अब हमारी बदली मेरठ में ,हो गई थी,अब मैं बचपन से किशोर अवथा की तरफ अग्रसर हो रहा था,मुझे याद हैं, हम लोग ट्रक मैं बैठ कर के फरुखाबाद से मेरठ की तरफ़ टूंडला के रास्ते से प्रस्थान कर रहे थे,हम लोगो के साथ पापा का एक इंसपेक्टर मय रेवोल्वर के साथ था,शायद वोह डाकुओं वाला रास्ता था,हम लोगो ने रात मैं एक ढाबे मैं खाना खाया था,और सुबह को मेरठ पहुँच गए थे और एक घर मैं रुके थे,पता नहीं बाकी के अवशेष समिरिती पटल से हठ गए है।
अब जो मुझे याद है की हमने एक घर किराये पर ले लिया था, अभी मेरे मैं साहस था उस घर मैं बहुत से बन्दर थे,जिनके साथ मेरी दोस्ती थी, मैं बंदरो की पीठ पर हाथ फेरता पर वोह मुझे कुछ नहीं कहते थे, अब मुझे अपनी माँ की छुआ छूत याद आ रही हैं,एक बार मैं कुरे के ट्रक मैं कहीं से बैठ कर आ रहा था तब मेरी माँ ने मेरी पिटाई कर दी थी।
अब हम लोगो ने घर बदल लिया था जिसमे मेरे पापा का ऑफिस था, बहुत बड़ा घर था शायद अंग्रेजो के ज़माने का था,चारो तरफ़ खजूर के पेड़ थे,हम खजूर तोड़ कर लाते थे तब पापा उनको लाल दवाई मैं धो कर के हमे खाने को देते थे,इस घर मैं मुझे अपने मामा जी के बच्चो की आने की याद है, हमारे घर के पास किसी का घर था,उन लोगो ने अजीब सी मुर्गिया पाल रखी थी जिसमे से मैंने एक मुर्गी को कटते हुए देखा था, पता नहीं लोग क्यों निरीह जीवो की हत्या कर देते है। उन लोगो ने एक कुत्ता भी पाल रखा था,जिसको हम कहेते थे रोटी देंगे नहीं तो राम राम करो,वोह अपने बैठ कर अपने दोनों पंजो को जोड़ कर राम राम करता था।
उस घर मैं मिस्टर कटारिया रहेते थे जिनकी पत्नी मेरी माँ पर लडाई मैं भारी पड़ती थी,मेरी माँ का अजीब सा स्वाभाव है, अगर कोई मेरी माँ की बुराई हमारे सामने करे तो वोह कहेती है की मेरी बुराई क्यों सुनी,मतलब की हम सामने वाले से लडाई करे, मिस्टर कटारिया की पत्नी ने मेरी माँ की पिटाई हाथ के पंखे से कर दी थी, मेरी माँ ट्रेन मैं भी अक्सर लोगो से झगड़ा करती है।
मेरठ मैं मुझे गवर्नमेंट स्कूल की परीक्षा मैं भेजा गया पर विषयों के अन्तर होने के कारण मैं सफल नहीं हो पाया,फिर हमे आरके अकेडमी मैं दाखिल करवाया गया,हम लोग अब्बू के नाले के सहारे सहारे होते हुए रिक्शा मैं बैठ कर घर आया करते थे, हमारे घर के पास वोल्गा होटल था।
अब हम लोगो ने घर बदल लिया था जो की मेरठ के बेगम बाग मैं था, अब मैं ऊमर के नाजुक कहे जाने वाले पड़ाव मैं पहुंच गया था, पर शायद मेरे माँ बाप को बच्चो को समझना आता ही नहीं था,मेरी माँ मेरे और मेरे भाई मैं भेद भावः करती थी जोकि अभी भी करती है, और मेरे पापा हमेशा हम बच्चो को त्रिस्किरत,अपमानित करते थे, वोहो नहीं देखते थे की कोई सामने है की नहीं,उनको पता ही नहीं था की बच्चो पर क्या असर पड़ेगा, जिसके कारण मैं जीवन मैं सफल नहीं हो पाया,मेरे पापा का बर्ताव तो हम दोनों भाइयो के साथ एक जैसा था, पर मेरे भावुक स्वाहाव होने के कारण मेरे पर विपरीत असर पड़ा। एक बार हमारे घर पापा को कोई अफसर आया हुआ था वोह बोला बच्चे अपने आप खाना बना लेंगे इस पर पापा बोले यह इतनी स्मार्ट नहीं है, अभी मैं अपने घर के एक कमरे मैं ऊपर बनी दोछती जो की बहुत ऊँची थी नीचे कूद जाया करता था,पर अब मेरा आत्मविश्वास समाप्त होने लगा था,और गह्भारत घर करने लगी थी,मेरा भाई बहुत अच्छी बांसुरी बजा था तो मेरे पापा कहते की बांसुरी तो नाली के कीडे बजाते हैं।
यहाँ से मेरी बर्बादी के आसार शुरू हो गए थे, जिसका असार मैं अभी तक झेल रहा हूँ, कई बार सोचता हूँ कीमिरतु क्योँ नहीं आ जाती ऐसे जीवन का क्या लाभ,अपने आप को मारने का साहस मुझ मैं नहीं है।
मेरी माँ तो हमेशा कहती पडो पर जीवन कैसे संगर्ष कर के व्यतित करना है, वोह हमे कभी नहीं सिखाया।
बस छुआ छूत की तरफ़ मेरी माँ का ज्यादा ध्यान था, पापा मन्दिर मैं परसाद चडाते थे, पर उनकी अनुपथिति मैं मेरी माँ परसाद चदाती थी तब मैं भी साथ मैं होता तब वोह पास के लड़को से बचने के लिए कहेती थी, तुब लड़को ने मेरा नाम छुई मुई रख दिया था, क्योंकि मैं उनसे बचने की कोशिश करता।
यहाँ पर पापा के एक सब इंसपेक्टर आते थे जो की माँ के भगत थे,एक बार मेरे भाई की आंख मैं चोट लग गई थी तब उनोहने पूजा की थी, मेरे भाई की आंख काफी हद तक ठीक हो गई थी, डॉक्टर चंदरबरदाई जो की आँखों का डॉक्टर थे बोले की इस आदमी को पहेले क्योँ नहीं बुलाया,क्यूंकि वोह हैरान थे,पर पापा ने उनको वयस्क पत्रिकाए दिखा कर भ्रस्त कर दिया था, उन सब इंसपेक्टर के साथ हमने बहुत से शक्ति पीठो के दर्शन किए थे,हम लोग शुक्रताल गए जहाँ पर हम एक अवकाश निविरित पुलिस अधिख्षक से मिले जो की साधू हो गए थे, उस समय शुक्रताल घना जंगल था,उनके घर मैं शेर आ थे, पर उन्होंने पंखे मैं एक बल्ब लगा रखा था, वोह कहेते थे इसको देख कर शेर डर जाता है।
खैर वोह सब इंसपेक्टर शुक्रताल मैं ही रहना चाते थे,पता नहीं वोह वापस कैसे आ गए।
अब मुझे याद है की हम लोग पापा के साथ उनके टूर पर हरिद्वार,देहरादून मोस्सरी जाया करते थे।
अभी मुझे अपने दोस्तों के द्वारा व्यस्क बातो का पता लगा था,जिज्ञासा बड़ने लगी अब मैं ऊमर के नाजुक कहे जाने वाले मोड़ से निकल कर जवानी के शरू के पड़ाव मैं पहुँच गया था,अब हमारी बदली कानपूर के लिए हो गई थी,अब मुझे याद है की हम ट्रेन के फर्स्ट क्लास के डिब्बे मैं बैठ कर कानपूर जा रहे थे, मेरी माँ मेरठ से दूर जाने के लिए रो रही थी,क्योंकि वोह अपने मायके से दूर जा रही थी, लोग जब दूसरो को दुःख देते हैं तो अपने बारे मैं भूल जात्ये है, मेरी माँ ने बहुत साल तक मेरी पत्नी को रुलाया है,पर वोह पूजा पाठ करती है, पता नहीं इस तरह पूजा पाठ सफल होती हैं की नहीं।
मुझे तो विवेकनन्द जी की बात याद आती है, अपने आस पास के लोगो को देखो और उनकी सहायता करो वोह सब से बड़ी पूजा है।
कबीर दस जी कहते है, कर का मनका छोड़ के मन का मनका फेर।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें