गतांक से आगे गृहस्थ जीवन ही सबसे बड़ा तप है
यह शेष लेख तुलसीदास जी की इन पंक्तियों से आरम्भ कर रहा हूँ,
नारी मुई,धन संपत्ति नासी |
मूड,मुड़ाये भये सन्यासी ||
मतलब कि स्त्री का देहावसन हो गया,संपत्ति का नाश हो गया,बस मुंडन करा के सनाय्सी हो गये, इस प्रकार सन्यासी होना तो कायरता है, अब आगे की बात कहता हूँ, जब मनुष्य गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है, तो पुरष के सिर पर सेहरा रखा जाता है,मतलब यह कि अब गृहस्थ जीवन के कठिन तप के लिए,अपनी जिम्मेदारियों को उठाने के लिए अपना जीवन प्रारंभ करो और अग्नि को साक्षी मान कर सात बचनो में बंध कर स्त्री,पुरष का गठबंधन हो जाता है, अब उन सात वचनों के हिसाब से स्त्री पुरष एक दूसरे के दुख सुख के भागीदार होते है, प्रारम्भ हो गया ना गृहस्थ जीवन का तप,अगर स्त्री कोई कष्ट हो तो पुरुष उसका साथ दे,अगर पुरुष को कोई कष्ट हो तो स्त्री उसका साथ दे, दोनों में से कोई बीमार हो जाये तो दोनों को ही कष्ट सहना ही पड़ता है, अब जब परिवार का प्रारंभ हुआ है,तो ऐसी आय का साधन रखना पड़ता है जो बंद ना हो,यह भी तो तप ही है, आजकल तो एकाकी परिवार हो गए हैं,परन्तु सयुंक्त परिवार में उस स्त्री को जो नयी,नवेली दुल्हन बन कर अपने परिवार को छोड़ कर आई है,उसको वर के माता,पिता भाई,बहनो से सामंजस्य रखना पड़ता है, और वर तथा वधु के मित्रो, करीबी और दूर के रिश्तेय्दारो का भी दायरा बड़ जाता है,और इस समय वर तथा वधु के लिए एक दूसरे के मित्रो, करीबी और दूर के रिश्तेदारों के सुख,दुःख अपने सुख दुःख की ओर अधिक ध्यान देकर के में भागी होना पड़ता है, यह भी तो तप ही है |
इसके बाद अगला चरण आता है,संतान उत्पत्ति का, साथ में रहता है,वर और वधु पक्षों के परिवार का संतान उत्पत्ति का दवाब, आज तो युग बदल गया है, परन्तु पुराने समय में अगर वधु संतान नहीं कर पाती थी,तो उसको बाँझ जैसे शब्द से अलंकृत किया जाता था, चाहे दोष वर में हो, लेकिन अब तो समय बदल गया है, लोग समझदार हो गए हैं,और अब वर तथा बधू दोनों का इस सन्दर्भ में डाक्टरी परिक्षण होता है, और इसका इलाज भी हो जाता है, कोई भी विवाहित स्त्री मातृत्व सुख प्राप्त करना चाहती है, और संतान उत्पन्न होते ही, माँ और पिता को अनेको कष्ट सहेने पड़ते हैं, माँ को अनेको रात जाग कर गुजारनी पड़ती है,और बच्चे को सूखे में सुला कर गीले में सोना पड़ता है,एक नन्ही जान के लिए ना जाने कौन, कौन से कष्ट सहने पड़ते है, संतान बीमार पड़ती है,चाहे दिन हो या रात पिता को डाक्टर का प्रबंध करना पड़ता है,यह तप नहीं तो और क्या है ?
अब संतान जैसे,जैसे बड़ी होती है,उसका पहले स्कूल की शिक्षा का प्रबंध और उसके बाद कोलेज की शिक्षा और उच्च शिक्षा का प्रबंध तो पिता को करना ही पड़ता है, और माँ को घर में बच्चे को अच्छे संस्कार देना, उसकी घर में पड़ाइ की देखभाल तो माँ को करनी पड़ती है, और पती,पत्नी दोनों ही काम काजी हों तो यह कार्य और भी कठिन हो जाता है,यह भी तो तपस्या नहीं तो और क्या है ?
संतान जैसे,जसे बड़ी होती है,उसके मित्र भी बनते जाते हैं, माँ बाप की यह भी जिम्मेदारी बन जाती है,बच्चा बुरी सांगत में ना पड़ जाये और अपने मित्रो से मधुर सम्बन्ध रखे,यह तप नहीं तो और क्या है, यह क्रम संतान के विवाह तक चलता रहता है,और उसके पश्चात अपनी संतानों की संतानों को उचित मार्गदर्शन देना पड़ता है,यह भी तो तपस्या ही है |
इसी लिए तो कहा गया है, गृहस्थ जीवन सबसे बड़ा तप या तपस्या है |
अब इस विषय को हल्का फुल्का कर देते हैं,इस आलेख के पहले भाग में स्त्रियों यानि की गर्लफ्रेंड के बारे में लिखा था,अब पुरषों के लिए कबीर दास जी का दोहा संशोधित करके लिखता हूँ |
रूखी,सूखी कहा कर ठंडा पानी पी
देख के परायी नार मत ललचावे जी
समाप्त ||
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