रविवार, फ़रवरी 01, 2009

पश्च्यात्वाद

आज कल पास्च्याता के अँधा अनुकरण मैं किस कारण हिन्दी संस्कृति विलीन होती जा रही है, मेरे अनुसार हम लोगो को परतयक सभ्यता की अच्छी बातो का अनुसरण करना तो ठीक है, पर अँधा अनुकरण क्यों? आज के हिन्दी समाज की कुछ अवाश्यक्त्याय हैं, जैसे की जीवन मैं अगर्सर होने के लिए अंगेरजी की आवश्यकता है, बच्चे की प्रारंभिक शिक्षा के लिए आंगल भाषा अवाश्यक है, और इंजीनियरिंग, डॉक्टर और विविध व्यवसाय के लिए अंगेरजी का ज्ञान होना अति आवश्यक है, और यह भी आवशयक है की बोलचाल और लिखने के लिए अंगेरजी का निरंतर अभ्यास भी आवशयक है, परन्तु जब हम लोग इसमे अभ्यस्त हो जाते है, पर आपस मैं बोल चाल के लिए आंग्ल भाषा का उपयोग करते हैं, यह तो ठीक है कि विदेशियों से बात करने के लिए अंगेरजी मैं बात करनी कि आवश्यकता है पर परस्पर क्योँ?
पहेले कभी यह हुआ था कि सरकारी काम राष्ट्रभाषा मैं होगा परन्तु वोह मुद्दा बहीं का बही रह गया, और आंग्ल भाषा ही शान बन गयी, यह तो हुई भाषा कि बात, हमारा प्राचीन भारत संस्क्रित्यों कि खान था, नालंदा जैसे विश्विद्यालयों मैं अनेको देशो के लोग शिक्षा प्राप्त करते थे,परन्तु अब तो उलट भारतीय लोग विदेशो मैं शिक्षा प्राप्त करते हैं,उससे भी पहले तो गुरु शिष्य परम्परा थी, जिसमे शिष्यों का सब प्रकार का विकास होता था, एक ही गुरु के द्वारा सब प्रकार का विकास शाररिक,बोधिक,आत्मिक परन्तु अब तो अलग, अलग विषयों के लिए गुरु है, कितने महान गुरु थे,परतेयक विषयों मैं पारंगत, और इस गुरु शिष्य की परम्परा मैं हमारे भगवान भी सम्मिलित थे, और उन लोगो ने गुरु का मान रखा,आज कल तो विदेशी लोग गुरुयों को और यहाँ की संस्कृतियों के बारे मैं उत्सुकता लिए यहाँ आते हैं, पर अधिंकाश भटक जाते हैं, क्योंकि उनको सही गुरु नहीं मिल पाता क्योंकि अब उस तरह के गुरु हैं ही कितने।

हम लोग क्योँ उनके पर्व जैसे वैलेंटाइन डे, मदर डे, फाथर डे का अँधा अनुसरण कर रहे हैं, बस मात्र एक दिन, हमारी संस्कृति मैं यह तो प्रतेक दिन मैं समिल्लित हैं, यह तो ठीक है हमे इन दिनों के कारणों से हमारे को स्मरण रहता है, परन्तु यहाँ से प्रारम्भ हो कर के परतेयक दिन की दिनचर्या हो तो कितना अच्छा है।
वैलेंटाइन मुझे याद दिला देता है, कालिदास की मेघदूत सरंचना, किस तरह उन्होने मेघ को दूत बना कर उन्होने अपना संदेश प्रेयसी को भेजा था, और मदर डे फाथर डे से याद आता है, मात्रे देवो भव,पित्र देवो भव जैसे सम्मान सूचक शब्द।
अब आता हूँ सेक्स की और जिसका आज कल समाज मैं विकृत रूप दीखता है, येही से ही उत्पति हुई थी वात्सायन के कामसूत्र की, यहीं तो खुजुर्हाओ के मन्दिर,जिसको देखने के लिए विदेशी आते हैं, सेक्स की कला की उत्पति भी येही से हुई थी, खुजराहो के मन्दिर मन्दिरों मैं तो इस कला का सुंदर स्वरुप दिखाई देता है, कोई भी सेक्स का पर्तेअक प्रकार का स्वरूप उबलब्ध है।
ऐसा था स्वरुप हमारे भारत का था, विश्व मैं सोने की चिडिया के नाम से विख्यात, पर अब तो पश्चिम मैं विलीन होता जा रहा है।



कोई टिप्पणी नहीं: