्रकार के आई.पी.एल के मैच नित,प्रतिदिन होने लगे हैं,तो कहाँ रहेगी वोह रुचि ? और यह भी जाहिर सी बात है ,अगर दिन प्रतिदिन खेल खेला जायेगा तो खिलाडियों को चोटे लगना तो निश्चित ही है, शरीर को अभी आराम भी नहीं मिला,और अपने मालिकों के लिए खेलने को फिर तय्यार तो इस प्रकार के मैच की क्या दशा होगी,सहज अनुमान लगाया जा सकता है, इन्सान को पैसे का लालच तो स्वाभाविक है ही,यह खिलाडी पैसे के लालच में आकर अपने मालिकों के लिए नीलाम हो कर यह खेल क्रिकेट खेलते है,तो इसमें स्वाभाविक आकर्षण कहाँ से आएगा?
यह तो सब रहा पुरष क्रिकेट का हाल, लेकिन महिला क्रिकेट को कौन जानता हैं ? कौन जनता भारत की महिला क्रिकेट की कप्तान झूलन गोस्वामी है,या कौन जनता है अंजुम चोपरा को, वस पुरष क्रिकेट के आगे यह महिला क्रिकेट और अन्य खेल गौण और इसमें भी आई.पी.एल क्रिकेट आज चरम पर है, और इस आई.पी.एल के कारण हमारे पडोसी देश पाकिस्तान के खिलाडियों को आई.पी.एल में ना लेना एक विवाद बन गया है,आगे चल कर पता नहीं क्या,क्या होगा,हो सकता है,इन आई.पी.एल क्रिकेट टीम के स्वामियों में झगड़े,विवाद इत्यादि हों |
क्रिकेट बोर्ड के पास तो बेशुमार दौलत है, सरकार ऐसा नियम क्यों नहीं बनाती की सब प्रकार के खेलों के सामान रूप से धन मिले,तो और खेलों को भी प्रोत्साहन मिलेगा,और हमारे राष्ट्रीय खेल होकी की ऐसी दुर्दशा नहीं होगी |
आई.पी.एल का क्या औचित्य है ?
बुधवार, जनवरी 20, 2010
परिवर्तन (भाग 6)
अब नरेश,उस घर में आ चुका था, जो उसके पिता जी ने ख़रीदा था,क्योंकि सुषमा ने बी.एड कर लिया था इस कारण यहाँ के एक अच्छे स्कूल में,वोह उच्च क्लासों की प्राध्यापिका हो चुकी थी, और बहुत अच्छा वेतन प्राप्त करती थी, मतलब समय चक्र के अनुसार वोह उस स्थान पर पहुँच चुकी थी,जिस स्थान पर कभी नरेश था, इससे पहले वाली जिस कम्पनी से नरेश को निकाला गया था, वोह भी एक बड़ी कम्पनी थी, और इस कम्पनी में भी,उसको और दूसरी बड़ी कंपनियों जहाँ वोह काम कर चुका था,उसी प्रकार का मेडिकल और लीव ट्रवेल का खर्चा मिलता था, वोह सुषमा और उसके बाद संध्या तथा सुषमा को भारत के बहुत से रमणीक,पर्यटन स्थलों पर घुमा चुका था, अब वोह इस घर में उदास सा बैठा रहता था,उसके ससुर इस घर में आते थे, पर वोह नरेश से कुछ भी बात,चीत नहीं करते थे, बस सुषमा में से बात करके चले जाते थे,मतलब जब उसको सांत्वना कि आवयश्कता थी,उसको सांत्वना देने वाला कोई नहीं था,अब नरेश की आँखों पर पड़ने वाला चश्मा लग चुका था, और अभी भी नरेश काम खोजता रहता था,और कुछ समय खाली रहने के बाद उसको एक कम्पनी में जर्नल मेनेजेर की नौकरी मिल चुकी थी, उस में मनोवेग्यानिक कमियां तो थी हीं,सो वोह इस जर्नल मेनेजर की नौकरी पर कहाँ तक चल सकता था,और यहाँ से भी निकाला गया, उसके बाद उसने दो तीन छोटी,मोटी नौकरी करी,और वोह अधिक ना चल सका, अब नरेश प्रोड़ हो चुका था,उसके सिर के बालों में सफेदी आ चुकी थी,और उसकी बेटी भी बड़ी हो चुकी थी, इस प्रकार खाली रहने पर उसके अर्जित किये हुए धन का बहुत सा प्रतिशत समाप्त हो चुका था, घर का खर्चा अब सुषमा के वेतन से चल रहा था, क्योंकि संध्या और नरेश की बेटी बड़ी हो चुकी थी,सो उसका विवाह तो करना ही था, सुषमा और नरेश ने संध्या के लिए उपयुक्त वर खोजना प्रारंभ किया,और दोनों को एक लड़का पसंद आ गया,इसलिए संध्या का विवाह उस लड़के आशीष के साथ हो गया था, और संध्या के विवाह के लिए नरेश ने अपनी सारी जमा पूँजी लगा दी,और इसके साथ सुषमा के घर वालों ने भी संध्या के विवाह के समय बहुत आर्थिक सहयता की, अब नरेश के पास कुछ भी धन नहीं रह गया था, सुषमा के वेतन से घर का खर्चा चल रहा था,और सुषमा के पिता जी अर्थार्त नरेश के ससुर आते,जाते रहते थे,और केवल सुषमा से बात कर के चले जाते थे, वस नरेश को जो थोड़ा बहुत सुकून मिलता था,वोह अपने पिता जी से, कुछ समय के बाद नरेश के ससुर का तो स्वर्गवास हो चुका था, और नरेश के पिता जी भी कब तक नरेश का साथ देते वोह भी चल बसे, नरेश ने अपने पिता जी के देहांत के बाद अपनी माता जी को अपने साथ रख लिया है, और अब स्थिति इस प्रकार बदल चुकी है, सुषमा नरेश को कोई खास महत्व नहीं देती है, और नरेश से कोई छोटी,मोटी गलती हो जाती है,उसको खरी खोटी सुनाती है,नरेश से अब भी जो कुछ बन पड़ता है,वोह सुषमा के लिए करता है, नरेशअब इन विचारों में खोये रहते हैं,अगर उसके पिता जी ने उसके स्वाभाव में इस प्रकार की मनोवेग्यानिक कमियां नहीं होने देते तो उनका यह हाल नहीं होता,नरेश का तो साहित्य में सबसे अधिक रुचि थी,परन्तु जब तक कोई प्रसिद्ध साहित्यकार नहीं हो जाता उसको धन और प्रतिष्ठा नहीं मिल पाती, वोह जाएँ तो जाये कहाँ बेटी तो परबस होती है, सोचतें है,अगर बेटी संध्या से इस विषय में बात करें तो उनके दामाद आशीष क्या सोचेंगे?, अब नरेश के भाई सुरेश भी प्रोड़अवस्था में पहुँच चुकें हैं, और उनका बेटा अर्जुन भी युवावस्था में पहुँच चुका है, और नरेश के मस्तिष्क में यह विचार भी कौनधता रहता है, अगर सुरेश इस विषय में बात करतें हैं,तो ना जाने सुरेश की पत्नी विभा क्या सोचेगी?
इस प्रकार नरेश के जीवन में परिवर्तन हो चुका है,जो स्थान उनका होना चाहिए था,वोह विभा ने ले लिया , क्योंकि अब नरेश कुछ नहीं करते उनको विभा और आस पास के लोग हेय दृष्टि से देखते हैं |
समाप्त
इस प्रकार नरेश के जीवन में परिवर्तन हो चुका है,जो स्थान उनका होना चाहिए था,वोह विभा ने ले लिया , क्योंकि अब नरेश कुछ नहीं करते उनको विभा और आस पास के लोग हेय दृष्टि से देखते हैं |
समाप्त
मंगलवार, जनवरी 19, 2010
परिवर्तन (भाग 5)
और स्वाभाव में तेज होने के कारण,आनन फानन में विभा ने,तुरंत सुरेश को लेकर उस नरेश और सुरेश के पिता जी के द्वारा खरीदे हुए घर में रहने का निर्णय लिया, और सुरेश को लेकर चल पड़ी उस घर में रहने के लिए, अब सुरेश तथा विभा उस घर में रहने लगे, समय बीतता गया और विभा ने एक पुत्र को जन्म दिया, और सुरेश उस घर से अपने,उस शहर में नौकरी करने के लिए,जाने लगा जहाँ पर सुरेश नौकरी करता था, और बेचारा नरेश अपनी पत्नी सुषमा और अपनी बेटी संध्या को लेकर, अपनी माँ,पिता जी के साथ रहने को विवश था, कम्पनी में हर समय तो नरेश काम नहीं करता था,नरेश क्या कोई भी नहीं हर समय काम नहीं करता, हाँ जब कम्पनी में कोई उच्च अधिकारी हो जाता है, तब वोह कम्पनी को समर्पित हो जाता है,उसके पास अपना निजी समय होता ही नहीं,परन्तु नरेश अपनी मनोवेगाय्निक कमियों के कारण,उच्च पद पर आसीन कैसे होता ? चूंकि वोह अपने कोलेज में क्रिकेट का अच्छा खिलाडी था, और जब वोह कम्पनी में काम नहीं कर रहा होता, वोह अपना समय क्रिकेट खेल कर बिताता, अब क्रिकेट तो दिन में ही खेला जा सकता है,और रह जाता संध्या समय उस समय वोह क्या करता,इसलिए वोह संध्या समय वोह कम्पनी के के इनडोर बेडमिन्टन कोर्ट में,बेडमिन्ट खेल कर बिताता था, ऐसा नहीं था वोह अपनी पत्नी और अपनी बेटी की और ध्यान नहीं देता था, वोह दोनों तो उसके लिए जीवन में सबसे बड़ी ख़ुशी थी,इंसान को अपने मन को खुश करने के लिए,कुछ ना कुछ तो चाहिए ही,इसलिए वोह यह खेल,खेल कर अपना मन खुश करता था, और कुछ सालों के बाद,बेडमिन्टन खेलने में हाफ्ने लगता, सो उसने संध्या समय बेडमिन्टन,छोड़ के बिल्लीयर्ड खेलना प्रारंभ कर दिया,और अपने इस घर से दूर नौकरी करने के लिए समाचार पत्रों में विज्ञापन देखता रहता था,और आखिरकार वोह समय आ गया,जिस समय की उसको पर्तीक्षा थी,मतलब उसको अपने मतलब का विज्ञापन दिखाई दे गया,और उसने तुरंत उस नौकरी के लिए अर्जी डाल दी,और उस विज्ञापन के उत्तर में उसको इस नौकरी के साक्षात्कार के लिए बुलावा आ गया,और वोह वहाँ गया तो उसका उस नौकरी के लिए,चुनाव हो गया, यह नहीं कि उसने औरकम्पनियों में विज्ञापन देख कर अर्जी नहीं डाली थी,परन्तु और नौकरियों में उसके हाथ मासूमियत लगी थी, परन्तु यहाँ पर भी उसके भाग्य ने उसका साथ इस प्रकार नहीं दियाथा, यह शहर बहुत महंगा था, वोह तो बेचारा अपने उस माहोल से निकलना चाहता था,उसने इस शहर के बारे में सोचा ही नहीं था, वोह बेचारा इस कम्पनी में उसी सेलरी पर हाँ कर बैठा था,जो सेलेरी उसको पिछली कम्पनी में मिलती थी, बस लाभ यही था,कि इस कम्पनी में नरेश उच्च पद पर आसीन हो गया था, इस शहर में तो अपना सारा पीछे का कमाया हुआ धन समाप्त कर चुका था, और अब वोह अपनी आजीविका कमाने के लिए,अपने पिता से धन मंगाने लगा, और नरेश के पिता जी,अपनी पत्नी अर्थार्त नेरश कि माँ से चोरी,छुपे नरेश को उसकी और उसकी पत्नी सुषमा,और बेटी संध्या कि जीविका के लिए धन,भेजने लगे, और संध्या अब कक्षा चार में,पड़ने लगी थी, और नरेश की पत्नी अब उसी स्कूल में,जहाँ पर संध्या पड़ रही थी,वही वोह कक्षा आठ में पड़ा रही थी, चूंकि नरेश अ़ब उच्च पद पर आसीन था, और उसी के समकक्ष उसके साथी भी थे, परन्तु उच्च पद पर तो लोग, ऐसे होते हैं,अपने लाभ के लिए,दूसरे का गला काट कर आगे बडते हैं, बेचारा भोला नरेश इस प्रकार की प्रतिस्पर्धा को नहीं समझ पाया,और उसको अपनी इस नौकरी से हाथ धोना पड़ा,नरेश को जो कम्पनी से गाड़ी और ड्राईवर मिला हुआ था,उससे भी महरूम हो गया, बस एक बात जो अच्छी थी,इसी बीच संध्या ने बी.एड कर लिया था, अब तो नरेश के साथ ऐसा सिलसिला चल पड़ा,वोह इसी शहर में,और कंपनियों में काम करता,रहा और वोह इस सिलसिला इस प्रकार चलता रहा,उसके नौकरियों के लिए,कम्पनी छोटी होती रहीं,और उसका पद बड़ा होता रहा, अब उसको पैसे की समस्या नहीं थी, लेकिन एक कम्पनी को छोड़ कर दूसरी कम्पनी में,काम करने का कारण यह था,एक स्थान से वोह निकाला जाता,तो दूसरी कम्पनी में काम करने लगता,लेकिन यह सिलसिला एक शहर में कब तक चलता, अब वोह अधेर भी हो चला था, और उसके साथ एक बात अच्छी हुई कि,अबकी बार उसको उस शहर के पास नौकरी मिल गयी,जिस शहर से वोह इस शहर में,आया था, आजीविका की कोई समस्या नहीं थी, सुषमा यहाँ पर भी एक स्कूल में पड़ा रही थी,और संध्या अब कक्षा दस में आ चुकी थी,परन्तु इस बार फिर नरेश को एक झटका लगा, संध्या उसकी बेटी कक्षा दस में,और नरेश को यहाँ से भी निकाल दिया गया,और अब तक नरेश के भाई सुरेश का दूर,शहर में स्थान्तरण हो चुका था, सुरेश,बिभा,अपने पुत्र जिसका नाम उन लोगों ने अर्जुन रक्खा था,उस शहर में जा चुका था,जहाँ पर उसका स्थान्तरण हो चुका था,बस नरेश को जैसे डूबते को सहारा मिल गया था,अब वोह अपनी पत्नी सुषमा,बेटी को लेकर उसी घर में आ गया था जो उसके पिता जी ने ख़रीदा था |
क्रमश:
क्रमश:
सोमवार, जनवरी 18, 2010
परिवर्तन (भाग 4)
समय बीतता गया,और समय के साथ नरेश की पत्नी सुषमा ने एक बच्ची को जन्म दिया, और बच्ची के जन्म के कुछ समय के पश्चात सुषमा ने, उस शहर के एक स्कूल में साक्षात्कार दिया, और स्कूल नरेश के घर के पास था,इसी कारण स्कूल का चपरासी कुछ नर्सरी स्कूल की किताबें लेकर और इस समाचार के साथ,कि सुषमा का स्कूल की नर्सरी कक्षाकी अध्यापिका के लिए चयन हो गया है आया , जब यह समाचार सुषमा की सास अर्थार्त नरेश की माँ ने सुना तो वोह बोली,"में बच्ची को अपने साथ नहीं रखूंगी,सुषमा जाने उसका काम जाने", और सुषमा की सास का यह वाक्य सुन कर सुषमा के हिर्दय पर तो जैसे तुषारापात सा हो गया, और भारी मन से सुषमा ने उस स्कूल के चपरासी को लौटा दिया, समय ने तो चलना ही था, और वोह चलता गया,इस अन्तराल में सुषमा की बच्ची तीन साल की हो चुकी थी, सुषमा और नरेश ने उस बच्ची जिसका नाम उन लोगों ने संध्या रखा था,उसी स्कूल में दाखिल करवा दिया,जहाँ पर सुषमा का चयन हो गया था, और कुछ अन्तराल के बाद सुषमा ने उसी स्कूल में अर्जी दी,और उसका दुबारा भी वहाँ नर्सरी की अध्यापिका के लिए चयन हो गया था, सुषमा की दिनचर्या यह थी,वोह रात को बारह बजे तो सोती थी,और प्रात: चार बजे उठती,अपने ससुर,नरेश,सास के लिए पूरा नाश्ता और खाना बना के स्कूल जाती,और दोपहर में स्कूल से आने के बाद घर का सारा काम संभालती,इसी कारण उसको रात के बारह बज जाते थे, अब संध्या पॉँच साल की हो चुकी थी,और सुषमा ने एक बालक को जन्म दिया, परन्तु विधि को कुछ और ही मंजूर था, और वोह बालक एक माह का होकर बहुत बीमार हो गया था, नरेश ने जो कुछ भी कमाया था, वोह सारी अपनी पूँजी उस बच्चे के इलाज में लगा दी,उसको कहीं से पैसे की ओर से सहायता नहीं थी ,और विडम्बना यह की सुषमा और नरेश के बालक ने दो माह का होकर दम तोड़ दिया, नरेश को तो आजीविका तो कमाने ही थी,वोह बेचारा माँ और पत्नी के बीच में इस प्रकार फंसा हुआ जीविका अर्जन में लगा हुआ था,और नरेश के ससुर को भी उसकी भावना का कोई ख्याल नहीं था, नरेश तो इस दुविधा में फंसा हुआ था,और इसी बीच नरेश के भाई सुरेश का भी विवाह हो चुका था और सुरेश दूसरे शहर में नौकरी करता था , चूँकि नरेश और सुरेश की माँ,सुरेश को अधिक महत्व देती थी,इस कारण सुरेश और उसकी पत्नीविभा का महत्व,नरेश और सुषमा से अधिक था, इस कारण नरेश अपने को और अधिक उपेक्षित समझने लगा था |
वैसे तो नरेश प्रखर बुद्धि का मालिक था, परन्तु अपनी कम्पनी के जर्नल मेनेजर के जोर से बोलने के कारण घबरा जाता था, हाँ कभी,कभी अपने बोस और अपने बोस के समकक्ष लोगों के सामने उसकी घबराहट समाप्त हो जाती थी, और इसी कारण एक दो बार नरेश ने अपने विभाग की महीने की रिपोर्ट बिना घबराहट के बहुत अच्छी प्रकार से अपने बोस,और अपने बोस के समकक्ष लोगों के सामने मीटिंग में पेश की,और उसकी उस समय की वाक प्रतिभा,और उसके द्वारा पेश किये बहुत से पॉइंट से मीटिंग में उपस्थित लोग प्राभित हो गये थे,लिहाजा अगले माह की मीटिंग में उस कम्पनी के जर्नल मेनेजर को बुलया गया,और गत माह की मीटिंग में प्रभावित करने के कारण,इस बार फिर नरेश को इस मीटिंग में उसके अपने विभाग की रिपोर्ट पेश करने के लिए बुलाया गया,परन्तु अब जर्नल मेनेजर के सामने घबराहट के कारण बोल निकल ही नहीं पा रहें थे,और नरेश कुछ बोलने का प्रयत्न करता भी तो वोह कुछ का कुछ बोलता, कम्पनी में काम करने वालों की मनोवेगाय्निक कमीं कौन देखता है? सुरेश अपने विवाह के समय तो कुछ समय तो अपनी विवाह के कारण ली हुई छुट्टियों के कारण,उसी घर में रहा जहाँ पर नरेश,सुषमा और उनके दोनों बच्चे और सुरेश और नरेश के माँ बाप रह रहे थे, फिर सुरेश अपनी पत्नी विभा को लेकर उस शहर में चला गया,जहाँ पर वोह नौकरी कर रहा था,परन्तु सुरेश का अपने भाई नरेश और अपने माँ बाप के पास आना तो लगा रहता था, विभा कुछ तेज स्वाभाव की थी, जहाँ पर इस शहर में नरेश तथा सुरेश के पिता जी नौकरी कर रहे थे, उससे पहले वाले शहर में जहाँ,नरेश और सुरेश के माँ,बाप थे वहाँ पर नरेश तथा सुरेश के पिता जी ने एक घर खरीद लिया था, और एक दिन नरेश ने परेशान हो कर कहा,"में उस शहर में उसी खरीदे हुए घर में जा कर रहूँगा, और उसी शहर से इस शहर में नौकरी करने के लिए आता,जाता रहूँगा", और यह बात विभा ने सुन ली,तो वोह बोली,"उस घर में में जा कर दिखतीं हूँ"
क्रमश:
वैसे तो नरेश प्रखर बुद्धि का मालिक था, परन्तु अपनी कम्पनी के जर्नल मेनेजर के जोर से बोलने के कारण घबरा जाता था, हाँ कभी,कभी अपने बोस और अपने बोस के समकक्ष लोगों के सामने उसकी घबराहट समाप्त हो जाती थी, और इसी कारण एक दो बार नरेश ने अपने विभाग की महीने की रिपोर्ट बिना घबराहट के बहुत अच्छी प्रकार से अपने बोस,और अपने बोस के समकक्ष लोगों के सामने मीटिंग में पेश की,और उसकी उस समय की वाक प्रतिभा,और उसके द्वारा पेश किये बहुत से पॉइंट से मीटिंग में उपस्थित लोग प्राभित हो गये थे,लिहाजा अगले माह की मीटिंग में उस कम्पनी के जर्नल मेनेजर को बुलया गया,और गत माह की मीटिंग में प्रभावित करने के कारण,इस बार फिर नरेश को इस मीटिंग में उसके अपने विभाग की रिपोर्ट पेश करने के लिए बुलाया गया,परन्तु अब जर्नल मेनेजर के सामने घबराहट के कारण बोल निकल ही नहीं पा रहें थे,और नरेश कुछ बोलने का प्रयत्न करता भी तो वोह कुछ का कुछ बोलता, कम्पनी में काम करने वालों की मनोवेगाय्निक कमीं कौन देखता है? सुरेश अपने विवाह के समय तो कुछ समय तो अपनी विवाह के कारण ली हुई छुट्टियों के कारण,उसी घर में रहा जहाँ पर नरेश,सुषमा और उनके दोनों बच्चे और सुरेश और नरेश के माँ बाप रह रहे थे, फिर सुरेश अपनी पत्नी विभा को लेकर उस शहर में चला गया,जहाँ पर वोह नौकरी कर रहा था,परन्तु सुरेश का अपने भाई नरेश और अपने माँ बाप के पास आना तो लगा रहता था, विभा कुछ तेज स्वाभाव की थी, जहाँ पर इस शहर में नरेश तथा सुरेश के पिता जी नौकरी कर रहे थे, उससे पहले वाले शहर में जहाँ,नरेश और सुरेश के माँ,बाप थे वहाँ पर नरेश तथा सुरेश के पिता जी ने एक घर खरीद लिया था, और एक दिन नरेश ने परेशान हो कर कहा,"में उस शहर में उसी खरीदे हुए घर में जा कर रहूँगा, और उसी शहर से इस शहर में नौकरी करने के लिए आता,जाता रहूँगा", और यह बात विभा ने सुन ली,तो वोह बोली,"उस घर में में जा कर दिखतीं हूँ"
क्रमश:
रविवार, जनवरी 17, 2010
परिवर्तन (भाग 3)
अब नरेश इंजिनियर बन चुका था, लेकिन उसके व्यक्तित्व में प्रालंबन,अपने को औरो से हीन समझना और घबराहट भी समां चुके थे, इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष के समय में,कम्पोनियों के वरिष्ठ अधिकारी अपनी कम्पोनियों में नए बने हुए इंजिनियर को नौकरी देने के लिए चयन करने के परक्रिया आरम्भ कर देते हैं, वोही परक्रिया नरेश के कोलेज में भी प्रारंभ हो गयी थी, और चयन के लिए कोलेज के प्राध्यापक लडको का नाम उन से पूछ कर उन कम्पोनियों के अधिकारीयों को देते हैं, क्योंकि नरेश में घबराहट थी,इसलिए वोह अपना नाम, किसी भी कम्पनी के लिए प्राध्यपक को नहीं दे पाया, लेकिन एक दिन उस कम्पनी के अधिकारी जो नरेश के शहर से आये थे, वोह अपने शहर की कम्पनी में काम करने का इछुक था, उस कम्पनी की चयन प्रक्रिया के लिए अपनी घबराहट के कारण,अपने किसी प्राध्यापक को अपना नाम नहीं दे पाया था, परन्तु और लडको का साक्षात्कार देखता रहा, और जब सब लड़कों का साक्षात्कार हो गया,तो वोह साहस कर के उन अधिकारीयों के पास साक्षात्कार के लिए पहुंचा,और उन अधिकारीयों ने नरेश का चयन कर लिया था, कम्पनी के अधिकारी चुने हुए लड़कों का नाम,कोलेज के प्राध्यपकों को दे देते थे ,और प्राध्यापक चुने हुए लडको को उनके चयन के बारे में सूचित कर देते थे,परन्तु नरेश के बारे में तो उन प्राध्यापको को कुछ पता ही नहीं था, इसलिए वोह नरेश को कुछ भी सूचित नहीं कर पायें, हो सकता हो कोई प्रक्रिया हो जिसके कारण कमपनी के अधिकारी चयनित लड़कों का नाम, कम्पनी के अधिकारी कोलेज के प्राध्यापकों को बता देते हों,शायद उस प्रक्रिया में कुछ चूंक रह गयी हो,जिसके कारण कोलेज के प्राध्यापक नरेश को उसके चयन के बारे में ना सूचित कर पायें हों |
खैर नरेश अपने शहर में लौट चुका था,और उसका एक सिनीयर इसी शहर में रहता था,और उसी कम्पनी में कार्यरत था,जिस कम्पनी में नरेश का चयन हो गया था, कुछ समय ने ऐसी करवट ली कि नरेश उसी सीनियर जिसका नाम अश्वनी था,उसके पास बैठा हुआ था, और बातों,बातों में अश्वनी ने नरेश से कहा,"कल तो तेरा कम्पनी के चीफ एक्सीकुटिव के साथ साक्षात्कार है", इसी कारण नरेश को जानकारी प्राप्त हुई कि उसका अब चयन परक्रिया का आखरी साक्षात्कार है, कल तो आ ही गया था,और देखते,देखते उसका चीफ एक्ससीकुटिव के साथ साक्षात्कार का नंबर आ गया था, और बेचारा नरेश साक्षात्कार के लिए पहुंचा, और सामने चीफ एक्सीकुटिव और दूसरे वरिष्ठ अधिकारीयों को देख कर, घबराहट के कारण उसके माथे,और हांथों में पसीना आ रहा था,और साक्षात्कार के समय नरेश घबराहट के कारण,उन लोगों को उनके उन प्रश्नों का उत्तर भी ठीक से नहीं दे पाया जिनका वोह उत्तर बहुत ही सरलता से दे सकता था,और नरेश का उस कम्पनी में चयन नहीं हो पाया था, अब नरेश के पिता जी ने,अपना सरकार के वरिष्ठ अधिकारी होने के कारण,उस कम्पनी पर दवाब डाला और उस कम्पनी ने दवाब में आकर नरेश को अपने यहाँ रख तो लिया, परन्तु उस विभाग में जिसका महत्व सबसे कम था, रमेश युवक तो हो ही चुका था,और इस आयु में युवकों में मेह्तावाकान्षा तो होती हैं,वोह तो इस कम्पनी के सबसे महतवपूर्ण विभाग में जाना चाहता था, परन्तु हमारे देश में विडंबना तो यही है,कर्मचारियों का कोई मनोवेग्यानिक विश्लेषण तो होता ही नहीं,अगर होता तो युवकों की मनोवेग्यानिक कमियों को दूर करके कम्पनी उनको तराश के लिए,अपने लिए हीरे बना सकतें हैं, नरेश प्रखर बुद्धि का मालिक तो था,बस मनोवेग्यानिक कमियों के कारण उसकी प्रतिभा उभर कर सामने नहीं आ पा रही थी |
अ़ब चूँकि नरेश की नौकरी लग चुकी थी, और जैसा होता है, कि हमारे देश में बच्चे की नौकरी लगी नहीं,और उसके माँ बाप उसका विवाह करा देना चाहते हैं, यही नरेश के साथ भी हो रहा था, और नरेश में तो पर्तिरोध करने की शमता भी नहीं थी, हाँ माँ,बाप के व्यवहार के कारण वोह बहार सहानभूति ढूँढता था, सो उसने सोचा कि शादी कर लेतें हैं शायद कुछ सुकून मिल जाएँ और परिणय सूत्र में बंध गया था, लेकिन यहाँ तो उसकी परेशानी और बड़ गयी थी, नरेश की माँ ने तो नरेश की पत्नी सुषमा के साथ दुर्व्यवहार करना प्रारंभ कर दिया था,अगर नरेश इस बात का विरोध करता तो उसकी माँ उसको,"जोरू के गुलाम की उपाधि से नवाजती", और चूंकि पत्नी अभी नयी,नवेली थी, तो नरेश अपनी नयी,नवेली पत्नी पर अत्यचार नहीं सेहन कर पाया था, और उसके ससुर जिनको नरेश की भावनाओं से कोई मतलब नहीं था, बस अपनी बेटी को दुखी देख कर किसी और कम्पनी में भेजने का यतन किया,और नरेश का उस कम्पनी में चयन भी हो गया था, परन्तु उस कम्पनी में उसके साथ दुर्व्यवहार होता था,तो नरेश ने दुखी हो कर उस कम्पनी को छोड़ने को सोचा,इसी बीच में नरेश के पिता जी अवकाश प्राप्त हो चुके थे,और एक कम्पनी में कार्यरत थे, और नरेश का दुर्भाग्य की नरेश भी उसी कम्पनी में आ गया था,जहाँ पर उसके पिता जी कार्यरत थे,और फिर नरेश और उसकी पत्नी सुषमा को नरेश के माँ,बाप के साथ रहने को परिस्थितयों ने विवश कर दिया था, और यहाँ पर फिर वोही परिस्थति उसके साथ,उसके सहकर्मी उसको निशाना बना कर उसका उपहास करते थे, इन परिस्थतियों से विवश हो कर वोह दूसरे स्थान पर नौकरी करने के अवसर खोज रहा था |
क्रमश :
खैर नरेश अपने शहर में लौट चुका था,और उसका एक सिनीयर इसी शहर में रहता था,और उसी कम्पनी में कार्यरत था,जिस कम्पनी में नरेश का चयन हो गया था, कुछ समय ने ऐसी करवट ली कि नरेश उसी सीनियर जिसका नाम अश्वनी था,उसके पास बैठा हुआ था, और बातों,बातों में अश्वनी ने नरेश से कहा,"कल तो तेरा कम्पनी के चीफ एक्सीकुटिव के साथ साक्षात्कार है", इसी कारण नरेश को जानकारी प्राप्त हुई कि उसका अब चयन परक्रिया का आखरी साक्षात्कार है, कल तो आ ही गया था,और देखते,देखते उसका चीफ एक्ससीकुटिव के साथ साक्षात्कार का नंबर आ गया था, और बेचारा नरेश साक्षात्कार के लिए पहुंचा, और सामने चीफ एक्सीकुटिव और दूसरे वरिष्ठ अधिकारीयों को देख कर, घबराहट के कारण उसके माथे,और हांथों में पसीना आ रहा था,और साक्षात्कार के समय नरेश घबराहट के कारण,उन लोगों को उनके उन प्रश्नों का उत्तर भी ठीक से नहीं दे पाया जिनका वोह उत्तर बहुत ही सरलता से दे सकता था,और नरेश का उस कम्पनी में चयन नहीं हो पाया था, अब नरेश के पिता जी ने,अपना सरकार के वरिष्ठ अधिकारी होने के कारण,उस कम्पनी पर दवाब डाला और उस कम्पनी ने दवाब में आकर नरेश को अपने यहाँ रख तो लिया, परन्तु उस विभाग में जिसका महत्व सबसे कम था, रमेश युवक तो हो ही चुका था,और इस आयु में युवकों में मेह्तावाकान्षा तो होती हैं,वोह तो इस कम्पनी के सबसे महतवपूर्ण विभाग में जाना चाहता था, परन्तु हमारे देश में विडंबना तो यही है,कर्मचारियों का कोई मनोवेग्यानिक विश्लेषण तो होता ही नहीं,अगर होता तो युवकों की मनोवेग्यानिक कमियों को दूर करके कम्पनी उनको तराश के लिए,अपने लिए हीरे बना सकतें हैं, नरेश प्रखर बुद्धि का मालिक तो था,बस मनोवेग्यानिक कमियों के कारण उसकी प्रतिभा उभर कर सामने नहीं आ पा रही थी |
अ़ब चूँकि नरेश की नौकरी लग चुकी थी, और जैसा होता है, कि हमारे देश में बच्चे की नौकरी लगी नहीं,और उसके माँ बाप उसका विवाह करा देना चाहते हैं, यही नरेश के साथ भी हो रहा था, और नरेश में तो पर्तिरोध करने की शमता भी नहीं थी, हाँ माँ,बाप के व्यवहार के कारण वोह बहार सहानभूति ढूँढता था, सो उसने सोचा कि शादी कर लेतें हैं शायद कुछ सुकून मिल जाएँ और परिणय सूत्र में बंध गया था, लेकिन यहाँ तो उसकी परेशानी और बड़ गयी थी, नरेश की माँ ने तो नरेश की पत्नी सुषमा के साथ दुर्व्यवहार करना प्रारंभ कर दिया था,अगर नरेश इस बात का विरोध करता तो उसकी माँ उसको,"जोरू के गुलाम की उपाधि से नवाजती", और चूंकि पत्नी अभी नयी,नवेली थी, तो नरेश अपनी नयी,नवेली पत्नी पर अत्यचार नहीं सेहन कर पाया था, और उसके ससुर जिनको नरेश की भावनाओं से कोई मतलब नहीं था, बस अपनी बेटी को दुखी देख कर किसी और कम्पनी में भेजने का यतन किया,और नरेश का उस कम्पनी में चयन भी हो गया था, परन्तु उस कम्पनी में उसके साथ दुर्व्यवहार होता था,तो नरेश ने दुखी हो कर उस कम्पनी को छोड़ने को सोचा,इसी बीच में नरेश के पिता जी अवकाश प्राप्त हो चुके थे,और एक कम्पनी में कार्यरत थे, और नरेश का दुर्भाग्य की नरेश भी उसी कम्पनी में आ गया था,जहाँ पर उसके पिता जी कार्यरत थे,और फिर नरेश और उसकी पत्नी सुषमा को नरेश के माँ,बाप के साथ रहने को परिस्थितयों ने विवश कर दिया था, और यहाँ पर फिर वोही परिस्थति उसके साथ,उसके सहकर्मी उसको निशाना बना कर उसका उपहास करते थे, इन परिस्थतियों से विवश हो कर वोह दूसरे स्थान पर नौकरी करने के अवसर खोज रहा था |
क्रमश :
शनिवार, जनवरी 16, 2010
परिवर्तन अगला भाग (2)
नरेश तो फेल हो चुका था,परन्तु सुरेश परीक्षा में प्रथम श्रेणी में पास हो चुका था, और अवसाद से ग्रसित,अपने को हीन समझने वाले नरेश ने और अधिक परिश्रम किया तो नरेश अबकी बार परीक्षा में अच्छे नम्बरों से परीक्षा में,उतीर्ण हो गया है था, परन्तु एक बार परीक्षा में अनुतीर्ण होने के बाद नरेश का उत्साह कोई क्यों बड़ाता, आगे नरेश को पड़ना तो था ही, सो उसने बी.स.सी में दाखिला ले लिया था,परन्तु नरेश की होनी में क्या लिखा था? यहाँ पर भी उसके साथी उसका उपहास करते थे, उसके कुछ साथी उसको निशाना बना कर उसका उपहास करते थे, और शेष बचे हुए उसके साथी उस बेचारे निशाना बने हुए नरेश को लेकर हंसते थे,संभवत: संभवत: उसके भोले स्वाभाव के कारण, उसने बी .एस .सी का विकल्प इसलिए चुना था, कि और रास्ता नहीं था, बी.एस.सी के कारण वोह कुछ बन सकता था, लेकिन मूल रूप से उसका झुकाव हिंदी और अंग्रेजी की ओर था, इसके साथ वोह समाचार पत्रों में इंजीनियरिंग कोलेजो का विगयापन देखता रहता था, उस समय भविष्य के लिए दो ही विकल्प थे, नरेश इंजीनियरिंग के विकल्प को डाक्टर के विकल्प से अच्छा समझाता था, इसी बीच में नरेश का बी.एस .सी प्रथम वर्ष का परीक्षाफल आ चुका था, लेकिन उसके नम्बर बहुत कम, मतलब कि तृतीय श्रेणी के नम्बर, अब उसके माँ था पिता दोनों कहने लगे इतने कम नम्बरों में बी.एस सी कर के क्या करोगे?
लेकिन इस बार नरेश का भाग्य कुछ अच्छा था, यह तो नहीं कह सकता बहुत अच्छा, नरेश ने रासयन की इंजीनियरिंग और सिविल इंजीनियरिंग दोनों का फार्म भरा, उसकी सिविल इंजीनियरिंग में रसायन की इंजीनियरिंग से अधिक रुचि थी, लेकिन नरेश,था सुरेश की आयु ऐसी हो चुकी थी,जहाँ पर बच्चों को स्वयं निर्णय ले कर स्वालंबी बनना चाहिए,वहाँ पर पिता अपने निर्णय देते थे,और तो और जहाँ पर बच्चों को चुनोतियाँ का सामना करना आना चाहिए,वहाँ पर उन चुनोतियों को उनके पिता जी स्वयं अपने अनुभव के कारण दूर कर देते थे, और बहुत बार दोनों बच्चों से यह भी बोलते थे, "तुम्हारे बस का नहीं है", नरेश का स्वाभाव में इस बात का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वोह स्वालंबी ना होकर प्रालम्बी हो गया था,जबकि सुरेश इस बात को चेलेंज के रूप में स्वीकार करता था, यहं भी विधि को जैसा स्वीकार था, नरेश के पास रसायन इंजीनियरिंग फार्म पहले आ चुका था, उसके पिता जी नरेश को लेकर रसायन इंजीनियरिंग के कालेज में लेकर पहुंचे,और उसका उस रासयन इंजीनियरिंग के लिए चयन हो गया था, चूंकि नरेश सिविल का भी फार्म भर चुका था, तो उसने अपना साक्षात्कार उस रासयन शास्त्र के इंजीनियरिंग कोलेज में इस प्रकार दिया कि उसका चयन ना हो पायें,परन्तु उसके साक्षात्कार लेने वालों को नरेश के बारे में क्या लगा उसका चयन हो गया,लेकिन उन लोगों में से किसी ने नरेश के पिता जी को बुला कर कुछ कहा, चूँकि पिता जी के सामने बात करते हुए वोह,उनसे घबराहट के कारण कुछ शब्द चबा जाता था, तो नरेश के पिता जी नरेश से पूछा,"क्या तुम शब्द चबा गये थे?",बस नरेश चुप, अभी नरेश को रसायन शास्त्र वाले कोलेज में ज्वाइन करने का कुछ समय शेष था,और इसी बीच में सिविल इंजीनियरिंग वाले कोलेज से भी आमंत्रण आ गया था,परन्तु नरेश को तो पिता की जबरदस्ती के कारण अपनी मर्जी के विरुद्ध उसे रासयन शास्त्र वाले कोलेज में ही दाखिला लेना ही पड़ा |
मालूम नहीं नरेश के भाग्य में क्या बदा था,उसके यहाँ भी उसके सहपाठियों द्वारा उसका उपहास, किसी प्रकार उसने अपने कोलेज के पड़ाइ को पूरा किया, लेकिन उसके रसायन शास्त्र के इंजीनियरिंग कोलेज के अंतिम वर्ष में,वोह किसी गलती के कारण परीक्षा अनूतिर्ण घोषित हो गया, लेकिन बाद में उसकी परीक्षा की गलती में सूधार हो गया था,और उसको रासयन शास्त्र के सनातक की डिग्री मिल चुकी थी,और वोह बन गया केमिकल इंजिनियर, बस अ़ब सुरेश और नरेश के पिता जी तथा माँ का भी वर्णन सुरेश के साथ कर दूं,दोनों बच्चों के यह पिता जी और माँ दोनों कुछ डरपोक स्वाभाव के भी थे, चूंकि सुरेश तो पिता जी की बातों को एक चेलेंज की भांति लेता था, इसलिए उसका चयन हर स्थान पर हो जाता था,और एक बार सुरेश का चयन नोसेना में हो गया, और नेवी में ज्वाइन करने के लिए सुरेश का वारंट आ गया था, तो डर के कारण सुरेश के पिता जी ने फाड़ दिया वोह वारंट,और माँ भी घबरा गयी थी |
क्रमश :
लेकिन इस बार नरेश का भाग्य कुछ अच्छा था, यह तो नहीं कह सकता बहुत अच्छा, नरेश ने रासयन की इंजीनियरिंग और सिविल इंजीनियरिंग दोनों का फार्म भरा, उसकी सिविल इंजीनियरिंग में रसायन की इंजीनियरिंग से अधिक रुचि थी, लेकिन नरेश,था सुरेश की आयु ऐसी हो चुकी थी,जहाँ पर बच्चों को स्वयं निर्णय ले कर स्वालंबी बनना चाहिए,वहाँ पर पिता अपने निर्णय देते थे,और तो और जहाँ पर बच्चों को चुनोतियाँ का सामना करना आना चाहिए,वहाँ पर उन चुनोतियों को उनके पिता जी स्वयं अपने अनुभव के कारण दूर कर देते थे, और बहुत बार दोनों बच्चों से यह भी बोलते थे, "तुम्हारे बस का नहीं है", नरेश का स्वाभाव में इस बात का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वोह स्वालंबी ना होकर प्रालम्बी हो गया था,जबकि सुरेश इस बात को चेलेंज के रूप में स्वीकार करता था, यहं भी विधि को जैसा स्वीकार था, नरेश के पास रसायन इंजीनियरिंग फार्म पहले आ चुका था, उसके पिता जी नरेश को लेकर रसायन इंजीनियरिंग के कालेज में लेकर पहुंचे,और उसका उस रासयन इंजीनियरिंग के लिए चयन हो गया था, चूंकि नरेश सिविल का भी फार्म भर चुका था, तो उसने अपना साक्षात्कार उस रासयन शास्त्र के इंजीनियरिंग कोलेज में इस प्रकार दिया कि उसका चयन ना हो पायें,परन्तु उसके साक्षात्कार लेने वालों को नरेश के बारे में क्या लगा उसका चयन हो गया,लेकिन उन लोगों में से किसी ने नरेश के पिता जी को बुला कर कुछ कहा, चूँकि पिता जी के सामने बात करते हुए वोह,उनसे घबराहट के कारण कुछ शब्द चबा जाता था, तो नरेश के पिता जी नरेश से पूछा,"क्या तुम शब्द चबा गये थे?",बस नरेश चुप, अभी नरेश को रसायन शास्त्र वाले कोलेज में ज्वाइन करने का कुछ समय शेष था,और इसी बीच में सिविल इंजीनियरिंग वाले कोलेज से भी आमंत्रण आ गया था,परन्तु नरेश को तो पिता की जबरदस्ती के कारण अपनी मर्जी के विरुद्ध उसे रासयन शास्त्र वाले कोलेज में ही दाखिला लेना ही पड़ा |
मालूम नहीं नरेश के भाग्य में क्या बदा था,उसके यहाँ भी उसके सहपाठियों द्वारा उसका उपहास, किसी प्रकार उसने अपने कोलेज के पड़ाइ को पूरा किया, लेकिन उसके रसायन शास्त्र के इंजीनियरिंग कोलेज के अंतिम वर्ष में,वोह किसी गलती के कारण परीक्षा अनूतिर्ण घोषित हो गया, लेकिन बाद में उसकी परीक्षा की गलती में सूधार हो गया था,और उसको रासयन शास्त्र के सनातक की डिग्री मिल चुकी थी,और वोह बन गया केमिकल इंजिनियर, बस अ़ब सुरेश और नरेश के पिता जी तथा माँ का भी वर्णन सुरेश के साथ कर दूं,दोनों बच्चों के यह पिता जी और माँ दोनों कुछ डरपोक स्वाभाव के भी थे, चूंकि सुरेश तो पिता जी की बातों को एक चेलेंज की भांति लेता था, इसलिए उसका चयन हर स्थान पर हो जाता था,और एक बार सुरेश का चयन नोसेना में हो गया, और नेवी में ज्वाइन करने के लिए सुरेश का वारंट आ गया था, तो डर के कारण सुरेश के पिता जी ने फाड़ दिया वोह वारंट,और माँ भी घबरा गयी थी |
क्रमश :
शुक्रवार, जनवरी 15, 2010
परिवर्तन
यह एक कहानी लिख रहा हूँ, जिसमें समाज पुरषों को घर के खर्चो के लिए कमाने वाला और स्त्री को घर चलाने वाला समझता है, सदियों से शास्वत नियम चला आ रहा है, हाँ आजकल अपवाद स्वरुप स्त्री कमाने लगी है,या स्त्री,पुरष दोनों कमाने लगें हैं, परन्तु अगर किसी कारणवश मर्द जीविका चलाने के उप्पयुक्त नहीं रह जाता,शारीरिक विकलांगता या किसी गंभीर बीमारी से ग्रसित होने के कारण तो अपवाद हैं, परन्तु यदि पुरष हष्ट,पुष्ट है,और जीविका नहीं ला पाता तो उसको समाज और उसका परिवार हेय दृष्टि से देखता है, किंचित इसी सामाजिक परिवेश का यह परिणाम है,अगर मर्द जीविका लाता है,उसका सम्मान रहता है, और कोई परिवार में उंच,नीच हो भी जाये,जिसमे मर्द को दोषी बनाया जाये,तो वोह कोई शिकायत नहीं करता परन्तु अगर स्त्री कमाने वाली हो जाती है,और मर्द अकर्मण्य तो मर्द का अपमान तो प्रारंभ तो हो ही जाता है,और हर प्रकार की हानि पर उस पर दोशार्पण प्रारंभ हो जाता है |
इस कहानी को आरंभ करने से पहले, इस प्रकार के पुरष के बचपन से होकर युवावस्था, विवाहित अवस्था, प्रोड़ अवस्था का विवरण देना किंचित उचित होगा, क्योंकि वोह योग्य तो था,परन्तु उसका जीवन इस प्रकार से व्यतीत हुआ था, बहुत सारी मानसिक यातनाओं के कारण, उसमें मनोवेग्यानिक कमियां हो गयीं थी,जिसके कारण वोह जीविका अधेरावस्था के बाद नहीं कमा पाया और हो गया उसके अपमान का सिलसिला प्रारम्भ हो गया |
बचपन से प्रारंभ कर रहा हूँ,एक परिवार में दो भाई थे,नरेश और सुरेश, नरेश सुरेश से दो वर्ष बड़ा था, उनके पिता का नरेश और सुरेश के साथ,सामान व्यवहार था, एक ही परिवेश में रहते हुए दोनों भाइयों का स्वाभाव भिन्न था, हर किसी पर एक ही व्यवहार का भिन्न,भिन्न प्रभाव पड़ता है, नरेश बहुत ही संवेदनशील था,और सुरेश इसके विपरीत, पिता का व्यवहार दोनों भाइयों को हतौत्साहित करने वाला, उनके मित्रों के सामने उनका अपमान करने वाला था, और माँ का स्वाभाव दोनों भाइयों में भेद भाव करने वाला था, माँ तो सुरेश को नरेश से अधिक महत्व देती थी, वैसे तो कहा जाता है,माँ के लिए तो यह दो ऑंखें होतीं हैं,जिनमे कोई भेद भाव नहीं होता,परन्तु उनकी माँ नरेश से अधिक सुरेश को महत्व देती थी, नरेश संवेदन शील तो था ही,पिता के इस प्रकार के व्यवहार के कारण नरेश अपने को अपने मित्रों से हेय समझने लगा, और पिता के व्यवहार के कारण सुरेश पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था सुरेश तो तो जैसे चिकना घड़ा था,और माँ तो सुरेश को नरेश से अधिक महत्व देती थी,और इसलिए नरेश में हीन भावना भी पनपने लगी |
समय बीतता गया,और दोनों भाई किशोरावस्था में प्रवेश कर चुकें थें, नरेश में कुछ शारीरक कमियां भी थी, और एक बार उसके दसवीं कक्षा के अंग्रेजी के अध्यापक अचानक समूची क्लास के सामने उसकी शारीरक कमियों के बारें में पूछ लिया, तो और विद्यार्थिओं को क्या चाहिए था बस उपहास करने का बहाना मात्र ,वोह उसकी उस शारीरिक कमियों को लेकर उपहास करतें थे, और बेचारा नरेश खून के घूँट पी कर रह जाता था,बेचारा कर भी क्या सकता था?
एक बार नरेश परीक्षा में,फेल हो गया तो उसकी माँ ने उसको बिना कारण जाने,उसका अपमान प्रारंभ कर दिया, जबकि नरेश ने बहुत परिश्रम किया था,परन्तु उसके भाग्य ने साथ नहीं दिया, और बेचारा नरेश अवसाद में रहने लगा,और उसके अवसाद को बिना समझें उसके पिता ने उसकी पिटाई कर दी |
क्रमश:
इस कहानी को आरंभ करने से पहले, इस प्रकार के पुरष के बचपन से होकर युवावस्था, विवाहित अवस्था, प्रोड़ अवस्था का विवरण देना किंचित उचित होगा, क्योंकि वोह योग्य तो था,परन्तु उसका जीवन इस प्रकार से व्यतीत हुआ था, बहुत सारी मानसिक यातनाओं के कारण, उसमें मनोवेग्यानिक कमियां हो गयीं थी,जिसके कारण वोह जीविका अधेरावस्था के बाद नहीं कमा पाया और हो गया उसके अपमान का सिलसिला प्रारम्भ हो गया |
बचपन से प्रारंभ कर रहा हूँ,एक परिवार में दो भाई थे,नरेश और सुरेश, नरेश सुरेश से दो वर्ष बड़ा था, उनके पिता का नरेश और सुरेश के साथ,सामान व्यवहार था, एक ही परिवेश में रहते हुए दोनों भाइयों का स्वाभाव भिन्न था, हर किसी पर एक ही व्यवहार का भिन्न,भिन्न प्रभाव पड़ता है, नरेश बहुत ही संवेदनशील था,और सुरेश इसके विपरीत, पिता का व्यवहार दोनों भाइयों को हतौत्साहित करने वाला, उनके मित्रों के सामने उनका अपमान करने वाला था, और माँ का स्वाभाव दोनों भाइयों में भेद भाव करने वाला था, माँ तो सुरेश को नरेश से अधिक महत्व देती थी, वैसे तो कहा जाता है,माँ के लिए तो यह दो ऑंखें होतीं हैं,जिनमे कोई भेद भाव नहीं होता,परन्तु उनकी माँ नरेश से अधिक सुरेश को महत्व देती थी, नरेश संवेदन शील तो था ही,पिता के इस प्रकार के व्यवहार के कारण नरेश अपने को अपने मित्रों से हेय समझने लगा, और पिता के व्यवहार के कारण सुरेश पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था सुरेश तो तो जैसे चिकना घड़ा था,और माँ तो सुरेश को नरेश से अधिक महत्व देती थी,और इसलिए नरेश में हीन भावना भी पनपने लगी |
समय बीतता गया,और दोनों भाई किशोरावस्था में प्रवेश कर चुकें थें, नरेश में कुछ शारीरक कमियां भी थी, और एक बार उसके दसवीं कक्षा के अंग्रेजी के अध्यापक अचानक समूची क्लास के सामने उसकी शारीरक कमियों के बारें में पूछ लिया, तो और विद्यार्थिओं को क्या चाहिए था बस उपहास करने का बहाना मात्र ,वोह उसकी उस शारीरिक कमियों को लेकर उपहास करतें थे, और बेचारा नरेश खून के घूँट पी कर रह जाता था,बेचारा कर भी क्या सकता था?
एक बार नरेश परीक्षा में,फेल हो गया तो उसकी माँ ने उसको बिना कारण जाने,उसका अपमान प्रारंभ कर दिया, जबकि नरेश ने बहुत परिश्रम किया था,परन्तु उसके भाग्य ने साथ नहीं दिया, और बेचारा नरेश अवसाद में रहने लगा,और उसके अवसाद को बिना समझें उसके पिता ने उसकी पिटाई कर दी |
क्रमश:
सोमवार, जनवरी 11, 2010
खुशियाँ
यह सलायीड शो हमारे नाना ने बनाया है , इसमें हमारे मम्मी,पापा,दादी,और नानी हैं,इसमें में सपाईडर मेन की ड्रेस मैं हूँ,और नीचें मेरी बहिन करोल कर रही है, हमारी नानी को शायद आप जानतें हैं,और दूसरी हमारी दादी हैं |
और दूसरी वाली मेरे ताऊ जी की बेटी है |
आप को यह सलायीड शो कैसा लगा?
आप बताएंगे तो हमें अच्छा लगेगा |
धन्यवाद् !
रविवार, जनवरी 10, 2010
किसी की भी प्रशंसा करें तो मन से
आज मेरे मन में एक विचार आया किसी भी मानव जाति की प्रशंसा करें तो मन से करें, अथवा बुझे मन से या चापलूसी करने के बहाने ना करें, व्यंग,बझे मन से प्रशंसा और चापलूसी के कारण प्रशंसा पाने वाले के मन पर तुषारापात सा हो जाता है, इस विचार का मेरे मन में आने का कारण है,किसी मेरे मित्र की उपलब्धि पाने पर किसी ने कहा कि, मालूम नहीं "इसको यह उपलब्धि किस प्रकार मिल गयी ?",जबकि उसकी उपलब्धि असाधारण थी और दूसरे लोग उसकी उपलब्धि की भूरी,भूरी प्रशंसा कर रहे थे,परन्तु उस व्यक्ति द्वारा की गयी टिप्पणी ने मेरे मित्र की ख़ुशी को अत्यंत आघात पहुँचाया और अपनी उस उपलब्धि के कारण, उसका चेहरा बुझा,बुझा सा हो गया, यह मानव स्वाभाव हैं, उसको लाख खुशियाँ मिलें, परन्तु एक इस प्रकार की टिप्पणी उसको आघात पहुंचा जाती हैं,और संवेदनशील व्यक्ति को कुछ अधिक ही व्यथित कर देती है |
मैंने आज ही अंग्रेजी के समाचार पत्र की एक पत्रिका में किसी का व्यान पड़ा था, "love is giving all those things which you can give which you have", प्रेम की उस व्यक्ति की दी हुआ यह व्यान मुझे बहुत अच्छा लगा था, कि प्रेम वोह जिसमें आप वोह सब चीज दे दें जो आप दे सकतें हैं,और उक्त घटना में तो मैंने इसके विपरीत ही देखा, अगर मेरे उस मित्र को उसकी इस उपलब्धि पर,बिना मोल की प्रशंसा मिल जाती तो उसको प्रोत्साहन मिल जाता, और वोह और उत्साह से अपने उस कर्म में लग जाता, मालूम नहीं यह द्वेष की भावना थीया उसको महत्वविहीन दिखाने की भावना थी, या स्वयं को उससे अधिक श्रेष्ठ दिखाने का प्रयास या जिसको यह बात कही गयी थी, उसको मेरे मित्र से श्रेष्ठ दिखाने का प्रयास |
में तो बहारी सुन्दरता से अधिक आंतरिक सुन्दरता को महत्व देता हूँ, अगर वोह व्यक्ति उक्त टिप्पणी ना देकर उसकी ख़ुशी में अपनी ख़ुशी देखता तो उसमें उसकी आन्तरिक सुन्दरता ही झलकती, दूसरे के चेहरे पर मधुर मुस्कान लाना ही मेरे अनुसार वास्तविक प्रेम है,उक्त टिप्पणी के साथ में इस लेख का समापन करता हूँ |
मैंने आज ही अंग्रेजी के समाचार पत्र की एक पत्रिका में किसी का व्यान पड़ा था, "love is giving all those things which you can give which you have", प्रेम की उस व्यक्ति की दी हुआ यह व्यान मुझे बहुत अच्छा लगा था, कि प्रेम वोह जिसमें आप वोह सब चीज दे दें जो आप दे सकतें हैं,और उक्त घटना में तो मैंने इसके विपरीत ही देखा, अगर मेरे उस मित्र को उसकी इस उपलब्धि पर,बिना मोल की प्रशंसा मिल जाती तो उसको प्रोत्साहन मिल जाता, और वोह और उत्साह से अपने उस कर्म में लग जाता, मालूम नहीं यह द्वेष की भावना थीया उसको महत्वविहीन दिखाने की भावना थी, या स्वयं को उससे अधिक श्रेष्ठ दिखाने का प्रयास या जिसको यह बात कही गयी थी, उसको मेरे मित्र से श्रेष्ठ दिखाने का प्रयास |
में तो बहारी सुन्दरता से अधिक आंतरिक सुन्दरता को महत्व देता हूँ, अगर वोह व्यक्ति उक्त टिप्पणी ना देकर उसकी ख़ुशी में अपनी ख़ुशी देखता तो उसमें उसकी आन्तरिक सुन्दरता ही झलकती, दूसरे के चेहरे पर मधुर मुस्कान लाना ही मेरे अनुसार वास्तविक प्रेम है,उक्त टिप्पणी के साथ में इस लेख का समापन करता हूँ |
शुक्रवार, जनवरी 08, 2010
थ्री इडीयटस पिक्चर बहुत से अच्छे सन्देश दे गयी
नववर्ष के पहले दिन हमारे बेटी दामाद आ गए थे,मेरी पत्नी बहुत दिनों से कह रही थी, मैंने थ्री इडइयटस पिक्चर की बहुत प्रशंसा सुनी कि यह पिक्चर बहुत हंसी की है, नववर्ष का समय था,और बेटी दामाद आ गये थे,यह पिक्चर देखने का अच्छा कारण बन गया था, पिक्चर 3.50 पर प्रारंभ होनी थी और घर से निकलते,निकलते 3.20 का समय हो गया था,मेरी पत्नी और हमारे दामाद को यह थ्री इडइयटस पिक्चर देखने की बहुत बेसब्री थी, खैर हमारे घर से सिनेमा हॉल नजदीक ही था,और दामाद एक दिन पहले इस पिक्चर की टिकेट ले आये थे, सिनेमा हॉल तक पहुंचते,पहुंचते पॉँच,दस मिनट ऊपर हो गये थे |
इस चलचित्र का पहला सीन चल रहा था, और जैसे,जैसे यह पिक्चर आगे की ओर अग्रसर हो रही थी, मुझे अपने इंजीनियरिंग कोलेज के क्लास रूम और छात्रावास की याद आ रही थी, वैसे ही स्वस्थ रेगिंग,उसी प्रकार छात्रों में सहयोग,फ्रेशर डे के बाद हमारे यहाँ रेगिंग समाप्त हो जाती थी,सीनियर,जुनीयर का आपस में मित्रवत व्यव्हार होने लगता था, परन्तु सीनियर,जूनियर को अनुशाशन में तो हर वर्ष रखते थे, अगर कोई जूनियर बाजार में कोलेज की गरिमा का ख्याल नहीं रखता था,तो सीनियर बाजार में तो कुछ नहीं कहतें थे,परन्तु उक्त जूनियर को छात्रावास में अच्छा सबक सिखलाते थे, और क्लास रूम का वातावरण याद आता है , आज कल तो इस प्रकार के अनेकों,मेडिकल,इंजीनियरिंग कोलेज हो चुके हैं,और सुप्रीम कोर्ट के आर्डर से पहले इन कोलेजों में बहशी रेगिंग होती थी, और खेद के साथ कहना पड़ रहा है, बहुत से छात्र,छात्रओं को इस प्रकार की बहशी रेगिंग के कारण आत्महत्या करने को विवश होना पड़ा था |
इस पिक्चर में भी दो अताम्हात्यों का प्रयास दिखाया गया है,एक में तो एक छात्र की मृत्यु इस कारण से होती हैं,कि उस छात्र के हवाई जहाज बनाने की ओर उस कोलेज का डिरेक्टर कोई ध्यान नहीं देता और विवश हो कर वोह छात्र आत्महत्या को गले लगा लेता है, और दूसरे छात्र से उसके घर वालों को इस कोलेज का डिरेक्टर, उसी को निष्कासित करने की चिट्ठी लिखवाता हैं, खैर यह पिक्चर है,पर हमारे कोलेज में ऐसा नहीं होता था |
चलो अ़ब आता हूँ,इस पिक्चर के संदेशों पर |
१.) रूचि के अनुसार कोर्स का चुनाव करना :- इसके बारें में तो बहुत कुछ लिखा जा चुका है,तो इस बारें में अधिक ना लिख कर इतना ही कहना चाहूँगा, यदि कोर्स के चुनाव के बारें में रूचि से विपरीत अगर सरंक्षक दवाब डालेंगे,तो छात्र की रूचि अनुसार प्रतिभा दिखलाने के अवसर ना मिलने के कारण,उसकी अपनी रूचि की प्रतिभा दब तो जाएगी,और जीवन भर अपनी रूचि का काम ना करने के कारण ,हीन भावना से ग्रसित तो हो ही जायेगा,और उसकी उन्नति भी बाधक हो जाएगी,इसी कारण विदेशों में एपटीचुड टेस्ट होता है,और उसी हिसाब से छात्र को कोर्स दिया जाता है |
२.) अभी तक इंजीनियरइंग कोलेजों में किताबों में ही लिखे विषयों को पड़ाया जाता है,और उसी की परीक्षा होती है, इसलिए प्रारंभ से नयी खोज,नए शोध नहीं हो पाते,हाँ में यह मानता हूँ,प्रारंभ में मूल सिधान्तों का ज्ञान तो देना आवश्यक है,परन्तु प्रारंभ से ही शोध के बारें में ध्यान दिया जाये तो नयी,नयी प्रतिभा उभर कर आएँगी, इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में तो प्रोजेक्ट होता है, जिसमें नईं चीज को प्रस्तुत करना होता है, अच्छा तो है,परन्तु प्रारंभ इस बात की और ध्यान दिया जाये,तो प्रतिभाओं को संपन्न होने का और अवसर मिलेंगे |
अंत में इस लेख का समापन इस बात से करता हूँ, हमारे कोलेज में तो इस औरों की सहायता करने के , अपनी गरिमा बना के रखने के संस्कार मिलते थे,जिस प्रकार इस पिक्चर में,एक छात्र के पिता जी का जीवन बचाना गया था,इसी प्रकार के संस्कार मिलते थे, और कोलेजों का तो मुझे ज्ञात नहीं |
हंसी के साथ थ्री इडइयटस अच्छे सन्देश दे गयी |
इस चलचित्र का पहला सीन चल रहा था, और जैसे,जैसे यह पिक्चर आगे की ओर अग्रसर हो रही थी, मुझे अपने इंजीनियरिंग कोलेज के क्लास रूम और छात्रावास की याद आ रही थी, वैसे ही स्वस्थ रेगिंग,उसी प्रकार छात्रों में सहयोग,फ्रेशर डे के बाद हमारे यहाँ रेगिंग समाप्त हो जाती थी,सीनियर,जुनीयर का आपस में मित्रवत व्यव्हार होने लगता था, परन्तु सीनियर,जूनियर को अनुशाशन में तो हर वर्ष रखते थे, अगर कोई जूनियर बाजार में कोलेज की गरिमा का ख्याल नहीं रखता था,तो सीनियर बाजार में तो कुछ नहीं कहतें थे,परन्तु उक्त जूनियर को छात्रावास में अच्छा सबक सिखलाते थे, और क्लास रूम का वातावरण याद आता है , आज कल तो इस प्रकार के अनेकों,मेडिकल,इंजीनियरिंग कोलेज हो चुके हैं,और सुप्रीम कोर्ट के आर्डर से पहले इन कोलेजों में बहशी रेगिंग होती थी, और खेद के साथ कहना पड़ रहा है, बहुत से छात्र,छात्रओं को इस प्रकार की बहशी रेगिंग के कारण आत्महत्या करने को विवश होना पड़ा था |
इस पिक्चर में भी दो अताम्हात्यों का प्रयास दिखाया गया है,एक में तो एक छात्र की मृत्यु इस कारण से होती हैं,कि उस छात्र के हवाई जहाज बनाने की ओर उस कोलेज का डिरेक्टर कोई ध्यान नहीं देता और विवश हो कर वोह छात्र आत्महत्या को गले लगा लेता है, और दूसरे छात्र से उसके घर वालों को इस कोलेज का डिरेक्टर, उसी को निष्कासित करने की चिट्ठी लिखवाता हैं, खैर यह पिक्चर है,पर हमारे कोलेज में ऐसा नहीं होता था |
चलो अ़ब आता हूँ,इस पिक्चर के संदेशों पर |
१.) रूचि के अनुसार कोर्स का चुनाव करना :- इसके बारें में तो बहुत कुछ लिखा जा चुका है,तो इस बारें में अधिक ना लिख कर इतना ही कहना चाहूँगा, यदि कोर्स के चुनाव के बारें में रूचि से विपरीत अगर सरंक्षक दवाब डालेंगे,तो छात्र की रूचि अनुसार प्रतिभा दिखलाने के अवसर ना मिलने के कारण,उसकी अपनी रूचि की प्रतिभा दब तो जाएगी,और जीवन भर अपनी रूचि का काम ना करने के कारण ,हीन भावना से ग्रसित तो हो ही जायेगा,और उसकी उन्नति भी बाधक हो जाएगी,इसी कारण विदेशों में एपटीचुड टेस्ट होता है,और उसी हिसाब से छात्र को कोर्स दिया जाता है |
२.) अभी तक इंजीनियरइंग कोलेजों में किताबों में ही लिखे विषयों को पड़ाया जाता है,और उसी की परीक्षा होती है, इसलिए प्रारंभ से नयी खोज,नए शोध नहीं हो पाते,हाँ में यह मानता हूँ,प्रारंभ में मूल सिधान्तों का ज्ञान तो देना आवश्यक है,परन्तु प्रारंभ से ही शोध के बारें में ध्यान दिया जाये तो नयी,नयी प्रतिभा उभर कर आएँगी, इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में तो प्रोजेक्ट होता है, जिसमें नईं चीज को प्रस्तुत करना होता है, अच्छा तो है,परन्तु प्रारंभ इस बात की और ध्यान दिया जाये,तो प्रतिभाओं को संपन्न होने का और अवसर मिलेंगे |
अंत में इस लेख का समापन इस बात से करता हूँ, हमारे कोलेज में तो इस औरों की सहायता करने के , अपनी गरिमा बना के रखने के संस्कार मिलते थे,जिस प्रकार इस पिक्चर में,एक छात्र के पिता जी का जीवन बचाना गया था,इसी प्रकार के संस्कार मिलते थे, और कोलेजों का तो मुझे ज्ञात नहीं |
हंसी के साथ थ्री इडइयटस अच्छे सन्देश दे गयी |
मंगलवार, जनवरी 05, 2010
हमारा परम्परगत ज्ञान लिपिबद्ध होगा |
आज हिंदी समाचार पत्र अमर उजाला पड़ रहा था, और इस समाचार पत्र के पन्ने पलटते हुए सहसा मेरी दृष्टि एक खबर पर पड़ी, कि "नानी,दादी के नुस्खे लिपिबद्ध होंगे", पड़ कर हर्ष हुआ, समाचार पत्र में वर्णन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश जी ने कहा है, कि नानी दादी के नुस्खे अधिकतर मोखिक हैं उनको लिपिबद्ध किया जायेगा, चिकत्सा क्षेत्र के आयुर्वेदिक ज्ञान को लिपिबद्ध किया जायेगा, और इनको पेटेंट भी किया जायेगा जिससे इस हमारे देश को लाभ होगा, लिपिबद्ध ना होने के कारण यूरोप के देश और अमरीका इन नुस्खो को पेटेंट करा के लाभ उठा रहें हैं, (इस खबर के लिए देखें आज का दैनिक समाचार पत्र अमर उजाला दिनांक 5 जनबरी 2010 ).
आज सुबह इसी विषय पर संगीता जी का लेख भी पड़ा था, और मुझे यह पड़ कर अच्छा लगा,आखिरकार हमारी सरकार का ध्यान इस ओर गया, में सामायिक विषयों पर कदाचित ही लिखता हूँ,हाँ समाचार पत्रों में छपी ख़बरों को पड़ अवश्य लेता हूँ, परन्तु इस खबर की ओर धय्नाकर्षण हुआ और मुझे यह लेख लिखने को प्रेरित किया, हमारे इस देश में अनेकों प्रतिभाएं हैं,जो लोप होती जा रहीं हैं, और कुछ तो लुप्त हो गयीं हैं, जैसे कि यह परसिद्ध हैं,ढाका जो अब बंगला देश में हैं, उसके कारीगरों के द्वारा बनाई गयी मलमल इतनी बारीक़ होती थी, कि एक पूरा थान एक अंगूठी के अन्दर से निकल जाये, इसके बारे में एक किवदंती परसिद्ध है कि, मुग़ल शासक औरंगजेब की बेटी को इस मलमल की सात सतह बना कर पहनाया गया था,और फिर भी इस वस्त्र में उसके अंग दिखाई दे रहे थे, कुछ दिन पहले मैंने हैदराबाद का गोलकुंडा किला देखा था, उस किले की विशेषताओं में से एक विशेषता थी, जब किले के नीचे प्रवेश द्वार पर जब गाईड ताली बजाता था,तो वोह ताली किले की सबसे ऊँचा स्थान जो कि प्रवेश द्वार से बहुत ऊंचाई पर था वहाँ पर भी सुनाई देती थी |
में तो कहता हूँ सरकार को एक ऐसा बीभाग बनाना चाहिए जो हमारी प्राचीन धरोअर की खोज करे और उसका प्रसार,प्रचार करे |
अंत में इसी बात से अपनी लेखनी को यहाँ विराम देता हूँ, कितना अच्छा हो, यह हमारा भारत देश अपनी परम्परागत विद्याओं और आधुनिक विज्ञान के सम्मिश्रण से समृद्ध हो |
आज सुबह इसी विषय पर संगीता जी का लेख भी पड़ा था, और मुझे यह पड़ कर अच्छा लगा,आखिरकार हमारी सरकार का ध्यान इस ओर गया, में सामायिक विषयों पर कदाचित ही लिखता हूँ,हाँ समाचार पत्रों में छपी ख़बरों को पड़ अवश्य लेता हूँ, परन्तु इस खबर की ओर धय्नाकर्षण हुआ और मुझे यह लेख लिखने को प्रेरित किया, हमारे इस देश में अनेकों प्रतिभाएं हैं,जो लोप होती जा रहीं हैं, और कुछ तो लुप्त हो गयीं हैं, जैसे कि यह परसिद्ध हैं,ढाका जो अब बंगला देश में हैं, उसके कारीगरों के द्वारा बनाई गयी मलमल इतनी बारीक़ होती थी, कि एक पूरा थान एक अंगूठी के अन्दर से निकल जाये, इसके बारे में एक किवदंती परसिद्ध है कि, मुग़ल शासक औरंगजेब की बेटी को इस मलमल की सात सतह बना कर पहनाया गया था,और फिर भी इस वस्त्र में उसके अंग दिखाई दे रहे थे, कुछ दिन पहले मैंने हैदराबाद का गोलकुंडा किला देखा था, उस किले की विशेषताओं में से एक विशेषता थी, जब किले के नीचे प्रवेश द्वार पर जब गाईड ताली बजाता था,तो वोह ताली किले की सबसे ऊँचा स्थान जो कि प्रवेश द्वार से बहुत ऊंचाई पर था वहाँ पर भी सुनाई देती थी |
में तो कहता हूँ सरकार को एक ऐसा बीभाग बनाना चाहिए जो हमारी प्राचीन धरोअर की खोज करे और उसका प्रसार,प्रचार करे |
अंत में इसी बात से अपनी लेखनी को यहाँ विराम देता हूँ, कितना अच्छा हो, यह हमारा भारत देश अपनी परम्परागत विद्याओं और आधुनिक विज्ञान के सम्मिश्रण से समृद्ध हो |
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