शनिवार, अगस्त 22, 2009

उलझन,व्यथा,जीवन एक प्लेटफोर्म है

उलझन ऐसी कुछ कहना चाहता हूँ
पर लब सिल जाते हैं
दिल की बात जुबां पर कैसे लाऊ
कुछ कहना चाहता हूँ
उनकी आंखे देख कर
लब थरथराने लगते है
पी जाता हूँ अपनी बात को
बस दिल मैं घुट के रह जाती है वोह आवाज
जा के किसे सुनाऊ
उनकी आंखे देख कर डर जाता हूँ
बस इस आवाज को पी जाता हूँ
एक कसक उठती है दिल मैं
इस टीस को कहाँ ले जाऊँ
बस अन्दर ही अन्दर घुट के रह जाता हूँ
फिर वोह पूछते हैं चुप से क्यों हो
अनकहे शब्दों शब्दों को केसे समझाऊ
बस पी जाता हूँ इन अनकही बातों को
किसको जा कर सुनाऊ
बस रह जाती हैं दिल मैं दिल की बातें
व्यथा
वोह बैठी है नदिया किनारे आकुल
मन है उसका व्याकुल
लहरों पर स्थित दोनों कूल
खिलते हैं स्मित के फूल
प्रेमी गया है विदेश
भूल गया अपना देश
अश्रुपूरित नेत्रों की वेदना लहरों मैं घुल गई
प्रेयसी की व्यथा नदी मैं मिल गयी

जीवन एक प्लेटफोर्म है
जीवन एक प्लेटफोर्म है
यहा गाड़ी आती है, चली जाती है
बचपन है वोह पेसंजेर गाड़ी
चलती है और हर स्टेशन पर रूकती जाती है
फिर आती है जवानी यह है एक्सप्रेस गाड़ी
चलती जाती है, स्टेशन छोड़ती जाती है
कही रूकती है, पर चलती जाती है
बुडापा है वोह मालगाड़ी बेदम सी होकर चलती है
आखिर स्टेशन पर पहुंच ही जाती है

1 टिप्पणी:

Mithilesh dubey ने कहा…

बस अन्दर ही अन्दर घुट के रह जाता हूँ
फिर वोह पूछते हैं चुप से क्यों हो

बढिया रचना।