|मेरी मेरे ब्लॉग की यह शतकीय पोस्ट है |
यह तो मुझे याद नहीं कब मैंने ब्लॉग लिखने प्रारम्भ किये थे, हाँ बस लिखता चला गया, दो निजी ब्लॉग बनाये थे,www.vinay-mereblog.blogspot.com और दूसरा www.snehparivar.com , शेष दो ब्लॉग में से एक ब्लॉग पिता जी अविनाश जी ने मेरे डेशबोर्ड पर पहुँचाया था,और एक और ब्लॉग कबीरा खड़ा बाजार में किसी और ने मेरे डेशबोर्ड पर पहुँचाया था, मैंने तो युहीं अपनी पहली पोस्ट मेरी जीवनी से www.vinay-mereblog.blogspot.कॉम में लिखी थी,मुझे ज्ञात ही नहीं था,मेरी पोस्ट पड़ी जाएँगी और उन पर टिप्पणियाँ भी आयंगी, उससे पहले भी एक ब्लॉग बनाया था,और उस ब्लॉग का पता ही नहीं चला,ब्लॉगर के अपडेट होने के बाद वोह ब्लॉग कहीं खो गया, हो सकता है, ब्लॉगर के मुख्य सर्वर पर भी ना हो |
मेरा ना ब्लोगवाणी से कोई परिचय था,ना चिटठा जगत का, एक बार अविनाश जी से दूरभाष पर बात हो रही थी, मैंने यह उनसे पूछा कि " आप लोग किसी नए लिखने को कैसे जान लेते हैं ?" , तब अविनाश जी ने मेरा परिचय ब्लोगवाणी और चिट्ठाजगत से करवाया था |
यहाँ ब्लॉगर पर आकर के बहुत से लोगों से पहचान हुई, और भिन्न,भिन्न विषयों का ज्ञान मिला, बस एक बात की कसक रह गयी, मेरी रिहायश के आस पास दो स्थान पर ब्लागरों का सम्मलेन हुआ, लेकिन कुछ निजी कारणों से ना वहाँ जा सका, इसलिए आमने,सामने किसी से मुलाकात नहीं हुई, एक बार तो कुछ पेमेंट करनी थी, और दूसरी बार पत्नी को मलेरिया हो गया था, अविनाश जी तो गाजिआबाद के पास दिल्ली में ही रहते हैं, उनका दो बार हमारे घर आने को प्रोग्राम भी बना, एक बार तो वोह हमारे घर आने वाले थे, परन्तु उनका बीच में ही उनका प्रोग्राम बदल कर नोयडा जाने का बन गया, दूसरी बार उनका किसी शादी में फिर गाजियाबाद आने का था,और बहुत देर रात्रि में आने के कारण वोह, दोबारा हमारे घर नहीं आ पाए थे, पाबला जी भी एक ब्लॉगर सम्मलेन में गाजिआबाद आये थे, पाबला जी ने तो मेरी दो ब्लॉगर की दो तकनिकी समस्या का भी समाधान किया था, सब ब्लोग्गरो के जन्मदिन,वैवाहिक वर्षगांठ और ब्लोग्गरो की समाचार पत्रों में, ब्लोग्गोरो द्वारा लिखी हुई पोस्ट को स्मरण करा कर ख़ुशी देने वाली इस शख्सियत से मिलने की बहुत हसरत थी, लेकिन एन मौके पर पत्नी को मलेरिया बुखार हो गया, उनसे तो दूरभाष पर इस सम्बन्ध में बात भी हो चुकी थी, होना तो वोही होता है,जो ऊपर वाले को मंजूर होता है |
ब्लॉग बनाने से यह भी लाभ हुआ, ज्योतिष का ज्ञान मिला जिसमे संगीता जी, पंडित डी.के वत्स जी अग्रणी हैं, अलका जी के द्वारा लिखे हुए लेखो से ज्ञात हुआ कैसे फल,सब्जियों से रोगों की चिकत्सा संभव है, लवली जी के लिखे हुए मनोवेग्यानिक लेख से मनोविज्ञान की जानकारी मिली, आशीष जी के कारण में में हिंदी में टिप्पणी दे पाता हूँ, उनका तकनिकी ज्ञान भी मिलता है| आप सब लोगों को तहदिल से धन्यबाद में तो यह भी नहीं जानता था, इसमें अनुसरण करता बन जाते हैं, उन सब अनुसरण कर्ताओं को धन्यबाद, जब पहला ब्लॉग स्नेह परिवार बनाया था,तब सबसे पहली अनुसरण करता थीं ,शमा जी जो की बहुत सी कला की धनी हैं |
उड़न तश्तरी जी को कौन भूल सकता है, उनकी टिप्पणियाँ तो, लगभग सारे ब्लोगों में मिल जातीं हैं, और अपनी कहानी परिवर्तन के समय में लिखे हुए पहले भाग से मुझे लगा,वोह लेखों को बहुत ध्यान से पड़ते हैं, क्योंकि मेरी कहानी परिवर्तन के पहले भाग में मेरी त्रुटी की ओर ध्यान दिलाया था, और वोह जो त्रुटी थी बहुत ही सूक्ष्म थी, उड़न तश्तरी जी आपको बहुत,बहुत धन्यवाद |
समय,समय पर मनु जी,अविनाश जी,संगीता जी,शमा जी,अनीता जी,पावला जी,अलका जी,पूर्णिमा जी से चैटिंग होती रहती है,और मुझे अपना परिवार सा ही लगता है,ब्लॉग की एक पोस्ट जिसमे गणेश उत्सव के समय मैंने गणपति जी से प्रार्थना करी थी,वोह समाचार पत्र हरिभूमि में छप गया था, जिसकी सूचना मुझे अविनाश जी ने एक टिप्पणी देकर करी थी,में तो आश्चर्य चकित था|
में कोई साहित्यकार तो नहीं,बस एक लिखने का शौक है, साहित्यक त्रुटी तो होतीं हैं ही, एक बार पूर्णिमा जी को होली की शुभकामनाये दे रहा था,और अधिकतर चैत्तिंग में पूर्णिमा लिख रहा था,तब पूर्णिमा जी ने मजाक में कहा जब आप पूर्णिमा लिखेंगे,तब शुभकामनाये लूंगी,लेकिन फिर मैंने पूर्णिमा लिखा तब वोह बोली फिर गलत,उसके बाद मैंने अपनी त्रुटी सूधार के पूर्णिमा लिखा तो वोह बोलीं, "यही हुई ना बात" |
शनिवार, मार्च 20, 2010
शुक्रवार, मार्च 19, 2010
गतांक से आगे (गृहस्थ जीवन ही सबसे बड़ा तप है )
गतांक से आगे गृहस्थ जीवन ही सबसे बड़ा तप है
यह शेष लेख तुलसीदास जी की इन पंक्तियों से आरम्भ कर रहा हूँ,
नारी मुई,धन संपत्ति नासी |
मूड,मुड़ाये भये सन्यासी ||
मतलब कि स्त्री का देहावसन हो गया,संपत्ति का नाश हो गया,बस मुंडन करा के सनाय्सी हो गये, इस प्रकार सन्यासी होना तो कायरता है, अब आगे की बात कहता हूँ, जब मनुष्य गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है, तो पुरष के सिर पर सेहरा रखा जाता है,मतलब यह कि अब गृहस्थ जीवन के कठिन तप के लिए,अपनी जिम्मेदारियों को उठाने के लिए अपना जीवन प्रारंभ करो और अग्नि को साक्षी मान कर सात बचनो में बंध कर स्त्री,पुरष का गठबंधन हो जाता है, अब उन सात वचनों के हिसाब से स्त्री पुरष एक दूसरे के दुख सुख के भागीदार होते है, प्रारम्भ हो गया ना गृहस्थ जीवन का तप,अगर स्त्री कोई कष्ट हो तो पुरुष उसका साथ दे,अगर पुरुष को कोई कष्ट हो तो स्त्री उसका साथ दे, दोनों में से कोई बीमार हो जाये तो दोनों को ही कष्ट सहना ही पड़ता है, अब जब परिवार का प्रारंभ हुआ है,तो ऐसी आय का साधन रखना पड़ता है जो बंद ना हो,यह भी तो तप ही है, आजकल तो एकाकी परिवार हो गए हैं,परन्तु सयुंक्त परिवार में उस स्त्री को जो नयी,नवेली दुल्हन बन कर अपने परिवार को छोड़ कर आई है,उसको वर के माता,पिता भाई,बहनो से सामंजस्य रखना पड़ता है, और वर तथा वधु के मित्रो, करीबी और दूर के रिश्तेय्दारो का भी दायरा बड़ जाता है,और इस समय वर तथा वधु के लिए एक दूसरे के मित्रो, करीबी और दूर के रिश्तेदारों के सुख,दुःख अपने सुख दुःख की ओर अधिक ध्यान देकर के में भागी होना पड़ता है, यह भी तो तप ही है |
इसके बाद अगला चरण आता है,संतान उत्पत्ति का, साथ में रहता है,वर और वधु पक्षों के परिवार का संतान उत्पत्ति का दवाब, आज तो युग बदल गया है, परन्तु पुराने समय में अगर वधु संतान नहीं कर पाती थी,तो उसको बाँझ जैसे शब्द से अलंकृत किया जाता था, चाहे दोष वर में हो, लेकिन अब तो समय बदल गया है, लोग समझदार हो गए हैं,और अब वर तथा बधू दोनों का इस सन्दर्भ में डाक्टरी परिक्षण होता है, और इसका इलाज भी हो जाता है, कोई भी विवाहित स्त्री मातृत्व सुख प्राप्त करना चाहती है, और संतान उत्पन्न होते ही, माँ और पिता को अनेको कष्ट सहेने पड़ते हैं, माँ को अनेको रात जाग कर गुजारनी पड़ती है,और बच्चे को सूखे में सुला कर गीले में सोना पड़ता है,एक नन्ही जान के लिए ना जाने कौन, कौन से कष्ट सहने पड़ते है, संतान बीमार पड़ती है,चाहे दिन हो या रात पिता को डाक्टर का प्रबंध करना पड़ता है,यह तप नहीं तो और क्या है ?
अब संतान जैसे,जैसे बड़ी होती है,उसका पहले स्कूल की शिक्षा का प्रबंध और उसके बाद कोलेज की शिक्षा और उच्च शिक्षा का प्रबंध तो पिता को करना ही पड़ता है, और माँ को घर में बच्चे को अच्छे संस्कार देना, उसकी घर में पड़ाइ की देखभाल तो माँ को करनी पड़ती है, और पती,पत्नी दोनों ही काम काजी हों तो यह कार्य और भी कठिन हो जाता है,यह भी तो तपस्या नहीं तो और क्या है ?
संतान जैसे,जसे बड़ी होती है,उसके मित्र भी बनते जाते हैं, माँ बाप की यह भी जिम्मेदारी बन जाती है,बच्चा बुरी सांगत में ना पड़ जाये और अपने मित्रो से मधुर सम्बन्ध रखे,यह तप नहीं तो और क्या है, यह क्रम संतान के विवाह तक चलता रहता है,और उसके पश्चात अपनी संतानों की संतानों को उचित मार्गदर्शन देना पड़ता है,यह भी तो तपस्या ही है |
इसी लिए तो कहा गया है, गृहस्थ जीवन सबसे बड़ा तप या तपस्या है |
अब इस विषय को हल्का फुल्का कर देते हैं,इस आलेख के पहले भाग में स्त्रियों यानि की गर्लफ्रेंड के बारे में लिखा था,अब पुरषों के लिए कबीर दास जी का दोहा संशोधित करके लिखता हूँ |
रूखी,सूखी कहा कर ठंडा पानी पी
देख के परायी नार मत ललचावे जी
समाप्त ||
यह शेष लेख तुलसीदास जी की इन पंक्तियों से आरम्भ कर रहा हूँ,
नारी मुई,धन संपत्ति नासी |
मूड,मुड़ाये भये सन्यासी ||
मतलब कि स्त्री का देहावसन हो गया,संपत्ति का नाश हो गया,बस मुंडन करा के सनाय्सी हो गये, इस प्रकार सन्यासी होना तो कायरता है, अब आगे की बात कहता हूँ, जब मनुष्य गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है, तो पुरष के सिर पर सेहरा रखा जाता है,मतलब यह कि अब गृहस्थ जीवन के कठिन तप के लिए,अपनी जिम्मेदारियों को उठाने के लिए अपना जीवन प्रारंभ करो और अग्नि को साक्षी मान कर सात बचनो में बंध कर स्त्री,पुरष का गठबंधन हो जाता है, अब उन सात वचनों के हिसाब से स्त्री पुरष एक दूसरे के दुख सुख के भागीदार होते है, प्रारम्भ हो गया ना गृहस्थ जीवन का तप,अगर स्त्री कोई कष्ट हो तो पुरुष उसका साथ दे,अगर पुरुष को कोई कष्ट हो तो स्त्री उसका साथ दे, दोनों में से कोई बीमार हो जाये तो दोनों को ही कष्ट सहना ही पड़ता है, अब जब परिवार का प्रारंभ हुआ है,तो ऐसी आय का साधन रखना पड़ता है जो बंद ना हो,यह भी तो तप ही है, आजकल तो एकाकी परिवार हो गए हैं,परन्तु सयुंक्त परिवार में उस स्त्री को जो नयी,नवेली दुल्हन बन कर अपने परिवार को छोड़ कर आई है,उसको वर के माता,पिता भाई,बहनो से सामंजस्य रखना पड़ता है, और वर तथा वधु के मित्रो, करीबी और दूर के रिश्तेय्दारो का भी दायरा बड़ जाता है,और इस समय वर तथा वधु के लिए एक दूसरे के मित्रो, करीबी और दूर के रिश्तेदारों के सुख,दुःख अपने सुख दुःख की ओर अधिक ध्यान देकर के में भागी होना पड़ता है, यह भी तो तप ही है |
इसके बाद अगला चरण आता है,संतान उत्पत्ति का, साथ में रहता है,वर और वधु पक्षों के परिवार का संतान उत्पत्ति का दवाब, आज तो युग बदल गया है, परन्तु पुराने समय में अगर वधु संतान नहीं कर पाती थी,तो उसको बाँझ जैसे शब्द से अलंकृत किया जाता था, चाहे दोष वर में हो, लेकिन अब तो समय बदल गया है, लोग समझदार हो गए हैं,और अब वर तथा बधू दोनों का इस सन्दर्भ में डाक्टरी परिक्षण होता है, और इसका इलाज भी हो जाता है, कोई भी विवाहित स्त्री मातृत्व सुख प्राप्त करना चाहती है, और संतान उत्पन्न होते ही, माँ और पिता को अनेको कष्ट सहेने पड़ते हैं, माँ को अनेको रात जाग कर गुजारनी पड़ती है,और बच्चे को सूखे में सुला कर गीले में सोना पड़ता है,एक नन्ही जान के लिए ना जाने कौन, कौन से कष्ट सहने पड़ते है, संतान बीमार पड़ती है,चाहे दिन हो या रात पिता को डाक्टर का प्रबंध करना पड़ता है,यह तप नहीं तो और क्या है ?
अब संतान जैसे,जैसे बड़ी होती है,उसका पहले स्कूल की शिक्षा का प्रबंध और उसके बाद कोलेज की शिक्षा और उच्च शिक्षा का प्रबंध तो पिता को करना ही पड़ता है, और माँ को घर में बच्चे को अच्छे संस्कार देना, उसकी घर में पड़ाइ की देखभाल तो माँ को करनी पड़ती है, और पती,पत्नी दोनों ही काम काजी हों तो यह कार्य और भी कठिन हो जाता है,यह भी तो तपस्या नहीं तो और क्या है ?
संतान जैसे,जसे बड़ी होती है,उसके मित्र भी बनते जाते हैं, माँ बाप की यह भी जिम्मेदारी बन जाती है,बच्चा बुरी सांगत में ना पड़ जाये और अपने मित्रो से मधुर सम्बन्ध रखे,यह तप नहीं तो और क्या है, यह क्रम संतान के विवाह तक चलता रहता है,और उसके पश्चात अपनी संतानों की संतानों को उचित मार्गदर्शन देना पड़ता है,यह भी तो तपस्या ही है |
इसी लिए तो कहा गया है, गृहस्थ जीवन सबसे बड़ा तप या तपस्या है |
अब इस विषय को हल्का फुल्का कर देते हैं,इस आलेख के पहले भाग में स्त्रियों यानि की गर्लफ्रेंड के बारे में लिखा था,अब पुरषों के लिए कबीर दास जी का दोहा संशोधित करके लिखता हूँ |
रूखी,सूखी कहा कर ठंडा पानी पी
देख के परायी नार मत ललचावे जी
समाप्त ||
गुरुवार, मार्च 18, 2010
गृहस्थ जीवन ही सबसे बड़ा तप है |
इस लेख का प्रारंभ कर रहा हूँ,एक प्राचीन काल की घटना से,आज के युग में नारियों को अभी बराबरी का हिस्सेदार नहीं समझा जाता है, वनिस्पत आज नारियां बहुत से वोह कार्य कर रहीं हैं, जिनपर पुरषों का एकाधिकार था,आज सेना में नारियां हैं,परन्तु उनका सेवा काल केवल चोदह वर्ष है,जबकि पुरषों का सेवाकाल पद के हिसाब से अधिक है, वायु सेना में स्त्रिया हवाई जहाज उड़ा रहीं हैं, लेकिन फाइटर वायुयान के लिए नारियां नहीं हैं,इसी प्रकार इन्फेंटरी वोह सेना जो जंग के समय युद्ध मोर्चे पर आगे रहती हैं, उसमें स्त्रिया नहीं हैं,कारण यह है,की नारियां कहीं युध्बंदी ना हो जाये, हाँ बोर्डर सिकुयुरीटी में नारियों का समावेश अवश्य किया गया है ,आज संसद में जब 33 प्रतिशत महिला आरक्षण का बिल पास किया गया था,तो इसके विरोध में जोरदार प्रदर्शन हुआ था, जो हुआ था वोह तो सर्वविदित है |
लेकिन हमारे प्राचीन भारतवर्ष में स्त्रियों को उचित सम्मान दिया जाता था और स्त्री पुरष को एक समान समझा जाता था, और उस समय बहुत सी विदुषी स्त्रियाँ भी हुई थीं, उनमे से एक थीं गार्गी शस्त्रों में प्रकांड पंडित,उस समय शस्त्रों की अधिकतर वाद विवाद प्रोतियुगता हुआ करती थी, शास्त्रार्थ करने के लिए लोग दूर,दूर से पुस्तकों लेकर आते थे, जिसके बारें में कबीर दास जी का दोहा भी है |
पोथी पड पड जग मुआ पंडित भया ना कोय |
ढाई आखर प्रेम के जो पड़े सो पंडित होय ||
गार्गी के समय एक ऋषि हुए थे,याग्यवाल्य्क्य ऋषि, ऋषि याग्वालाक्य के साथ गार्गी का शास्त्रार्थ होने लगा, जैसे कबीर दास जी ने अपने ऊपर लिखे हुए दोहे में,से पहली पंक्ति में कहा है,उसके अनुसार जो शास्त्रार्थ में विजयी हो जाता था, उसको हारने वाले से उच्च कोटि का पंडित माना जाता था, अब ऋषि याग्यवालाक्य और गार्गी का शास्त्रार्थ होने लगा, दिन बीतते गये पर ना गार्गी हार मान रही थीं ना ऋषि यागाय्वाल्क्य, ऋषि यागयावालाय्क्य को गृहस्थ जीवन का अनुभव नहीं था, परन्तु गार्गी तो गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रहीं थीं, और गार्गी ने ऋषि यागावालाक्य से गृहस्थ जीवन के बारे में प्रश्न पूछ लिया, जिसका उत्तर ऋषि यागावाल्य्क्य नहीं दे पाए और शास्त्रार्थ में हार गये,और गार्गी विजयी हो गयीं, तत्पश्चात ऋषि यागावालाक्य ने माँ के गर्भ में प्रवेश कर के गृहस्थ जीवन का अनुभव लिया, वास्तव में तप क्या है, अपने को तपाना, इसका अर्थ यह नहीं है अपने शरीर को बिभिन्न प्रकार के कष्ट दो, इसका अर्थ है दूसरों के लिए विभिन्न प्रकार के कष्ट सहना, और इन कष्टों को सेहन करते हुए,प्रभु को समरण करना, इसी सन्दर्भ में एक और कथा है, सीता जी के पिता राजा जनक और राजा परीक्षत को भगवद्गीता सुनाने वाले शुकदेव जी के बारे में |
शुकदेव जी को किसी ने कहा राजा जनक को अपना गुरु बनाने को, और शुकदेव जी पुस्तकों का बोझ लादे हुए पहुँच गए राजा जनक के यहाँ,और देखते क्या हैं राजा जनक शानदार महल है,अनेकों रानियाँ हैं, शुकदेव जी सोचने लगे कि इतनी भोग विलासिता वाला मेरा गुरु कैसे हो सकता है, राजा जनक को शुकदेव जी की बात का ज्ञान हुआ,तो राजा जनक के हाथ में एक दिया दिया और राजा जनक शुकदेव जी से बोले,इस दिए को लेकर मेरे महल का चक्कर लगाओ और यह दिया बुझना नहीं चाहिए,शुकदेव जी का ध्यान तो केवल दिए पर ही केन्द्रित था,कहीं यह दिया बुझ ना जाये,और जब शुकदेव जी महल का चक्कर लगा कर राजा जनक के पास पहुंचे,तो राजा जनक ने पूछा महल में क्या देखा, शुकदेव जी का ध्यान तो दिए पर ही केन्द्रित था,तो उन्होंने उत्तर दिया मेरा ध्यान दिए पर ही केन्द्रित था,फिर बाकि में क्या देख पाता ?
राजा जनक ने फिर शुकदेव जी के हाथ में दिया,दिया और बोले महल की सब वस्तुएं देखना,और ध्यान रखना दिया ना बुझे,अब शुकदेव जी महल की वस्तुएं तो देखते ही थे,और बीच,बीच में दिए को भी देखते थे,और अब जब शुकदेव जी महल का चक्कर लगा कर राजा जनक के पास पहुंचे,तो राजा जनक ने पुन: पूछा महल में क्या देखा ? तो शुकदेव जी ने महल की सारी भव्यता राजा जनक को सुना दी,और दिए की लौ भी जल रही थी, तब राजा जनक ने कहा जिस प्रकार तुमने दिए में भी ध्यान रखा और महल को भी अच्छी प्रकार से देखा,उसी प्रकार में इस भोग विलासिता में रह कर गृहस्थ जीवन के सारे कर्म करता हूँ,और प्रभु को भी हर समय स्मरण करता हूँ, यही गृहस्थ जीवन का तप है,जो कि सबसे बड़ा तप है |
अपने गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियों को छोड़ कर, तप के लिए,पर्वतों,कंदराओ,जंगलो में भटकना तो पाप है |
थोड़ा गंभीर हो गया है,यह लेख चलो कुछ हंसी भी हो जाये |
परीक्षा और गर्लफ्रेंड एक समान हैं
दोनों में ही कठिन प्रश्न होते हैं
और उनकी व्याख्या बहुत करनी पड़ती है
हिंदुस्तान टाइमस के देल्ही टाइमस के सोजन्य्स से |
बस एक हल्का फुल्का चुटकुला
कृपया कोई बुरा ना माने
क्रमश:
लेकिन हमारे प्राचीन भारतवर्ष में स्त्रियों को उचित सम्मान दिया जाता था और स्त्री पुरष को एक समान समझा जाता था, और उस समय बहुत सी विदुषी स्त्रियाँ भी हुई थीं, उनमे से एक थीं गार्गी शस्त्रों में प्रकांड पंडित,उस समय शस्त्रों की अधिकतर वाद विवाद प्रोतियुगता हुआ करती थी, शास्त्रार्थ करने के लिए लोग दूर,दूर से पुस्तकों लेकर आते थे, जिसके बारें में कबीर दास जी का दोहा भी है |
पोथी पड पड जग मुआ पंडित भया ना कोय |
ढाई आखर प्रेम के जो पड़े सो पंडित होय ||
गार्गी के समय एक ऋषि हुए थे,याग्यवाल्य्क्य ऋषि, ऋषि याग्वालाक्य के साथ गार्गी का शास्त्रार्थ होने लगा, जैसे कबीर दास जी ने अपने ऊपर लिखे हुए दोहे में,से पहली पंक्ति में कहा है,उसके अनुसार जो शास्त्रार्थ में विजयी हो जाता था, उसको हारने वाले से उच्च कोटि का पंडित माना जाता था, अब ऋषि याग्यवालाक्य और गार्गी का शास्त्रार्थ होने लगा, दिन बीतते गये पर ना गार्गी हार मान रही थीं ना ऋषि यागाय्वाल्क्य, ऋषि यागयावालाय्क्य को गृहस्थ जीवन का अनुभव नहीं था, परन्तु गार्गी तो गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रहीं थीं, और गार्गी ने ऋषि यागावालाक्य से गृहस्थ जीवन के बारे में प्रश्न पूछ लिया, जिसका उत्तर ऋषि यागावाल्य्क्य नहीं दे पाए और शास्त्रार्थ में हार गये,और गार्गी विजयी हो गयीं, तत्पश्चात ऋषि यागावालाक्य ने माँ के गर्भ में प्रवेश कर के गृहस्थ जीवन का अनुभव लिया, वास्तव में तप क्या है, अपने को तपाना, इसका अर्थ यह नहीं है अपने शरीर को बिभिन्न प्रकार के कष्ट दो, इसका अर्थ है दूसरों के लिए विभिन्न प्रकार के कष्ट सहना, और इन कष्टों को सेहन करते हुए,प्रभु को समरण करना, इसी सन्दर्भ में एक और कथा है, सीता जी के पिता राजा जनक और राजा परीक्षत को भगवद्गीता सुनाने वाले शुकदेव जी के बारे में |
शुकदेव जी को किसी ने कहा राजा जनक को अपना गुरु बनाने को, और शुकदेव जी पुस्तकों का बोझ लादे हुए पहुँच गए राजा जनक के यहाँ,और देखते क्या हैं राजा जनक शानदार महल है,अनेकों रानियाँ हैं, शुकदेव जी सोचने लगे कि इतनी भोग विलासिता वाला मेरा गुरु कैसे हो सकता है, राजा जनक को शुकदेव जी की बात का ज्ञान हुआ,तो राजा जनक के हाथ में एक दिया दिया और राजा जनक शुकदेव जी से बोले,इस दिए को लेकर मेरे महल का चक्कर लगाओ और यह दिया बुझना नहीं चाहिए,शुकदेव जी का ध्यान तो केवल दिए पर ही केन्द्रित था,कहीं यह दिया बुझ ना जाये,और जब शुकदेव जी महल का चक्कर लगा कर राजा जनक के पास पहुंचे,तो राजा जनक ने पूछा महल में क्या देखा, शुकदेव जी का ध्यान तो दिए पर ही केन्द्रित था,तो उन्होंने उत्तर दिया मेरा ध्यान दिए पर ही केन्द्रित था,फिर बाकि में क्या देख पाता ?
राजा जनक ने फिर शुकदेव जी के हाथ में दिया,दिया और बोले महल की सब वस्तुएं देखना,और ध्यान रखना दिया ना बुझे,अब शुकदेव जी महल की वस्तुएं तो देखते ही थे,और बीच,बीच में दिए को भी देखते थे,और अब जब शुकदेव जी महल का चक्कर लगा कर राजा जनक के पास पहुंचे,तो राजा जनक ने पुन: पूछा महल में क्या देखा ? तो शुकदेव जी ने महल की सारी भव्यता राजा जनक को सुना दी,और दिए की लौ भी जल रही थी, तब राजा जनक ने कहा जिस प्रकार तुमने दिए में भी ध्यान रखा और महल को भी अच्छी प्रकार से देखा,उसी प्रकार में इस भोग विलासिता में रह कर गृहस्थ जीवन के सारे कर्म करता हूँ,और प्रभु को भी हर समय स्मरण करता हूँ, यही गृहस्थ जीवन का तप है,जो कि सबसे बड़ा तप है |
अपने गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियों को छोड़ कर, तप के लिए,पर्वतों,कंदराओ,जंगलो में भटकना तो पाप है |
थोड़ा गंभीर हो गया है,यह लेख चलो कुछ हंसी भी हो जाये |
परीक्षा और गर्लफ्रेंड एक समान हैं
दोनों में ही कठिन प्रश्न होते हैं
और उनकी व्याख्या बहुत करनी पड़ती है
हिंदुस्तान टाइमस के देल्ही टाइमस के सोजन्य्स से |
बस एक हल्का फुल्का चुटकुला
कृपया कोई बुरा ना माने
क्रमश:
माँ की दुर्गा स्तुति पुस्तक का चमत्कार
यह मेरे साथ हुई सत्य घटना है, उन दिनों में इन्जिनीरिंग के तीसरे वर्ष की पड़ाइ कर रहा था, और इन्जिनीरिंग कोलेज के छात्रावास में रह रहा था |
पहले दो वर्ष यानि की चार सेमेस्टर उतीर्ण कर चुका था, हर छे महीने के बाद सेमस्टर की परीक्षा होती थी, दो सेमेस्टर की परीक्षा उतीर्ण करने के बाद,अगले वर्ष में दाखिला मिलता है, तीसरे वर्ष का पहला सेमेस्टर पास कर चुका था, और तीसरे वर्ष के दूसरे सेमेस्टर की परीक्षा देकर,परीक्षा परिणाम की प्रतीक्षा कर रहा था, परीक्षा परिणाम आने पर मैंने अपने को अनूतिर्ण पाया, हर दो सेमेस्टर के बाद अवकाश हो जाता था और हम लोग अपने,अपने घरो को आ जाते थे, अभी परिपक्वता तो आई नहीं थी, इस कारण घर में अपने को अनुतीर्ण बताने पर मेरे साथ क्या व्यवहार होगा,इस डर के कारण में अपने एक सीनियर जो कि नौकरी करता था,उसके घर आ गया था, लेकिन कितने दिन उसके घर में रहता,आना तो लौट के घर में ही था,सो में अपने घर आ गया |
यहाँ पर एक बात और बता दूं,मेरी लौकिक माँ हमारे किसी नजदीकी रिश्तेदार जो कि ज्योतिष भी थे,उनसे पूछती रहती थी, कि मेरा बेटा नियत समय में ही अपनी इन्जिनीरिंग की पड़ाइ कर के आ जायगा,तो वोह सदा हाँ ही कहा करते थे, इस बात को यहीं छोड़ते हैं |
होता ऐसे था कि, कुल प्राप्त अंक 50 प्रतिशत से ऊपर होने चाहिए थे, मेरे अंक उस समय 50 प्रतिशत से ऊपर नहीं थे, और मेरे तीन विषय में भी कुल प्राप्तांक में भी 50 प्रतिशत से ऊपर नहीं थे,और 50 परतिशत से कम अंक किसी भी विषय में पाने पर, उस विषय में भी अनूतिर्ण माना जाता था, और तीन विषय में अनुतीर्ण छात्र को अनूतिर्ण माना जाता था, यही मेरे साथ हुआ था,घर तो आ ही चुका था,और मुझे बताना पड़ा कि में, तीसरे वर्ष में अनूतिर्ण हो गया |
मेरी माँ तो तब नहा कर के स्वछ वस्त्र पहन कर,दुर्गा स्तुति की पुस्तक हाथ में लेकर मन में मेरे पास होने की कामना लेकर बैठ गयीं |
अब पाठ करते,करते पंद्रह दिन हो गये थे, और जगजननी माँ की कृपा से यह चमत्कार होता है, कि पंजाब विश्वविद्यालय में, यह नियम बदलने के लिए आन्दोलन हो जाता है, जो भी छात्र 50 प्रतिशत से कम किसी विषय में प्राप्त करे उसको अनूतिर्ण ना समझा जाये, चाहे कुल प्राप्तांक कुछ भी हों |
जब मेरी माँ को पाठ करते,करते इक्कीसवां दिन हो गया,तो एक और चमत्कार हुआ कि, पंजाब विश्विद्यालय का वर्षो से चला आ रहा नियम बदल गया,और में दोबारा परीक्षा दिए हुए उतीर्ण हो गया,अब मेरा भी उत्साह बड़ा मैंने अपनी उत्तर पुस्तिका की दोबारा जाँच करवाई ,जो कि इन्जिनीरिंग कोलेजो में संभव नहीं था, परन्तु जगजननी माँ की कृपा से मेरे प्राप्तांक उन विषयों में 60 प्रतिशत से ऊपर निकले, तो निकले, पर कुल प्राप्तांक भी 60 प्रतिशत से ऊपर थे |
अब इसको क्या कहा जाये,सयोंग या जगतमाता की कृपा में तो माँ की कृपा ही समझता हूँ,और उस समय अनायास मेरे मुख से श्रद्धावश निकला,जय माता की |
पहले दो वर्ष यानि की चार सेमेस्टर उतीर्ण कर चुका था, हर छे महीने के बाद सेमस्टर की परीक्षा होती थी, दो सेमेस्टर की परीक्षा उतीर्ण करने के बाद,अगले वर्ष में दाखिला मिलता है, तीसरे वर्ष का पहला सेमेस्टर पास कर चुका था, और तीसरे वर्ष के दूसरे सेमेस्टर की परीक्षा देकर,परीक्षा परिणाम की प्रतीक्षा कर रहा था, परीक्षा परिणाम आने पर मैंने अपने को अनूतिर्ण पाया, हर दो सेमेस्टर के बाद अवकाश हो जाता था और हम लोग अपने,अपने घरो को आ जाते थे, अभी परिपक्वता तो आई नहीं थी, इस कारण घर में अपने को अनुतीर्ण बताने पर मेरे साथ क्या व्यवहार होगा,इस डर के कारण में अपने एक सीनियर जो कि नौकरी करता था,उसके घर आ गया था, लेकिन कितने दिन उसके घर में रहता,आना तो लौट के घर में ही था,सो में अपने घर आ गया |
यहाँ पर एक बात और बता दूं,मेरी लौकिक माँ हमारे किसी नजदीकी रिश्तेदार जो कि ज्योतिष भी थे,उनसे पूछती रहती थी, कि मेरा बेटा नियत समय में ही अपनी इन्जिनीरिंग की पड़ाइ कर के आ जायगा,तो वोह सदा हाँ ही कहा करते थे, इस बात को यहीं छोड़ते हैं |
होता ऐसे था कि, कुल प्राप्त अंक 50 प्रतिशत से ऊपर होने चाहिए थे, मेरे अंक उस समय 50 प्रतिशत से ऊपर नहीं थे, और मेरे तीन विषय में भी कुल प्राप्तांक में भी 50 प्रतिशत से ऊपर नहीं थे,और 50 परतिशत से कम अंक किसी भी विषय में पाने पर, उस विषय में भी अनूतिर्ण माना जाता था, और तीन विषय में अनुतीर्ण छात्र को अनूतिर्ण माना जाता था, यही मेरे साथ हुआ था,घर तो आ ही चुका था,और मुझे बताना पड़ा कि में, तीसरे वर्ष में अनूतिर्ण हो गया |
मेरी माँ तो तब नहा कर के स्वछ वस्त्र पहन कर,दुर्गा स्तुति की पुस्तक हाथ में लेकर मन में मेरे पास होने की कामना लेकर बैठ गयीं |
अब पाठ करते,करते पंद्रह दिन हो गये थे, और जगजननी माँ की कृपा से यह चमत्कार होता है, कि पंजाब विश्वविद्यालय में, यह नियम बदलने के लिए आन्दोलन हो जाता है, जो भी छात्र 50 प्रतिशत से कम किसी विषय में प्राप्त करे उसको अनूतिर्ण ना समझा जाये, चाहे कुल प्राप्तांक कुछ भी हों |
जब मेरी माँ को पाठ करते,करते इक्कीसवां दिन हो गया,तो एक और चमत्कार हुआ कि, पंजाब विश्विद्यालय का वर्षो से चला आ रहा नियम बदल गया,और में दोबारा परीक्षा दिए हुए उतीर्ण हो गया,अब मेरा भी उत्साह बड़ा मैंने अपनी उत्तर पुस्तिका की दोबारा जाँच करवाई ,जो कि इन्जिनीरिंग कोलेजो में संभव नहीं था, परन्तु जगजननी माँ की कृपा से मेरे प्राप्तांक उन विषयों में 60 प्रतिशत से ऊपर निकले, तो निकले, पर कुल प्राप्तांक भी 60 प्रतिशत से ऊपर थे |
अब इसको क्या कहा जाये,सयोंग या जगतमाता की कृपा में तो माँ की कृपा ही समझता हूँ,और उस समय अनायास मेरे मुख से श्रद्धावश निकला,जय माता की |
मंगलवार, मार्च 16, 2010
ईश्वर दसों दिशाओं में वर्तमान है, फिर गुनाह क्यों?
ॐ गंग गणपतय: नम :
जय माता की
पहली शैलपुत्री कहलावे |
दूसरी ब्रह्मचारनी मन भावे ||
तीसरी चंद्रघंटा शुभनाम |
चौथी कुष्मांडा सुखधाम ||
पांचवी देवी स्कंदमाता |
छटीकत्यानी विख्याता ||
सातंवी कालरात्रि महामाया |
आठवीं महागौरी जगजाया ||
नौवीं सिद्धि दात्री जगजाने
माँ के पवित्र नवरात्रों के दूसरे दिन, श्री गणेश जी और जगजननी माँ के सभी नौ रूपों और दसों, विद्याओं,को प्रणाम करके,माँ की अनुकम्पा और प्रेरणा से यह लेख लिख रहा हूँ | माँ के प्रमुख नौ रूप हैं,जो मैंने दुर्गा स्तुति के श्लोक में वर्णित किया है, और माँ दुर्गा में यह सब समाये हुए हैं, इन रूपों का पृथक,पृथक सवरूप और स्वव्हाव है,और माता रानी इन स्वरूपों से,भक्तों की रक्षा और दुष्टों का नाश करती हैं, और यह इतनी भोली हैं, कि इनके दुर्गा सप्तशती के मंत्र इतने सशक्त हैं, कि कोई भी इनका लाभ उठा सकता है, इन मंत्रो का कोई लाभ ना उठा ले, इसलिए महादेव जी को इन मंत्रो को कीलित करना पड़ा |
नवरात्रों के आंठ्वे या नौवें दिन को, इन के कंजक स्वरुप में कन्या पूजन का विधान है, कथा इस प्रकार है,पंडित श्री धर जी,माँ के कंजंक स्वरुप को माँ मान कर प्रतिदिन पूजा करते थे, और कालांतर में माँ ने पंडित श्री धर जी ने दर्शन दिए और अपनी पवित्र गुफा,जिसमें माँ वैष्णो देवी, माँ महाकाली,महालक्ष्मी और महासरस्वती के साथ पिंडी रूप में विराजमान है,उसकी खोज करने को कहा |
अब प्रश्न यह उठता है, जिन कन्यायों को माँ स्वरुप मान कर अष्टमी या नौवीं को पूजा जाता है, पर उनके साथ ही भ्रूण हत्या, बलात्कार और जैसे जघन्य अपराध या छेड़,छाड़ क्यों कि जाती है, अब कोई भी कह सकता है, कन्या पत्नी स्वरुप में भी तो होती है, वोह तो मंत्रो के द्वारा अग्नि को साक्षी मान कर विवाह कराया जाता है,वास्तव में हर पति और पत्नी शिव और शिवा का जोड़ा है, और अब पर स्त्री के साथ कुदृष्टि डालना या कुकृत्य करना अब समझा जा सकता है,यही बात स्त्री के लिए भी है,परपुरष पर कुदृष्टि और समागम करना उनको सोचना चाहिए यह कर्म किसके साथ हो रहा है,इस प्रकार हर मनुष्य और स्त्री में ईश्वर समाया हुआ है,और यह सर्वत्र फेले हुए हैं, और यही तो सिद्ध करता है,यत्र,तत्र,सर्वत्र मतलब सब और ईश्वर है, यह तो हुई लौकिक बात और , एक और कथा सिखों के पहले गुरु,गुरु नानक जी के बारें में प्रचलित है, एक बार गुरु नानक देवजी आज के पाकिस्तान में कावा कि ओर चरण रख कर लेट गए, तब किसी मुस्लिम समुदाय से सम्बन्ध रखने वाले को अच्छा नहीं लगा तो,वोह बोला कावे की ओर पैर रख कर नहीं लेटो, गुरु नानक जी ने कहा,मेरे पैर उस ओर कर दो जहाँ कावा ना हो, जहाँ,जहाँ वोह व्यक्ति श्री गुरु नानक देव जी के चरण करता वहीँ,वहीँ उस व्यक्ति को कावा दिखाई देने लगता, मतलब कि खुदा हर ओर है, मानव बुरे कर्म करते हुए सोचने लगता है,मुझे कोई नहीं देख रहा परन्तु, खुदा कहो,ईश्वर कहो हर ओर विद्यमान है,और वोह सबके अच्छे बुरे कर्म देख रहा है |
एक बार किसी गुरु ने अपने दो शिष्यों की परीक्षा लेने के लिए, दोनों को फल दिए और बोले की, इस फल को उस स्थान पर खाना जहाँ पर कोई देख ना रहा हो, दोनों शिष्य चल पड़े,ऐसे स्थान पर जहाँ कोई नहीं देख रहा हो, दोनों को पृथक,पृथक निर्जन स्थान मिल गया, और एक शिष्य ने तो वोह फल खा लिया, परन्तु दूसरे कहीं पर भी जाता,उसको लगा यहाँ पर पशु,पक्षी, देख रहें हैं,और कहीं भी जाता तो उसको लगा यहाँ पर पेड़,पौधे देख रहें हैं, उस शिष्य को लगा,प्रभु की इस सरंचना में,हर जड़ और चेतन वस्तु में,ईश्वर विद्यमान है,तो उसने फल नहीं खाया,और दोनों आखिरकार लौट आये गुरु जी के पास,और गुरु जी ने परीक्षा में सफल पाया, उस शिष्य को जिसने फल नहीं खाया था |
यह अंतरात्मा की आवाज ही तो थी, जिसने दूसरे शिष्य को फल नहीं खाने दिया, यही अंतरात्मा की आवाज हर किसी को गुनाह करने से पहले चेतावनी देती है,और जो इस चेतवानी को सुनते हैं,उनकी अंतरात्मा की आवाज, सदा जीवित रहती है,और जो इस चेतवानी को अनसुना करके,गुनाह, पर गुनाह किये जातें हैं,उनकी यह चेतना या अंतरात्मा या अन्दर की आवाज मृत हो जाती है,यही अंतरात्मा की आवाज ईश्वर की आवाज है,इसका अर्थ तो येही हुआ,घट,घट में ईश्वर विद्यमान |
पंडित डी.के वत्स जी ने अपने लेख में यही तो सपष्ट किया था, मन्त्र,कर्मकांड,उपासना का लाभ क्यों नहीं मिलता,पहले अपने अन्तकरण को साफ करने के बाद ही तो लाभ मिलेगा,क्योंकि ईश्वर तो अन्तकरण में वास करता है |
इसीलिए तो कहा गया है,यम नियम,प्रतिहार,यम अर्थार्त अपना व्यवहार,इसके पश्चात आता है नियम,और इसके पश्चात प्रतिहार अर्थात,जप,तप इत्यादी,और यह सब भी होना चाहिए,मनसा वाचा कर्मणा, अर्थार्त मन से बचन से और कर्मों के द्वारा,
हमारे मन से सूक्ष्म तरेंगे निकलती हैं,और यही वातावरण को प्रभावित करती हैं,और यही तरेंगे ईश्वर तक पहुँचती है, ईश्वर सब ओर विद्यमान है,और हर स्वरुप में है, जो जिस स्वरुप की पूजा,अर्चना करता है,उसको ईश्वर के उसी स्वरुप के दर्शन हो जाते हैं,जैसा कि भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया था |
इसीलिए तो गुनाह करने वाले को कहा जाता है,ईश्वर से डरो,वोह तो हर स्वरुप में दसो दिशाओं में,जड़ चेतन में विद्यमान है |
माँ सब पर अपनी अनुकम्पा बनाये रखना
आप के शस्त्र धारण का कारण यही तो है,भक्तो कि रक्षा और दुष्टों का नाश |
माँ मेरे सभी अपराध क्षमा करना
जय माता की
पहली शैलपुत्री कहलावे |
दूसरी ब्रह्मचारनी मन भावे ||
तीसरी चंद्रघंटा शुभनाम |
चौथी कुष्मांडा सुखधाम ||
पांचवी देवी स्कंदमाता |
छटीकत्यानी विख्याता ||
सातंवी कालरात्रि महामाया |
आठवीं महागौरी जगजाया ||
नौवीं सिद्धि दात्री जगजाने
माँ के पवित्र नवरात्रों के दूसरे दिन, श्री गणेश जी और जगजननी माँ के सभी नौ रूपों और दसों, विद्याओं,को प्रणाम करके,माँ की अनुकम्पा और प्रेरणा से यह लेख लिख रहा हूँ | माँ के प्रमुख नौ रूप हैं,जो मैंने दुर्गा स्तुति के श्लोक में वर्णित किया है, और माँ दुर्गा में यह सब समाये हुए हैं, इन रूपों का पृथक,पृथक सवरूप और स्वव्हाव है,और माता रानी इन स्वरूपों से,भक्तों की रक्षा और दुष्टों का नाश करती हैं, और यह इतनी भोली हैं, कि इनके दुर्गा सप्तशती के मंत्र इतने सशक्त हैं, कि कोई भी इनका लाभ उठा सकता है, इन मंत्रो का कोई लाभ ना उठा ले, इसलिए महादेव जी को इन मंत्रो को कीलित करना पड़ा |
नवरात्रों के आंठ्वे या नौवें दिन को, इन के कंजक स्वरुप में कन्या पूजन का विधान है, कथा इस प्रकार है,पंडित श्री धर जी,माँ के कंजंक स्वरुप को माँ मान कर प्रतिदिन पूजा करते थे, और कालांतर में माँ ने पंडित श्री धर जी ने दर्शन दिए और अपनी पवित्र गुफा,जिसमें माँ वैष्णो देवी, माँ महाकाली,महालक्ष्मी और महासरस्वती के साथ पिंडी रूप में विराजमान है,उसकी खोज करने को कहा |
अब प्रश्न यह उठता है, जिन कन्यायों को माँ स्वरुप मान कर अष्टमी या नौवीं को पूजा जाता है, पर उनके साथ ही भ्रूण हत्या, बलात्कार और जैसे जघन्य अपराध या छेड़,छाड़ क्यों कि जाती है, अब कोई भी कह सकता है, कन्या पत्नी स्वरुप में भी तो होती है, वोह तो मंत्रो के द्वारा अग्नि को साक्षी मान कर विवाह कराया जाता है,वास्तव में हर पति और पत्नी शिव और शिवा का जोड़ा है, और अब पर स्त्री के साथ कुदृष्टि डालना या कुकृत्य करना अब समझा जा सकता है,यही बात स्त्री के लिए भी है,परपुरष पर कुदृष्टि और समागम करना उनको सोचना चाहिए यह कर्म किसके साथ हो रहा है,इस प्रकार हर मनुष्य और स्त्री में ईश्वर समाया हुआ है,और यह सर्वत्र फेले हुए हैं, और यही तो सिद्ध करता है,यत्र,तत्र,सर्वत्र मतलब सब और ईश्वर है, यह तो हुई लौकिक बात और , एक और कथा सिखों के पहले गुरु,गुरु नानक जी के बारें में प्रचलित है, एक बार गुरु नानक देवजी आज के पाकिस्तान में कावा कि ओर चरण रख कर लेट गए, तब किसी मुस्लिम समुदाय से सम्बन्ध रखने वाले को अच्छा नहीं लगा तो,वोह बोला कावे की ओर पैर रख कर नहीं लेटो, गुरु नानक जी ने कहा,मेरे पैर उस ओर कर दो जहाँ कावा ना हो, जहाँ,जहाँ वोह व्यक्ति श्री गुरु नानक देव जी के चरण करता वहीँ,वहीँ उस व्यक्ति को कावा दिखाई देने लगता, मतलब कि खुदा हर ओर है, मानव बुरे कर्म करते हुए सोचने लगता है,मुझे कोई नहीं देख रहा परन्तु, खुदा कहो,ईश्वर कहो हर ओर विद्यमान है,और वोह सबके अच्छे बुरे कर्म देख रहा है |
एक बार किसी गुरु ने अपने दो शिष्यों की परीक्षा लेने के लिए, दोनों को फल दिए और बोले की, इस फल को उस स्थान पर खाना जहाँ पर कोई देख ना रहा हो, दोनों शिष्य चल पड़े,ऐसे स्थान पर जहाँ कोई नहीं देख रहा हो, दोनों को पृथक,पृथक निर्जन स्थान मिल गया, और एक शिष्य ने तो वोह फल खा लिया, परन्तु दूसरे कहीं पर भी जाता,उसको लगा यहाँ पर पशु,पक्षी, देख रहें हैं,और कहीं भी जाता तो उसको लगा यहाँ पर पेड़,पौधे देख रहें हैं, उस शिष्य को लगा,प्रभु की इस सरंचना में,हर जड़ और चेतन वस्तु में,ईश्वर विद्यमान है,तो उसने फल नहीं खाया,और दोनों आखिरकार लौट आये गुरु जी के पास,और गुरु जी ने परीक्षा में सफल पाया, उस शिष्य को जिसने फल नहीं खाया था |
यह अंतरात्मा की आवाज ही तो थी, जिसने दूसरे शिष्य को फल नहीं खाने दिया, यही अंतरात्मा की आवाज हर किसी को गुनाह करने से पहले चेतावनी देती है,और जो इस चेतवानी को सुनते हैं,उनकी अंतरात्मा की आवाज, सदा जीवित रहती है,और जो इस चेतवानी को अनसुना करके,गुनाह, पर गुनाह किये जातें हैं,उनकी यह चेतना या अंतरात्मा या अन्दर की आवाज मृत हो जाती है,यही अंतरात्मा की आवाज ईश्वर की आवाज है,इसका अर्थ तो येही हुआ,घट,घट में ईश्वर विद्यमान |
पंडित डी.के वत्स जी ने अपने लेख में यही तो सपष्ट किया था, मन्त्र,कर्मकांड,उपासना का लाभ क्यों नहीं मिलता,पहले अपने अन्तकरण को साफ करने के बाद ही तो लाभ मिलेगा,क्योंकि ईश्वर तो अन्तकरण में वास करता है |
इसीलिए तो कहा गया है,यम नियम,प्रतिहार,यम अर्थार्त अपना व्यवहार,इसके पश्चात आता है नियम,और इसके पश्चात प्रतिहार अर्थात,जप,तप इत्यादी,और यह सब भी होना चाहिए,मनसा वाचा कर्मणा, अर्थार्त मन से बचन से और कर्मों के द्वारा,
हमारे मन से सूक्ष्म तरेंगे निकलती हैं,और यही वातावरण को प्रभावित करती हैं,और यही तरेंगे ईश्वर तक पहुँचती है, ईश्वर सब ओर विद्यमान है,और हर स्वरुप में है, जो जिस स्वरुप की पूजा,अर्चना करता है,उसको ईश्वर के उसी स्वरुप के दर्शन हो जाते हैं,जैसा कि भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया था |
इसीलिए तो गुनाह करने वाले को कहा जाता है,ईश्वर से डरो,वोह तो हर स्वरुप में दसो दिशाओं में,जड़ चेतन में विद्यमान है |
माँ सब पर अपनी अनुकम्पा बनाये रखना
आप के शस्त्र धारण का कारण यही तो है,भक्तो कि रक्षा और दुष्टों का नाश |
माँ मेरे सभी अपराध क्षमा करना
बुधवार, मार्च 10, 2010
परिश्रम करके भी असफल लोगों को सफल होने के लिए प्रोत्साहन क्यों नहीं मिलता
बहुधा मेरे मन में विचार आता है जो लोग जीवन में कुछ उपलब्धि पा लेते हैं, उनकी जयजयकार होती हैं, उनके लिए बधाईओं का ताँता सा लग जाता है, और वोह लोग जीवन में सफलता की सीडिया चड़ते जातें हैं,और उनका उदहारण दिया जाता है, परन्तु जो लोग परिश्रम करके भी असफल हो जातें हैं, वोह हताश हो जातें हैं, और बहुत बार अपनी जीवन लीला समाप्त करने की ओर अग्रसर हो जातें हैं,जिसका उदहारण विद्यार्थियों में देखा जाता है,किसी ने परीक्षा में परिश्रम करके भी कम अंक प्राप्त किये या कोई परीक्षा में असफल हो गया तो वोह हताश हो कर आत्महत्या की ओर अग्रसर हो गया, हाँ जिसने कोई परिश्रम ही नहीं किया अगर वोह असफल हो गया या हो गयी तो उसको कहाँ हताशा या निराशा ?
यह तो रहा विद्यार्थिओं के बारे में, अगर नौकरी करने वालों की बात करें तो वोह लोग जो अपनी आजीविका कमाने के लिए बहुत परिश्रम से काम करते रहे और उनका आजीविका का सहारा समाप्त हो गया,कारण कुछ भी रहा हो जैसे नौकरी के वातावरण को ना समझ पाना, झूठा दोशारापन या अपनी रुचि का काम नहीं मिलना, बस आजीविका ना कमाने का कोई भी कारण हो, तो वोह इंसान हताश,निराश हो कर अपनी जीवन लीला समाप्त करने का प्रयास करता है,कभी वोह इसमें सफल हो पाता है कभी नहीं,वयापार में अपनी सारी जमा पूँजी और कर्ज लेकर पैसा लगा दिया,और व्यापर में ऐसा घाटा हुआ और सारी पूँजी समाप्त हो गयी तो फिर यही कदम,और भी बहुत से असफल होने के कारण हैं, यह तो सच है संघर्ष तो करते रहना चाहिए,इसके लिए आवश्यक है, आत्मविश्वास,मनोबल, और सदा अच्छा होने की आशा रखना, केवल सच्चे मित्र, परिवार के वोह सदस्य जो की उक्त इंसान का अच्छा होने की कामना करते हैं,वोह ही लोग उसको धीरज देतें हैं और कोई नहीं , और दूसरा उपाय है,मनोवेग्यानिक का सहारा लेना, परन्तु मनोवेग्यानिक चिकत्सा के बारे में तो पड़े,लिखे लोग जानते हैं, अब तो मनोवेगाय्निक के बारे में जन जाग्रति हो रही है, परन्तु अभी भी अधिकतर ग्रामीण लोगों को इसके बारे में समझ नहीं है |
अब प्रश्न उठता है, तो इस प्रकार के लोगों की सहायता के लिए क्या करना चाहिए, वैसे तो बहुत सी समाजसेवी संस्थाए है, अनाथ बच्चों के लिए, उपेक्षित वृद्धों के लिए और भी अनेक वर्गों के लिए, इस प्रकार के परिश्रम करके भी असफल व्यक्तियों के लिए भी ऐसी संस्थाए होनी चाहिए,जो इस प्रकार के इंसानों को दृरता आत्मविश्वास,आशा को जीवित रखना जैसे गुणों को इनमे विकसित करे, अगर इस प्रकार इन असफल लोगों को सहारा मिलेगा,तो यह भी सफल लोगों के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चलेगा, तो समाज,देश और विश्व का भला होगा |
असफल लोगों को सफलता की सीडिया चडाने के लिए, स्वयं अपने पर विश्वास और उनकी इस प्रकार सहायता करना नितांत ही आवश्यक है,कि उसको लगे किउनको ठीक आवलंबन मिल गया |
असफल इन्सान अंधकार से निकल कर सफलता का उजाला दें |
यह तो रहा विद्यार्थिओं के बारे में, अगर नौकरी करने वालों की बात करें तो वोह लोग जो अपनी आजीविका कमाने के लिए बहुत परिश्रम से काम करते रहे और उनका आजीविका का सहारा समाप्त हो गया,कारण कुछ भी रहा हो जैसे नौकरी के वातावरण को ना समझ पाना, झूठा दोशारापन या अपनी रुचि का काम नहीं मिलना, बस आजीविका ना कमाने का कोई भी कारण हो, तो वोह इंसान हताश,निराश हो कर अपनी जीवन लीला समाप्त करने का प्रयास करता है,कभी वोह इसमें सफल हो पाता है कभी नहीं,वयापार में अपनी सारी जमा पूँजी और कर्ज लेकर पैसा लगा दिया,और व्यापर में ऐसा घाटा हुआ और सारी पूँजी समाप्त हो गयी तो फिर यही कदम,और भी बहुत से असफल होने के कारण हैं, यह तो सच है संघर्ष तो करते रहना चाहिए,इसके लिए आवश्यक है, आत्मविश्वास,मनोबल, और सदा अच्छा होने की आशा रखना, केवल सच्चे मित्र, परिवार के वोह सदस्य जो की उक्त इंसान का अच्छा होने की कामना करते हैं,वोह ही लोग उसको धीरज देतें हैं और कोई नहीं , और दूसरा उपाय है,मनोवेग्यानिक का सहारा लेना, परन्तु मनोवेग्यानिक चिकत्सा के बारे में तो पड़े,लिखे लोग जानते हैं, अब तो मनोवेगाय्निक के बारे में जन जाग्रति हो रही है, परन्तु अभी भी अधिकतर ग्रामीण लोगों को इसके बारे में समझ नहीं है |
अब प्रश्न उठता है, तो इस प्रकार के लोगों की सहायता के लिए क्या करना चाहिए, वैसे तो बहुत सी समाजसेवी संस्थाए है, अनाथ बच्चों के लिए, उपेक्षित वृद्धों के लिए और भी अनेक वर्गों के लिए, इस प्रकार के परिश्रम करके भी असफल व्यक्तियों के लिए भी ऐसी संस्थाए होनी चाहिए,जो इस प्रकार के इंसानों को दृरता आत्मविश्वास,आशा को जीवित रखना जैसे गुणों को इनमे विकसित करे, अगर इस प्रकार इन असफल लोगों को सहारा मिलेगा,तो यह भी सफल लोगों के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चलेगा, तो समाज,देश और विश्व का भला होगा |
असफल लोगों को सफलता की सीडिया चडाने के लिए, स्वयं अपने पर विश्वास और उनकी इस प्रकार सहायता करना नितांत ही आवश्यक है,कि उसको लगे किउनको ठीक आवलंबन मिल गया |
असफल इन्सान अंधकार से निकल कर सफलता का उजाला दें |
मंगलवार, मार्च 09, 2010
क्या बड़ती उम्र क्या केवल एक संख्या है या कुछ और
बहुत पहेले दूरदर्शन पर एक च्यवनप्राश एक विज्ञापन आया करता था,जिसमें एक नौजवान दम्पति में से उसकी पत्नी,ऊँचे पेड़ से कुछ तोड़ने को कहती है,परन्तु ऊंचाई के कारण वोह उतार नहीं पाता, फिर एक प्रोड़ दम्पति में से वोह प्रोड़ उसको तोड़ लेता है |
यह तो रहा दोनों प्रकार के दम्पति में शारीरिक शक्ति की तुलना, जो कि दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाला विज्ञापन था, शरीर जब प्रोड़ अवस्था में पहुँचता है,तब मानव के शरीर में अनेक प्रकार के वदलाव होते हैं,जैसे बालों में सफेदी,चेहरे पर धीरे,धीरे झुरियो का आना और उस समय तक अनेकों प्रकार के खट्टे,मीठे अनुभव हो जातें हैं, लेकिन उन प्रोड़ लोगों को कहा जाता है,बुड़ापे में यह बात यावोह बात शोभा नहीं देती, कम से कम उम्र का लिहाज करो, आखिर दिल तो सभी का होता है,और बहुधा कहा जाता है,बुडे हो गए हैं तो दिल तो जवान है, यह कैसा विरोधावास है ?
इस समय मेरे मस्तिष्क में सदी के महानायक अमिताभ वच्चन का विचार आ रहा है, वोह अपनी इस 67 वर्ष की आयु में अब तक काम कर रहें है, और बहुत से एक से एक बड़ कर प्रस्तुति दे रहे हैं, यह बात तो ठीक है सिने कलाकार निर्माता,निर्देशक के अनुसार काम करता है, अब उनके समकक्ष कलाकार अब अभिनय नहीं करते, लेकिन अपनी आयु की और ना देख कर वोह एक से बड़ कर चलचित्र को योगदान दे रहें है, दूसरे निर्माता,अभिनेता मेरे मस्तिष्क में आ रहें है,सदाबहार हीरो देवानंद उन्होंने भी अपनी बड़ती आयु को ना देख कर, बहुत से चलचित्र के निर्माता बने और उसमे अभिनय भी किया, अब मेरे मस्तिष्क में आ रही हैं सिने अदाकारा रेखा, बहुत आयु तक उन्होंने ने अपनी शारीरिक खूबसूरती का ध्यान रक्खा |
यह तो रही सिने कलाकारों की बात परन्तु प्रोड़ शिक्षा की बात होती है, यह नहीं कहा जाता,बुड्ढे तोते क्या खाक पड़ेंगे ", अगर प्रोड़ शिक्षा की और देखा जाये तो इसका अभियान चलता रहता है, प्रोड़ शिक्षा को प्रोत्साहन दिया जाता है,हाँ यह अवश्य है की प्रोड़ और नौजवान लोगों की विचारधारा अलग,अलग होती है,जिसको "जनरेशन गेप कहा जाता है", समझ नहीं आता बड़ती आयु एक संख्या है,या कुछ और |
यह तो रहा दोनों प्रकार के दम्पति में शारीरिक शक्ति की तुलना, जो कि दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाला विज्ञापन था, शरीर जब प्रोड़ अवस्था में पहुँचता है,तब मानव के शरीर में अनेक प्रकार के वदलाव होते हैं,जैसे बालों में सफेदी,चेहरे पर धीरे,धीरे झुरियो का आना और उस समय तक अनेकों प्रकार के खट्टे,मीठे अनुभव हो जातें हैं, लेकिन उन प्रोड़ लोगों को कहा जाता है,बुड़ापे में यह बात यावोह बात शोभा नहीं देती, कम से कम उम्र का लिहाज करो, आखिर दिल तो सभी का होता है,और बहुधा कहा जाता है,बुडे हो गए हैं तो दिल तो जवान है, यह कैसा विरोधावास है ?
इस समय मेरे मस्तिष्क में सदी के महानायक अमिताभ वच्चन का विचार आ रहा है, वोह अपनी इस 67 वर्ष की आयु में अब तक काम कर रहें है, और बहुत से एक से एक बड़ कर प्रस्तुति दे रहे हैं, यह बात तो ठीक है सिने कलाकार निर्माता,निर्देशक के अनुसार काम करता है, अब उनके समकक्ष कलाकार अब अभिनय नहीं करते, लेकिन अपनी आयु की और ना देख कर वोह एक से बड़ कर चलचित्र को योगदान दे रहें है, दूसरे निर्माता,अभिनेता मेरे मस्तिष्क में आ रहें है,सदाबहार हीरो देवानंद उन्होंने भी अपनी बड़ती आयु को ना देख कर, बहुत से चलचित्र के निर्माता बने और उसमे अभिनय भी किया, अब मेरे मस्तिष्क में आ रही हैं सिने अदाकारा रेखा, बहुत आयु तक उन्होंने ने अपनी शारीरिक खूबसूरती का ध्यान रक्खा |
यह तो रही सिने कलाकारों की बात परन्तु प्रोड़ शिक्षा की बात होती है, यह नहीं कहा जाता,बुड्ढे तोते क्या खाक पड़ेंगे ", अगर प्रोड़ शिक्षा की और देखा जाये तो इसका अभियान चलता रहता है, प्रोड़ शिक्षा को प्रोत्साहन दिया जाता है,हाँ यह अवश्य है की प्रोड़ और नौजवान लोगों की विचारधारा अलग,अलग होती है,जिसको "जनरेशन गेप कहा जाता है", समझ नहीं आता बड़ती आयु एक संख्या है,या कुछ और |
मंगलवार, मार्च 02, 2010
शेर क्यों और भी जीव विलुप्त होते जा रहे हैं |
आज कल दूरदर्शन पर विभिन सेलिब्रिटीयों के द्वारा सन्देश दिया जा रहा है, हमारे देश में केवल 1411 शेर रह गएँ हैं, परन्तु इसके अतिरिक्त और भी वोह जीव साधारनतया बाग,बगीचों और घरों में पाए जाते थे,वोह भी तो लुप्तप्राय: होते जा रहें हैं,
पहचाना आपने,जी हाँ फूल से रस चूसती मधुमक्खी, जो फूलों से मकरंद चूस कर,शहद में परिवर्तित करती हैं, इन मधुमक्खियों के छत्ते पेड़ो पर लटकते दिखाई दे जाते थे, और जिन छत्तों पर यह मधुमक्खियाँ पर दिखाईं देतीं थी, अब कहाँ यह शेहद के छत्ते और यह मधुमखियाँ कहाँ दृष्टिगोचर होतीं हैं ?,अब तो यह नजारा देखना दुर्लभ सा हो गया है, धरती पर तेजी से बनते घरों के कारण,इनका आशियाना बाग़,बगीचें छिनते जा रहें हैं,और यह शेहद की मक्खियाँ लुप्तप्राय: होतीं जा रहीं हैं |
अब आते हैं,रंगबिरंगी, मनमोहक बागों में,फूलों का रस चूसती हुईं,तितलियों पर, बच्चों को यह रंगबिरंगी तितलियाँ इतनी भाती थीं, कि इनकों पकड़ने के लिए इनका पीछा करतें थे, और जब यह तितलियाँ पकड़ में आ जातीं थीं तो ,इनके रंगबिरंगे रंग हाथों की उँगलियों पर लग जातें थें, इनका भी आशियाना बाग़,बगीचें ही थे, लोगों के अपना आशियाना बनाने के स्थान,पर इन रंगबिरंगी तितलियों का आशियाना बहुत हद तक छिन लिया हैं |
यह नन्हे,नन्हे जीव उड़ते हुए, एक फूल पर बैठ कर और फिर दूसरे फूल पर बैठ कर, फूलों के परागन में सहायता करतें हैं,और इस प्रकार से फूलों से लदी हुई बगिया के निर्माण में सहायक होतें हैं,परन्तु यह भी लुप्त होने की ओर अग्रसर हो रहें हैं |
इस नन्ही सी चिड़िया से कौन परिचित नहीं होगा, हमारे,आपके घरों में लटकी हुई फोटों के पीछे यह अपना घोंसला बनाती थी, लेकिन अब तो गगनचुम्बी इमारतों का निर्माण होने लगा हैं, यह चिड़ियाँ तो धारा पर बसे हुए घरों में अधिक स्थान होने के कारण,यह उन घरों में अपना घोसला बनातीं थीं ,परन्तु गगनचुम्बी इमारतों में इनकों घोस्लां बनाना कठिन हैं, इनका भी आशियाना छिनता जा रहा है, यह चिड़िया बारिश के जमीन पर पड़े हुए पानी में नहाते हुयें दिखाई दे जातीं थी,पर अब कहाँ वोह नजारा देखने को मिलता है ?
आज कल प्रक्रति का सफाई कर्मचारी यानि कि गिद्ध जो मरे हुए जीव,जंतुओं को कहा,कहा करके सफाई को अंजाम देते हैं,वोह भी तो लुप्त होते जा रहें हैं, केवल शेरो की संख्यां तो कम हो गयीं हैं,परन्तु यह जीव जंतु भी तो लुप्त होने के कगार की ओर अग्रसर हो रहें हैं |
केवल शेर क्यों इन जीव,जंतुओं का सरंक्षण दो
पहचाना आपने,जी हाँ फूल से रस चूसती मधुमक्खी, जो फूलों से मकरंद चूस कर,शहद में परिवर्तित करती हैं, इन मधुमक्खियों के छत्ते पेड़ो पर लटकते दिखाई दे जाते थे, और जिन छत्तों पर यह मधुमक्खियाँ पर दिखाईं देतीं थी, अब कहाँ यह शेहद के छत्ते और यह मधुमखियाँ कहाँ दृष्टिगोचर होतीं हैं ?,अब तो यह नजारा देखना दुर्लभ सा हो गया है, धरती पर तेजी से बनते घरों के कारण,इनका आशियाना बाग़,बगीचें छिनते जा रहें हैं,और यह शेहद की मक्खियाँ लुप्तप्राय: होतीं जा रहीं हैं |
अब आते हैं,रंगबिरंगी, मनमोहक बागों में,फूलों का रस चूसती हुईं,तितलियों पर, बच्चों को यह रंगबिरंगी तितलियाँ इतनी भाती थीं, कि इनकों पकड़ने के लिए इनका पीछा करतें थे, और जब यह तितलियाँ पकड़ में आ जातीं थीं तो ,इनके रंगबिरंगे रंग हाथों की उँगलियों पर लग जातें थें, इनका भी आशियाना बाग़,बगीचें ही थे, लोगों के अपना आशियाना बनाने के स्थान,पर इन रंगबिरंगी तितलियों का आशियाना बहुत हद तक छिन लिया हैं |
यह नन्हे,नन्हे जीव उड़ते हुए, एक फूल पर बैठ कर और फिर दूसरे फूल पर बैठ कर, फूलों के परागन में सहायता करतें हैं,और इस प्रकार से फूलों से लदी हुई बगिया के निर्माण में सहायक होतें हैं,परन्तु यह भी लुप्त होने की ओर अग्रसर हो रहें हैं |
इस नन्ही सी चिड़िया से कौन परिचित नहीं होगा, हमारे,आपके घरों में लटकी हुई फोटों के पीछे यह अपना घोंसला बनाती थी, लेकिन अब तो गगनचुम्बी इमारतों का निर्माण होने लगा हैं, यह चिड़ियाँ तो धारा पर बसे हुए घरों में अधिक स्थान होने के कारण,यह उन घरों में अपना घोसला बनातीं थीं ,परन्तु गगनचुम्बी इमारतों में इनकों घोस्लां बनाना कठिन हैं, इनका भी आशियाना छिनता जा रहा है, यह चिड़िया बारिश के जमीन पर पड़े हुए पानी में नहाते हुयें दिखाई दे जातीं थी,पर अब कहाँ वोह नजारा देखने को मिलता है ?
आज कल प्रक्रति का सफाई कर्मचारी यानि कि गिद्ध जो मरे हुए जीव,जंतुओं को कहा,कहा करके सफाई को अंजाम देते हैं,वोह भी तो लुप्त होते जा रहें हैं, केवल शेरो की संख्यां तो कम हो गयीं हैं,परन्तु यह जीव जंतु भी तो लुप्त होने के कगार की ओर अग्रसर हो रहें हैं |
केवल शेर क्यों इन जीव,जंतुओं का सरंक्षण दो
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