अभी,अभी पंडित दी.के वत्स जी का लेख पड़ा,मन्त्र,कर्मकांड,उपासना से लाभ क्यों नहीं मिलता, में पंडित जी के लेख बहुत मनोयोग से पड़ता हूँ, जिसमें पंडित जी ने जो लिखा है, हमें इस योग्य होना चाहिए कि, हम इन चीजों का लाभ उठा सकें, मेरे मन में बहुत से अनसुलझे प्रश्न उठते हैं, ईश्वर के एक बार दर्शन करने के बाद यहाँ,वहाँ भटकता रहा कि पुन: दर्शन हो जाएँ, किसी ने कहा कोई गुरु बनाओ, फिर गुरु की खोज में,भटकता रहा, यह भी कहा जाता है,"पानी पियो छान के,गुरु बनाओ जान के", एक गुरु भी बनाये, प्रारंभ में तो वोह गुरु तो मुझे अच्छे लगे, और लगभग तीन साल के बाद मुझे लगा कि उनकी अपने सब शिष्यों पर सम दृष्टि नहीं है, लेकिन यह बात मैंने प्रकट नहीं करी, लेकिन एक दिन मैंने उन गुरु जी से जिज्ञासावश कोई प्रश्न पूछा तो उन्होंने मुझे बहुत बुरी तरह से धुत्कार दिया, और मेरे को चार दिन तक तो रात को नींद ही नहीं आई, और तो और उनके एक और शिष्य हैं, मुझे ज्ञात नहीं वोह मेरे मनोभावों को कैसे पड़ लेते थे, मेरी उनके उन शिष्य से अच्छी मित्रता हो गयी थी,उनके पास मुझे कुछ मानसिक आराम मिलता था,परन्तु वोह तथाकथित गुरु जी,अपने उन शिष्य और मेरे मित्र के पास सुबह,शाम आया करते थे,मेरे पास भी वोही समय होता था, इसलिए मैंने अपने उन मित्र के पास जाना छोड़ दिया |
मेरी विडंबना यह रही,मैंने श्री परमहंस योगानंद जी को गुरु बनाने के लिए आवेदन किया था, योगानंद जी तो इस दुनिया में नहीं थे, परन्तु उनके अध्याय ही गुरु की तरह प्रेरणा देते थे,वोह केवल एक माह में एक ही प्रति आती थी, और उन अध्यायों का मेरी बहुत मानसिक,शारीरिक और अध्यात्मक उन्नति कर रहे थे, आप विश्वास करें या नहीं करें,में लोगों की चिकत्सा योग से करने लगा,और उक्त घटना के बाद मेरे मन में वोह अध्याय पड़ने की रूचि बिलकुल समाप्त हो गयी थी, और एक और विद्या जो कि संभवत: चीन कि थी,प्राणिक हीलिंग जिसमें दूरस्थ या समीप लोगों की चिकत्सा बिना छुये और बिना दवाइयों के में कर लेता था,और यही काम में योग द्वारा कर लेता था, परन्तु यह विद्याएँ मेरे में उस घटना के बाद समाप्त हो चुकीं हैं |
पंडित जी का वोह लेख भी पड़ा है,जिसमें उन्होंने अंत:कारण को गुरु बताया है, यह बात तो यहीं पर छोड़ता हूँ, जब यह सब समाप्त हो गया तो में तो क्षणिक ख़ुशी की खोज करता हूँ, मुझे मालूम हैं यह क्षणिक खुशियाँ क्षणिक ही हैं, स्थायी नहीं हैं,और यह क्षणिक खुशियाँ नहीं मिल पातीं तो मन बहुत खिन्न हो जाता है,फिर भी मन क्षणिक खुशियों की ओर भागता है, यह सब मेरे मन के उदगार हैं, पंडित जी का वोह लेख पड़ कर में भावुक हो उठा, मैंने एक बार लिखा था कि में विवादित लेख नहीं लिखूंगा,पर क्या करुँ दिल है कि मानता नहीं |
पुन: कहता हूँ,यह मेरे हिर्दय से निकले हुए उदगार हैं,कोई माने या नहीं माने, पंडित जी की इस सार्थक लिखी हुई पोस्ट से भावुक हो गया |
इसी प्रतीक्षा में हूँ, क्षणिक ख़ुशी के स्थान पर वास्तविक और स्थायी ख़ुशी मिल जाये
स्थायी ख़ुशी की प्रतीक्षा है
पंडित जी से क्षमायाचना सहित
2 टिप्पणियां:
जब जीवन ही क्षणिक है तो सुख-दुःख स्थायी कैसे हो सकते हैं?
विनय जी । अब आपके दोनों ब्लाग मेरे सिस्टम पर आराम से खुलने
लगे । आपकी नयी पोस्ट मुझसे ही रिलेटिड थी । इसलिये वहां टिप्पणी
करना मुझे उचित नहीं लगा । पर आपका ये लेख मुझे अच्छा लगा ।
पं डी के शर्मा वत्स जी की आधी बात सही है । अंतकरण में गुरु होता है ।
जो वास्तव में अंतकरण में नहीं आंतरिक होता है । और ये सबके ही पास
होता है । फ़िर गुरु की आवश्यकता ही क्या है ? वास्तव में शरीर युक्त सच्चे
गुरु हमें आंतरिक गुरु से मिला देते हैं । और स्पष्ट रूप से हमारी कई समस्याओं
का समाधान भी करते हैं । मैं आपका एक लेख " ईश्वर ने सृष्टि क्यों बनाई "
अपने ब्लाग पर प्रकाशित कर चुका हूं । इस लेख के भी प्रश्नों पर अपना
नजरिया रखने के लिये ले जा रहा हूं । आपने पं डी के शर्मा वत्स जी
के लेख का शीर्षक नहीं लिखा । अन्यथा उसको भी पडकर पंडित जी के
विचार जानता । अंत में आपका बहुत बहुत धन्यबाद ।
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